दृष्टि बाधित बालकों हेतु समावेशी शिक्षा व्यवस्था किस प्रकार से हो सकती है? इसमें शिक्षक की भूमिका पर प्रकाश डालें।

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सभी बच्चों को सीखने की विधियों और गति में आपसी भिन्नता के बाद भी समावेशित शिक्षा सीखने के एक समान अवसर प्रदान करने पर बल देती है। यह विविधताओं और सभी बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु परम्परागत स्कूल व्यवस्था में परिवर्तन लाने का स्वागत करती है । इस प्रकार समावेशन को मुख्य धारा की शिक्षा व्यवस्था में सभी शिक्षार्थियों की स्वीकृति के रूप में भी स्पष्ट किया जाता है, जहाँ विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के साथ, सामान्य बच्चों को एक ही परिवेश में शिक्षा प्रदान की जाए और उनकी शिक्षा के लिए सभी शिक्षकों की जिम्मेदारी सुनिश्चित की जाए।

दृष्टिबाधित बालकों का समावेशन

समावेशन शब्द से संबंध भेदभाव के बिना सभी बच्चों को समाहित कर एक साथ शिक्षा प्रदान करने से है। दृष्टिबाधित एवं अन्य विकलांग बालकों के शिक्षण प्रशिक्षण की शुरुआत पृथक् व्यवस्था में विशिष्ट विद्यालयों में शुरू हुई। भारत में समावेशन प्रत्यय का आरम्भ एकीकृत शिक्षा के रूप में हुआ। 70 के दशक से इस बात पर ध्यान दिया जाने लगा कि जहाँ तक हो सके सभी विकलांग बालकों की शिक्षा सामान्य कक्षा व्यवस्था मंद ही सम्पन्न कराई जाए। एकीकृत शिक्षा के माध्यम से दृष्टिबाधित बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ, पास के सामान्य विद्यालय में ही शिक्षा देने की योजना के साथ हुई ।

समावेशित शिक्षा में शिक्षक की भूमिका

किसी शिक्षण अधिगम व्यवस्था को प्रभावकारी बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका सर्वोपरि होती है। समावेशी शिक्षा में भी शिक्षकों तथा अन्य विशेषज्ञों की भूमिका अहम मानी जाती है। चूंकि समावेशन की प्रक्रिया में सामान्य कक्षाध्यापक तथा विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विशेष अध्ययन की व्यवस्था होती है ।

कक्षाध्यापक की भूमिका

समावेशी शिक्षा को प्रभावकारी बनाने के लिए कक्षाध्यापक की दृष्टिबाधित बालकों के प्रति अभिवृत्ति गहरा प्रभाव डालती है। स्मिथ पॉवेल, पेटॉन तथा डॉवडी (2011) ने कक्षाध्यापक की समावेशी शिक्षा में निम्नलिखित क्षेत्रों में भूमिका बतायी है–

हॉब्स तथा वेशलिंग समावेशित शिक्षा को प्रभावकारी तथा सफल बनाने में कक्षाध्यापक की भूमिका को सर्वोपरि बताया है चूँकि वे ही सामान्य कक्षा अनुदेशन के लिए उत्तरदायी हैं। समावेशित शिक्षा में कक्षाध्यापक की कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं निम्नलिखित हैं–

(i) कक्षा में दृष्टिबाधित बालकों को अन्य बालकों के समतुल्य स्वीकार करना।

(ii) दृष्टिबाधित बालकों हेतु मूल्यांकन तथा वैयक्तिक शैक्षिक योजना निर्माण सम्बन्धी विशेष दल का हिस्सा बनना।

(iii) दृष्टिबाधित बाधित बालकों के अधिकार की रक्षा के लिए तत्पर रहना।

(iviv) बालक के माता– पिता से समय– समय पर सम्पर्क स्थापित करना उनका मार्गदर्शन करना।

(v) वैयक्तिक बाधाओं को ध्यान में रखते हुए अनुदेशन में आवश्यक बदलाव करना।

(vi) विकलांगता सम्बन्धी सरकारी योजनाओं, अधिनियमों की समझ रखना तथा उनके लाभ को दृष्टिबाधित तक पहुँचाने में मदद करना।

(vii) कक्षा में सभी छात्रों को समान अवसर प्रदान करना।

(vii) विशेष आवश्यकता होने पर विशेष शिक्षक की सेवा प्राप्त करना।

(ix) अनुदेशन को प्रभावकारी बनाने के लिए विशेष उपकरों का उपयोग करना।

(x) अन्य बालकों को सहयोग देने तथा सहयोग प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना।

विशेष शिक्षक की भूमिका

दृष्टिबाधित बालकों की विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं के समुचित निष्पादन के लिए विशेष शिक्षक की व्यवस्था होती है । विशेष शिक्षक दृष्टिबाधित बालकों की शिक्षा तथा पुनर्वास के लिए विशेष रूप से प्रशिक्षित होते हैं। इनकी भूमिका विशिष्ट होने के साथ– साथ विस्तृत भी होती है।

ब्रेल प्रशिक्षण

बालकों के लिए ब्रेल शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। दृष्टिबाधित बालक पठन व लेखन का कार्य स्पर्श रूप में करता है। ब्रेल छ: उभरी बिन्दुओं पर आधारित एक स्पर्शीय लिपि है। बेल लेखन कार्य दाएं से बाएं ओर होता है जबकि पठन बाएं से दाएं ओर होता है। ब्रेल प्रशिक्षण के द्वारा दृष्टिबाधित बालकों को पढ़ने– लिखने में सहायता मिलती है।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं–

(i) दृष्टिबाधित बालकों को ब्रेल पठन और लेखन सिखाना।

(ii) ब्रेल प्रशिक्षण, ब्रेल– पूर्व तत्परता कार्यक्रम तय करना।

(iii) बेल लेखन हेतु विभिन्न उपकरणों से अवगत कराना।

(iv) संकोच ब्रेल तथा नेमेम कोड से अवगत कराना।

पहचान और शीघ्र हस्तक्षेप ।

दृष्टिबाधित बालक की यथाशीघ्र पहचान अत्यन्त आवश्यक है। किसी भी दृष्टिबाधित बालक हेतु समुचित कार्यक्रम का निर्धारण तब तक नहीं किया जा सकता है जब तक दृष्टिबाधिता की पहचान एवं मूल्यांकन न कर लिया जाये । पहचानोपरान्त नैदानिक मूल्यांकन एवं चिकित्सकीय परामर्श हेतु नेत्र विशेषज्ञ के पास भेजना चाहिए। यदि दृष्टि क्षति में चिकित्सकीय सुधार सम्भव नहीं है तो उनके लिए उपयुक्त हस्तक्षेप तैयार करना चाहिए। यदि कार्यकारी दृष्टि शेष है तो विशिष्ट शिक्षक की भूमिका कार्यकारी दृष्टि का मूल्यांकन तथा दृष्टि क्षमता विकास करना भी है।

यदि माता– पिता बच्चे से अरुचि रखते हैं अथवा निराश हैं, तो हस्तक्षेप कर उनमें उत्साह भरना चाहिए। उन्को संतुष्ट करना चाहिए कि इस प्रकार की अक्षमता तथा इसके प्रभाव को कम किया जा सकता है । परिवार के दृष्टिकोण में भी परिवर्तन लाने का प्रयास करना चाहिए।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं–

(i) कक्षा तथा अन्य स्थान पर दृष्टिबाधित बालकों को विशिष्ट लक्षणों के आधार पर पहचान करना।

(ii) लेखन– पठन हेतु उचित माध्यम के उचित चुनाव में मदद करना।

(iii) चिन्हित छात्रों के लिए शीघ्र आवश्यक शैक्षिक पुनर्वास कार्यक्रम की व्यवस्था करना।

(iv) चिन्हित छात्रों के लिए विशेष विशेषज्ञों (चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता) की सलाह लेना।

(v) माता– पिता को उचित परामर्श देना एवं उनकी उपयुक्त सहायता प्राप्त करना।

संवेदी प्रशिक्षण

मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ उसे अपने वातावरण को स्पष्ट रूप से जानने, समझने और अन्तःक्रिया में सहायक होती है। इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा मनुष्य सम्पूर्ण सूचनाओं और अनुभवों को प्राप्त करता है, इसलिए इसे सूचना का द्वार भी कहते हैं । ज्ञानेन्द्रियों के नेत्र का और संवेदनाओं में दृष्टि का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न शोधों द्वारा इस तथ्य की पुष्टि हुई है कि मनुष्य की सूचनाओं और अनुभव का दो– तिहाई से ज्यादा भाग दृष्टि द्वारा अर्जित होता है । अतः शिक्षक की यह स्वतः भूमिका है कि वह दृष्टिबाधित बालकों में अनुभवों के इस अन्तर को कम करने के लिए सभी बची हुई संवेदनाओं का महत्त्व एवं एकीकृत उपयोग हेतु बालकों को उत्प्रेरित तथा मार्गदर्शित करें।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं

(i) स्पर्शी क्षमता को अधिकाधिक विकसित करना।

(ii) किसी भी प्रकार की आवाज को स्पष्टता और तत्परता के साथ सुनने का प्रशिक्षण देना।

(iii) गंध एवं स्वाद के माध्यम से वस्तुओं के ज्ञान का प्रशिक्षण देना।

(iv) बची हुई दृष्टि के उपयोग का प्रशिक्षण देना।

(v) स्पर्श के माध्यम से छोटा– बड़ा, सख्त, मुलायम, ठंडा या गरम, लंबा– चौड़ा आदि की संकल्पना का निर्माण करना ।

(vi). पेड़– पौधों, फूल, पत्ते, घास, सब्जी, फल आदि में अन्तर करने और समझने का प्रशिक्षण देना।

अनुस्थिति और चलिष्णुता

अनुस्थिति ज्ञान और चलिष्णुता से तात्पर्य उस कौशल से है जिससे दृष्टिबाधित व्यक्ति को अपने वातावरण को पहचानते हुए, स्वतंत्र रूप से तथा स्वेच्छापूर्वक, एक स्थान से दूसरे इच्छित स्थान तक निर्बाध रूप से आने– जाने में सक्षम हो सके । दृष्टि के अभाव में गामकता की क्षतिपूर्ति के लिए दृष्टिबाधित बालकों को अनुस्थिति और चलिष्णुता कौशल का सुव्यवस्थित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। फलस्वरूप वे चलने फिरने में स्वतंत्रता का पर्याप्त अनुभव करते हुए निर्भयतापूर्वक एवं स्वयं को सुरक्षित रखते हुए इच्छित स्थान तक जा सकेंगे।

यदि उपयुक्त प्रशिक्षण प्राप्त हो जाए तो दृष्टबाधित बालक के उत्साह तथा आत्मविश्वास में भी अत्यन्त वृद्धि होती है इसलिए शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह दृष्टिबाधित बालकों हेतु उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था करे।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं।

(i) मानसिक मानचित्र के लिए दृष्टिबाधित बालकों को प्रोत्साहित करना।

(ii) पहचान चिन्ह एवं संकेत का उपयोग करते हुए चलिष्णुता को प्रभावी बनाना।

(iii) दृष्टिवान साथी की सहायता से चलने– फिरने का प्रशिक्षण।

(iv) अन्य बालकों को दृष्टिवान साथी की भूमिका के लिए जागरूक तथा प्रशिक्षित करना।

(v) छड़ी के प्रयोग से स्वतंत्रतापूर्वक चलने का प्रशिक्षण देना।

(vi) सुरक्षा सम्बन्धी कौशलों में निपुण बनाना।

(vii) वस्तुओं की खोज करने की विधि से अवगत कराना।

दैनिक क्रिया कौशल प्रशिक्षण

दैनिक क्रियाओं में दृष्टि की अहम भूमिका होती है । दैनिक क्रिया कौशल प्रशिक्षण से दृष्टिबाधित बालक दूसरों की सहायता के बिना या कम से सहायता के साथ दिन– प्रतिदिन की गतिविधियों को करने में सक्षम होते हैं । जैसे– स्नान, शौच, भोजन करने, बाजार से वस्तुओं को खरीदने तथा रखरखाव का प्रशिक्षण

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक अपेक्षित की भूमिकाएं

(i) दैनिक क्रिया प्रशिक्षण के क्षेत्र का निर्धारण करना।

(iiii) न्यूनतम बाहरी सहायता देते हुए और सुरक्षापूर्वक अपनी दैनिक गतिविधियों को निष्पादित करने योग्य बनाने का प्रशिक्षण देना।

मनोसामाजिक समायोजन

अपने आस– पास के समाज में अपने को पूर्णत: व्यवस्थित कर लेना ही समायोजन है। दष्टबाधित बालक को लगता है कि उसे अन्य लोगों से अलग समझा जाता है, क्योंकि वह सभी क्रियाओं में समान रूप से भाग नहीं ले पाता है। कई बार अपने आप को वह अधूरा समझता है। शिक्षक की स्पष्ट भूमिका है कि वह समाज माता– पिता बालकों एवं बच्चों के अन्दर एक सकारात्मक नजरिए का विकास करे ताकि एक पारस्परिक सहयोगी समाज का निर्माण हो सके।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं

(i) छात्रों एवं विद्यालय के कर्मचारियों में दृष्टिबाधा और अन्य विकलांगता के प्रति नकारात्मकता को कम करने पर बल देना।

(ii) आसपास के लोगों को दृष्टिबाधा एवं इनके अनुप्रयोगों से परिचित करना।

(iii) विद्यालय प्रबन्धन, छात्राभिभावक एवं अन्य छात्रों को दृष्टिबाधा एवं इसके प्रति जागरूक करना तथा सहयोगी भावना का विकास करना।

(iviv) दृष्टिबाधित बालकों तथा अभिभावकों में आसपास की क्रियाओं में भाग लेने की प्रवृत्ति का विकास करना।

(v) दृष्टिबाधित बालकों हेतु अनुकूलित खेलों से बालकों को अवगत कराना तथा उन्हें एक साथ समय बिताने के लिए प्रोत्साहित करना ।

बाधामुक्त वातावरण के निर्माण में सहायता

घर तथा विद्यालयी वातावरण का बाधामुक्त होना अत्यन्त आवश्यक है ताकि दृष्टिबाधित बालक आसपास के वातावरण का सुगमता से उपयोग कर सके । बाधामुक्त वातावरण द्वारा ही दृष्टिबाधित बालक कक्षा तथा अन्य सेवाओं तक अपनी पहुँच सुनिश्चित कर उनका उपयोग कर सकेंगे।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं

(i) कक्षा, कार्यालय, शौचालय तथा अन्य विद्यालयी संरचनाओं में बाधा की पहचान करना।

(ii) चिन्हित बाधाओं को दूर करने उपायों से विद्यालय प्रबंधन को अवगत कराना।

(iii) कक्षा वातावरण को दृष्टिबाधित एवं अन्य बालकों के अनुरूप तैयार करने का प्रयास करना।

संसाधन कक्ष प्रबन्धन

समावेशी शिक्षा में संसाधन कक्ष बहुत महत्त्वपूर्ण होता है । संसाधन कक्ष में शैक्षिक प्रशिक्षण के लिए उचित तथा आवश्यकता अनुसार शिक्षण– अधिगम सामग्री रखी होती है, जिसकी जिम्मेदारी विशेष शिक्षक पर ही होती है।

समावेशित परिवेश में विशेष शिक्षक की अपेक्षित भूमिकाएं

(i) शिक्षण– अधिगम सामग्री तथा उपकरणों का अभिलेख तैयार करना।

(ii) दृष्टिबाधित बालकों को संसाधन कक्ष में सुगमतापूर्वक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना।

(iii) उन्हें आवश्यकतानुसार उपकरणों का प्रशिक्षण देना।

(iv) अल्प दृष्टि बालकों के लिए भी उचित प्रकाशीय तथा अप्रकाशीय उपकरण की व्यवस्था एवं प्रशिक्षण प्रदान करना।

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