निम्नलिखित विशेष बालकों की कार्यात्मक सीमाएं बताते हुए मनो– सामाजिक तथा शैक्षणिक लक्षणों की व्याख्या कीजिए–

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(i) चलने– फिरने में असमर्थ बालक,

(ii) सुनने में असमर्थ बालक,

(iii) दृष्टि असमर्थ बालक।

प्रत्येक मानव में से पाँच कर्मेन्द्रियाँ होती हैं जो ज्ञान प्राप्ति में सहायक होती हैं– आंख, कान, नाक, मुँह तथा त्वचा। आंख से देखकर तथा त्वचा से स्पर्श कर मानव ज्ञान अर्जित कराता है। किसी भी कर्मेन्द्रिय का कार्य न करना बालक को ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ बना देता है। बधिर व्यक्ति जो सुनने में असमर्थ होता है वह रेडियो, टेलीविजन,व्याख्यान.शिक्षण और बातचीत में दी जा रही सूचनाओं और ज्ञान को स्वयं में समाहित करने में अक्षम रहता है। यदि वह कम स्न पाता है तो भी वह जो अंश नहीं सन पाता उन्हें समझ नहीं पाता। जो सनने में असमर्थ हैं वे प्राय: बोलने की समस्या से भी जूझते हैं। दृष्टिहीन बालकों में जो अंधे हैं वे दश्य संसार का सृष्टि का, प्रकृति का, संपर्क में आई वस्तुओं,मानवों आदि को न देख पाने के कारण उनका ज्ञान अर्जित नहीं कर पाता है । इसी प्रकार अपंग, चलने– फिरने उठने– बैठने में कठिनाई अनुभव करने वाला या पूर्णतः लंगड़ा बालक त्वचा के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने में असफल रहता है। वह यदि अपने हाथ पैर, माँसपेशियों व शरीर के जोड़ों को स्पर्श करने, क्रियाशील करने में असमर्थ है तो भी वह ज्ञान अर्जित करने में भी असमर्थ रहता है।

नीचे हम चलने– फिरने में असमर्थ, सुनने में असमर्थ तथा देखने में असमर्थ बालकों की कार्य करने संबंधी सीमाओं तथा उनके मनोवैज्ञानिक– सामाजिक व शैक्षणिक लक्षणों की व्याख्या करेंगे।

(1) चलने– फिरने में असमर्थ बालक चलने– फिरने में असमर्थ बालकों को अस्थिबाधित या अपंग बालक भी कहा जाता है। लूले लंगड़े, हथकटे, लकवाग्रस्त, पाँवफिरे, विकृत मेरूदंड, पक्षाघाती, विकृत नितम्ब,माँसपेशी बाधित आदि प्रकार के बालक इसके अंतर्गत आते हैं। ऐसे बालक जन्मजात, दुर्घटनावश या बीमारी के कारण चलने– फिरने उठने बैठने में बिना किसी व्यक्ति या उपकरण के सहारे के, अक्षम होते हैं।

भारत सरकार समाज कल्याण मंत्रालय के अनुसार, “अपंग बालकों को अस्थिबाधित बालक तब कहते हैं जब वे जन्म से, बीमारी, दुर्घटना से उनकी हड्डियों, माँसपेशियों तथा जोड़ों में दोष व वक्रता आ जाती है और सामान्य कार्य करने तथा चलने– फिरने में असमर्थ रहते हैं।”

निःशक्त व्यक्ति (समान अवसर,अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 के अनुसार, “चलन निःशक्तता से हड्डियों, जोड़ों या माँसपेशियों की ऐसी कोई निःशक्तता से अभिप्रेत है जिससे अंगों की गति में पर्याप्त निबंधन या किसी प्रकार का प्रमस्तिष्क घात हो।”

(अ) कार्यालय सीमाएं– अस्थि असमर्थ बालकों की कार्यात्मक सीमाएं ये हैं–

(i). चलने में बाधा– ये बालक झुककर या टेढ़ा– मेढ़ा चलते हैं या चलने में लड़खड़ाते हैं और कभी– कभी चलते– चलते गिर जाते हैं। इससे उनकी गतिशीलता पर कप्रभाव पड़ता है। वैशाखी की सहायता से,ट्रायसिकल से, तिपहिया स्कूटर से, व्हील चेयर से इनमें चलने फिरने में सहायता मिलती है।

(ii) वस्तु पकड़ने में बाधा– अस्थि बाधित बालकों में हाथ में विकृति होने के कारण ये किसी भी वस्तु को पकड़ने, पकड़कर उठाने में अक्षम होते हैं क्योंकि यदि हाथ में विकृति है तो हाथ, उंगलियाँ आदि सही प्रकार से मुड़ नहीं पाते।

(iii) लिखने में बाधा– अस्थि बाधित बालकों में अनेक प्रकार की विकृतियाँ हो सकती हैं जिसके कारण लिखते समय इनके हाथ काँपना, उंगलियों का ठीक प्रकार से काम न कर पाना, कलम (पेन) को ठीक से न पकड़ पाना आदि के कारणं या तो टेढ़े– मेढ़े अक्षर हो जाते हैं या उन्हें लिखने में कठिनाई का अनुभव होता है।

(iv) कार्यक्षमता में कमी– विकृत अंगों के कारण अस्थि विकलांग या तो कई काम करने में असमर्थ रहते हैं या उनकी कार्यक्षमता कम हो जाती है । खेलकूद में वे अपनी सभी प्रकार की गतिविधि अच्छे निष्पादन से नहीं कर पाते जैसे दौड़ने, गेंद या व्हालीबाल पकड़ने, फुटबाल से खेलने, कबड्डी खेलने, भाला फेंकने आदि के खेल।

(v) माँसपेशियों में सामंजस्य का अभाव– अस्थि बाधित बालकों की शारीरिक माँसपेशियों में सामंजस्य का अभाव होता है जिससे वे किसी भी भारी वस्तु को उठाने का शारीरिक कार्य करने में असमर्थ रहते हैं।

(vi) अन्य कार्यात्मक सीमाएं– कुछ अस्थिबाधित बालकों में गर्दन टेढ़ी होना,हाथ– पैर पतले होना, कुबड़ापन होना, पैर मुड़ा होना आदि कारणों से वे सीधे देख पाने, झुकने, हाथ पैर चलाने आदि कार्य करने से लाचार होते हैं।

(ब) मनोसामाजिक लक्षण– मनोसामाजिक समास मन तथा समाज इन दोनों का बोध कराता है। अस्थि विकलांग बालकों में कुछ मनोविकार आ जाते हैं जैसे आत्म विश्वास की कमी, कुंठा, हताशा, डिप्रेशन, चिड़चिड़ा स्वभाव, मानसिक थकान, हीन भावना, अकेलापन, असुरक्षा की मात्रा। इनमें से कुछ लक्षण किसी– किसी अस्थि बाधित बालक में मिलते हैं।

प्रायः समाज (परिवार तथा मोहल्ला व स्कूल में) अपंग बालकों की अवहेलना होने, उनकी चाल का मजाक उड़ाने, उनके दर्शन को अशुभ मानने, घर वालों के उन्हें निकम्मा नाकारा मानने मित्र कम होने आदि के कारण ऐसे बालकों का सामाजीकरण सही नहीं हो पाता है । वे स्वयं समाज में अपने को ‘मिसफिट’ पाते हैं।

अपंग या अस्थि विकलांग बालकों में ये सामाजिक लक्षण प्रायः प्राप्त होते हैं–

(1) मित्रों की कमी,

(2) सामाजिक मेलजोल का अभाव,

(3) सामाजिक गतिविधियों से दूरी,

(4) ऐसे बालकों के प्रति चिड़चिड़ापन तथा आक्रोश जो उन्हें दया का, हँसी मजाक का पात्र समझते हैं।

(5) सामाजिक समायोजन का अभाव,

(6) सामाजिक सहयोग अप्राप्त रहना,

(7) अन्य अपंग मित्रों से दोस्ती,

(8) खेलकूद मनोरंजन कार्यक्रमों, पाठ्य सहगामी क्रियाओं से दूरी बनाना।

(स) शैक्षणिक लक्षण–

(1) अन्य सामान्य बालकों के समान ही बुद्धि होना।

(2) प्रायः समान पाठ्यक्रम, समान शिक्षक, समान शिक्षण विधि ।

(3) अधिक परिश्रम करवाने में असमर्थता व शीघ्र थक जाने के कारण उनकी उपलब्धि निष्पत्ति कम होती है ।

(4) पढ़ने हेतु कक्षा में विशेष मेज कुर्सी आवश्यक होती है ताकि वे सुविधाजनक रूप से बैठ सकें।

(5) कक्षा से शाला से अधिक अनुपस्थित रहना।

(6) शाला में विशेष पोषक मध्याह्न भोजन की आवश्यकता।

(7) नेतृत्व क्षमता की कमी।

(8) सहयोग, मित्रता की आवश्यकता।

(9) मूल्यांकन आकलन में उत्तीर्ण होने के अंकों में शिथिलता की आवश्यकता।

(10) शरीर के अनुकूल व्यावसायिक शिक्षा की आवश्यकता।

(2) सुनने में असमर्थ या श्रवण बाधित बालक

निःशक्त व्यक्ति अधिनियम, 1995 में श्रवण शक्ति के हास से अभिप्रेत संवाद संबंधी रेंज की आवृत्ति में बेहतर कर्ण में साठ डेसीबल की अधिक हानि को बताया गया है। ध्वनि का परिसर 1 से 130 डेसिबल्स होता है । 30 डेसिबल्स से ऊपर की ध्वनि दर्द की संवेदना देती है। ध्वनि के परिसर के आधार पर श्रवण बाधिता के ये चार वर्ग हैं–

(1) किंचित श्रवण क्षति युक्त बालक– जो 54 डेसिबल्स तक की ध्वनि को नहीं सुन पाते । सामान्य स्तर पर बात की जाए तो ये बालक सुन सकते हैं किन्तु धीमे स्तर पर बोलने पर नहीं सुन पाते ।

(2) मंद श्रवण शक्ति युक्त बालक– ये बालक 65 डेसिबल्स स्तर पर बोलने पर उसे सुन नहीं पाते परन्तु थोड़ा ऊंचा बोलने पर सुन पाते हैं ।

(3) गंभीर रूप से श्रवण बाधित बालक– ये काफी ऊंचा बोलने पर जो सामान्यत: कठिन होता है ही सुन पाते हैं ।

(4) बधिर बालक– ये बालक कुछ भी नहीं सुन पाते।

(अ) कार्यात्मक सीमाएं

(1) ऐसे श्रवण दोष युक्त बालक बिना श्रवण यंत्रों के सुन नहीं पाते अत: समझ भी नहीं पाते ।

(2) ऐसे बालकों से बातचीत करने पर उनके हाव– भाव निश्चल होते हैं मुखाकृति से अंदाज लग जाता है कि उन्होंने सुना नहीं है ।

(3) अधिकतर बधिर बालक मूक (वाणि बाधित) भी होते हैं क्योंकि सुनने में असमर्थता के कारण वे संप्रेषण में भी असफल होते हैं।

(4) कछ बालक बहुत ऊंचा. बोलने पर ही कुछ– कुछ समझ पाते हैं ।

(5) संप्रेषण तकनीक– चिह्न भाषा ओष्ठ भाषा, संकेत भाषा में प्रशिक्षित हो जाने पर ये समझ जाते हैं ।

(6) फिल्म, वीडियो आदि देखकर ये समझने का प्रयास करते हैं।

(7) इनका भाषा ज्ञान नहीं होता।

(8) कम्प्यूटर पर ये देख– देख कर टाइप कर लेते हैं।

(9) इनकी कार्यक्षमता, बोधक्षमता, सक्रियता कम होती है।

(10) ऐसे काम जिनमें सुनने की आवश्यकता कम पड़ती है ये कर लेते हैं जैसे कपड़े धोना आना– जाना, फोटोग्राफी, सिलाई, बुनाई, कढ़ाई आदि।

(ब) मनोसामाजिक लक्षण

मनोवैज्ञानिक रूप से बधिर बालकों में एकांतप्रियता, अन्तर्मुखी स्वभाव, सोचते रहने की आदत, आत्महीनता कुंठा की भावना, आत्म विश्वास का अभाव, हताशा, भग्नाशां आदि के लक्षण मिलते हैं। सुनने– बोलने की अक्षमता के कारण ये मित्रवर्ग उन्हीं को बना पाते हैं जो उनकी संकेत भाषा समझते हैं। सामाजिक क्रिया कलापों में इनकी सहभागिता कम रहती है। इनका सामाजीकरण सीमित होता है।

(स) शैक्षणिक लक्षण

(1) इनकी बोलने तथा पढ्ने की शक्ति का विकास नहीं होता अतः भाषा का विकास भी नहीं होता। जो ऊंचा सुनते हैं उनके साथ कक्षा अन्तक्रिया संभव नहीं हो पाती।

(2) बधिर छात्रों के साथ समावेशी विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ अध्ययन संभव नहीं हो पाता अतः उन्हें बधिर विद्यालयों में भर्ती करना लाभप्रद होता है।

(3) कम सुनने वाले छात्रों की शैक्षणिक निष्पत्ति कम होती है ।

(4) श्रवण बाधित कम सुनने वाले लोगों को शिक्षक द्वारा बताई गई अनेक बातें सुनाई न देने के कारण समझ में नहीं आतीं अतः उनके लिए चिकित्सकीय परामर्श के उपरांत श्रवण यंत्र लगवाना तथा सामने वाली सीटों पर बैठाना ऐसे बालकों के लिए अधिक उपयोगी होता है ।

(5) श्रवण बाधित बालकों पर विभिन्न बुद्धि परीक्षण,व्यक्तित्व परीक्षण, रुचि परीक्षण, अभिवृत्ति परीक्षण, उपलब्धि परीक्षण आदि का प्रशासन प्रयोग सशक्त ढंग से नहीं हो पाता।

(6) श्रवण बाधित बालकों के लिए चिन्ह भाषा, ओष्ठ पठन, संकेत भाषा, स्पर्श विधि, गतिविधि उपयोगी होती है ।

(7) त्रिआयामी सहायक शिक्षण सामग्री, दृश्य साधन, चित्र आर्ट, मानचित्र से पढ़ाने पर ऐसे बालक बोध ग्रहण करने में सफल होते हैं।

(8) कम्प्यटर का उपयोग टेबलेट का उपयोग भी ऐसे बालकों के लिए शैक्षणिक महत्त्व रखता है ।

(9) शैक्षणिक यात्राएं, पर्यटन, खेलकूद का भी ऐसे छात्रों के लिए उपयोग लाभप्रद है ।

(10) व्यावसायिक शिक्षा के अंतर्गत ऐसे व्यवसाय जिनमें शाब्दिक संप्रेषण कम हो इन श्रवण बाधित छात्रों के लिए उपयोगी होते हैं। प्रिंटिंग, कम्प्यूटर प्रिंटिंग, बिजली से संबंधित कार्य, लकड़ी का कौशलमुक्त कलात्मक कार्य, मूर्ति निर्माण आदि की व्यावसायिक शिक्षा इन छात्रों को दी जा सकती है।

(3) दृष्टि बाधित बालक

दृष्टि बाधित अपंगता से आशय अंधापन अथवा निर्धारित मानक से कम देख पाना है । दृष्टिबाधित व्यक्ति यदि वह पूर्णतः अंध है तो उसके लिए सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्राप्त करना संभव नहीं हो पाता। ऐसे बालकों की शिक्षा अंध विद्यालयों में होती है जहाँ ब्रेल लिपि से पढ़ने आदि की व्यवस्था होती है। कम नजर वाले व्यक्ति सामान्य बालकों के साथ पढ़ सकते हैं यदि उन्हें चश्मा, आंख का ऑपरेशन, बड़े अक्षरों में लिखी पुस्तकें आदि प्रदान की जाएं। कम दृष्टि वाले बालक भी दूर की कमजोर नजर तथा पास की कमजोर नजर दो प्रकार की दृष्टिहीनता के शिकार होते हैं । दोनों का उपचार संभव है । दृष्टिबाधित बालकों को इन वर्गों में बाँटा जा सकता है–

वर्गस्तरउत्तम आँखेंक्षतिपूर्ण आँखेंबाधिता का प्रतिशत
वर्ग-I6/9 से 6/86/24 से 6/3620%
वर्ग-II6/18 से 6/366/60 से 3/60 से शून्य40%
वर्ग-III6/36 से 6/603/60 से शून्य75%
वर्ग-IV1 से शून्यदृष्टि क्षेत्र 100100%

वर्ग चार के या अंध बालकों की शिक्षा ब्रेल लिपि से संभव है। ब्रेल विधि में मोटे कागज पर उभरे हुए बिन्दु होते हैं जिन्हें स्पर्श कर प्रशिक्षित बालक पढ़ व समझ सकता है। ब्रेल पुस्तकें कक्षा के स्तर व विषय के अनुसार तैयार होती है। आजकलं बोलने वाली पुस्तकें जो वास्तव में ‘लोंग प्लेइंग ग्रामोफोन रिकॉर्डस’ हैं को सुनकर भी अंधा बालक समझ सकता है। बोलने वाले उपकरण रेडियो, टेपरिकॉर्डर, टी.वी., चलचित्र, वीडियो आदि द्वारा भी अंध बालकों को शिक्षित किया जा सकता है। ब्रेल मशीन से लिखना भी अंध बालक सीखते हैं।

(अ) कार्यात्मक सीमाएं– अंधे बतक देख नहीं सकते किन्तु कमजोर दृष्टि वाले बालक चश्मे आदि का प्रयोग कर सामान्य बालकों के समान कार्य कर सकने में लिखने पढ़ने क्रियात्मक

गतिविधि में भाग ले सकने में सफल हो सकते हैं । दृष्टिबाधित बालक पुस्तक पढ़ते समय आंखों के काफी नजदीक पुस्तक लाकर पढ़ते या वाचन करते देखे गए हैं । वाचन के समय में बीच– बीच में कुछ शब्द या पंक्ति को छोड़ते हुए पठन करते पाए जाते हैं । कुछ बालकों को ब्लेकबोर्ड पर लिखी बातें नहीं दिखाई देतीं या कम दिखाई देती हैं । क्रियात्मक गतिविधि, खेलकूद आदि में इनका निष्पादन कम पाया जाता है। कम प्रकाश में ये बालक कार्य कर सकने में सक्षम नहीं होते । ऐसे बालकों की गतिशीलता कम होती है। कम दृष्टि वाले बालक पुस्तक को विशेष प्रकार से पकड़ते हैं । पढ़ते समय वे अपनी आंखों को बार– बार मिलते हैं । या पढ़ते समय ज्यादा झुकते हैं।

हस्तशिल्प तथा क्रियात्मक व्यावसायिक कार्यों में अंधे व्यक्ति भी अभ्यास से कुशलता प्राप्त कर लेते हैं। कहा जाता है कि इनकी नेत्र इंद्रिय काम नहीं करती परन्तु अन्य इंद्रियाँ अधिक संवेदनशील होती हैं तथा कला संगीत, गायन, वादन में वे अधिक कार्यक्षमता प्रदर्शित करते हैं।

(ब) मनोसामाजिक लक्षण– अंधे बालक दिन में भी सपने देखने वाले, सुस्त, उदास, दु:खी पाए जाते हैं। अपने वर्तमान व भविष्य को लेकर वे चिंतित रहते हैं। इनमें कुंठन, भग्नाशा, हताशा आदि मनोविकार पाए जाते हैं। इनमें आत्मविश्वास का अभाव होता है। इनकी स्मरणशक्ति तीव्र होती है। परिवार की उपेक्षा, तानाकशी, समाज के असहयोग से उनमें हताशा उत्पन्न होती है । लोगों की दया, करुणा, सहानुभूति को स्वीकार करना उनकी विवशता है । कम नजर वाले व्यक्ति आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करते हैं उनमें थोड़ा– थोड़ा आत्मविश्वास होता है ।

सामाजिक दृष्टि से अंधे बालक कम सफल कहे जा सकते हैं । यह असफलता उनकी लाचारी है। उनकी मित्र मंडली सीमित होती है। पारिवारिक दृष्टि से वे परिवार यदि उनके अनुकूल हुआ तो समायोजित हो जाते हैं । सामाजिक गतिविधियों, खेल कूद तथा पाठ्यसहगामी क्रियाओं में दृष्टिबाधित बालकों की सहभागिता कम होती है। समुदाय से विलगता उनमें अकेलेपन की भावना भर देती है। वे कल्पनाशील तथा वास्तविकता से दूर के सपने देखते हैं।

(स) शैक्षणिक लक्षण– कहा जाता है कि “जब ईश्वर एक दरवाजा बंद करता है तो दूसरा खोल देता है ।” तथा “अंधे बालक अक्षम नहीं होते वे वास्तव में भिन्न प्रकार से सक्षम होते हैं ।” सूरदास जैसे कवि का उदाहरण दिया जा सकता है । कला, संगीत, गायन, काव्यरचना, वादन आदि में अंधे बालक उच्च निष्पादन क्षमता प्रस्तुत कर चुके हैं। अत: अंधे बालकों की शिक्षा व व्यावसायिक शिक्षा में इस लक्षण का ध्यान रखना आवश्यक है। ब्रेल लिपि श्रवण यंत्र आदि द्वारा अंधे बालक शिक्षित हो सकते हैं।

कम देखने वाले बालक ब्लेकबोर्ड अच्छे से पढ़ने में असमर्थ रहते हैं अतः शिक्षण के समय उन्हें ब्लेकबोर्ड के नजदीक बैठाया जाना चाहिए। शिक्षण में त्रिआयामी मॉडल वस्तएं अल्प दृष्टि वाले बालक को समझने में सहायक होती है । संगी– साथी को ऐसे बालकों के निकट सहायता हेतु बैठाने से वे जो बातें संकोचवश कर बार शिक्षक से नहीं पूछ सकते वह अपने मित्र से बात कर सीख लेते हैं। 10– 12 पाइंट में छपी सामान्य बालकों के लिए उपयुक्त पुस्तकों से दृष्टि बाधित बालक नहीं पढ़ पाते अतः उनके लिए 18 या 24 पाइंट टाइप में लिखी पुस्तकें उपयुक्त होती हैं। अल्प दृष्टि बालक रोशनी के प्रति संवेदनशील होते हैं तथा कम रोशनी में पढ़ पाने में असमर्थ रहते हैं। उनके लिए कक्षा में खिड़की के पास वाली सीट या कक्षा में समुचित प्रकाश की व्यवस्था होनी चाहिए।

व्यावसायिक शिक्षा तथा प्रशिक्षण में ऐसे बालकों हेतु अध्यापक का कार्य,गाने बजाने का कार्य, कार्यालय का कार्य, लिफाफे बनाने, रस्सी बुनने, कुर्सी बुनने, कागज के डिब्बे बनाने कम्प्यूटर टाइपिंग आदि के कार्य अधिक उपयुक्त होते हैं ।

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