निम्नलिखित विशेष बालकों की कार्यात्मक सीमाएं क्या हैं? इनके मनोसामाजिक तथा शैक्षिक लक्षण भी बताइए–

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(i) प्रतिभाशाली बालक

(ii) मानसिक शिथिलता तथा धीमी गति से सीखने वाले बालक

(iii) अलाभप्रद या वंचित बालक

(iv) अधिगम बाधित बालक

शिक्षा मनोविज्ञान यह मानता है कि प्रत्येक बालक दूसरे बालक से अपने गुणों,प्रवृत्तियों तथा शारीरिक मानसिक क्षमताओं में पृथक होता है। इसे मनोविज्ञान में वैयक्तिक विभिन्नता कहा जाता है । इन वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रभावी कारकों में बालक के जीवन, बालक की पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रजातीय अंतर, बौद्धिक अंतर, आर्थिक अंतर, व्यक्तित्व में भिन्नता, सीखने में भिन्नता, संवेगात्मक भिन्नता आदि आते हैं । वैयक्तिक भिन्नताओं के साथ सीखने, शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों की भिन्नता भी बालकों की अलग श्रेणी बना देती है। यहाँ हम प्रतिभाशाली बालक, धीमी गति से सीखने वाले बालक तथा लाभहीन– वंचित बालकों की श्रेणी का एवं उनकी कार्यात्मक सीमा, मनोसामाजिक लक्षण तथा शैक्षिक लक्षणों का विवेचन करेंगे।

(1) प्रतिभाशाली बालक

प्रतिभाशाली बालकों को अंग्रेजी में गिफ्टेड चाइल्ड कहा जाता है अर्थात् इन्हें ईश्वर की ओर से प्रखर बुद्धि का वरदान प्राप्त है ऐसी मान्यता है । इन विशिष्ट बालकों की विभिन्न क्षेत्रों में औसत बालक से अधिक तीव्र बुद्धि पाई जाती है। ऐसे बालक 120– 140 से अधिक बुद्धिलब्धि (I.Q.) होती है। ऐसे बालक सैकड़ों में 1 या 2 ही होते हैं। टरमैन तथा ओडन ने प्रतिभाशाली बालकों की परिभाषा इन शब्दों में दी है, “प्रतिभाशाली बालक शारीरिक गठन, सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व के गुणों, विद्यालय की उपलब्धि,खेल की सूचनाओं और रुचियों की विविधता में औसत बालकों से श्रेष्ठ होते हैं ।” गिलफोर्ड ने 120 विभिन्न बौद्धिक योग्यताओं की पहचान की है जिसके अनुसार एक प्रतिभाशाली बालक में कोई भी निम्नलिखित गुणवत्ताएं हो सकती हैं–

(अ) सामाजिक,

(ब) यांत्रिक,

(स) कलात्मक,

(द) संगीत संबंधी,

(ई) भाषा संबंधी,

(फ) शारीरिक,

(ग) शैक्षिक ।

एक योग्य या प्रतिभाशाली बालक लगातार उच्च स्तर का कार्य निष्पादित कर किसी भी सामान्य क्षेत्र में योग्यता प्रदर्शित करता है।

(अ) कार्यात्मक सीमाएं– उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रतिभाशाली बालक की कार्यात्मक सीमाएं उच्च स्तर की होती हैं। अतः जो भी कार्य उन्हें शाला में दिया जाता है वह शीघ्रता से उसे पूरा कर लेते हैं। परन्तु जब उन्हें औसत या औसत से नीचे के बालकों के साथ बैठा दिया जाता है तो वह कक्षा शिक्षण को अरोचक व प्रेरणारहित पाते हैं। वह कक्षा अध्ययन से उदासीन हो जाते हैं और सुस्ती,बेचैनी तथा शरारतपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करते हैं । प्रतिभाशाली बालक कार्य को तीव्रता या द्रुत गति से पूर्ण करते हैं । कक्षा में दोहराए जाने वाले अभ्यासों में उनकी रुचि कम हो जाती है। अतः कक्षा में शिक्षक को इन्हें अधिक मात्रा में प्रश्न, गृह कार्य, शाला कार्य देने चाहिए। इनकी कार्यात्मक योग्यता का उपयोग कमजोर बालकों को मार्गदर्शन देने में भी किया जा सकता है। प्रतिभाशाली बालकों के विशेष अध्ययन की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। प्री प्रायमरी व प्रायमरी कक्षाओं में कक्षोन्नति देने के नियम भी बनाए जाने चाहिए।

(ब) मनोसामाजिक शिक्षण– प्रतिभाशाली बालक मनोविकारों से रहित पाए जाते हैं। मनोवैज्ञानिक विटी के अनुसार इनमें से मनोसामाजिक लक्षण पाए जाते हैं–

(1) ये खेलना अधिक पसंद करते हैं।

(2) ये 58 प्रतिशत मित्र बनाने की इच्छा रखते हैं जबकि 25 प्रतिशत न मित्र खोजते हैं न टालते हैं।

(3) वे 80 प्रतिशत कभी भी धैर्य न खोने वाले होते हैं।

(4) ये सदैव दूसरों को सम्मान देने वाले होते हैं, किसी को चिढ़ाते नहीं।

(5) ऐसे 96 प्रतिशत बालक अनुशासन मानते हैं।

स्किनर एवं हैरीमैन का मानना है कि प्रतिभाशाली बालकों में नेतृत्व के गुण,मानसिक प्रक्रिया में तीव्रता, अमूर्त चिंतन में रुचि पाई जाती है।

प्रतिभाशाली बालक तर्कप्रधान होते हैं अतः समाज की कुप्रथाओं, अंधविश्वासों का विरोध करते हैं। इस पर बहस करना उन्हें अच्छा लगता है। उनमें उत्तम नागरिक गुण, उत्तम सामाजिकता तथा नेतृत्व करने की शक्ति होती है।

मनोसामाजिक रूप में ये बालक समायोजन, ईमानदारी, सच्चाई,प्रेम, सहिष्णुता, समय की पाबंदी, स्पष्टवादिता और सामाजिक व्यवहार में विनम्र शांतिप्रिय, व्यवहार कुशल, तार्किक होते हैं।

(स) शैक्षणिक लक्षण– स्किनर व हैरीमैन ने प्रतिभाशाली बालकों के शैक्षणिक गुणों में सामान्य ज्ञान की श्रेष्ठता, गहन शब्द भंडार, मानसिक प्रक्रिया में तीव्रता, कार्यों में अद्वितीय सफलता, अमूर्त विषयों में रुचि, अन्तदृष्टि का विशेष प्रभाव, पाठ्य विषय में रुचि आदि गुणों का उल्लेख किया है।

प्रतिभाशाली बालक ने नेतृत्वक्षमता, उच्च बौद्धिक योग्यता, द्रुत गति से सीखना, तीव्र स्मरण शक्ति, तत्काल उत्तर देने की क्षमता, भाषागत कौशल आदि शैक्षिक गुणों का उपयोग शिक्षा के प्रयोजन से किया जाना चाहिए।

(2) मानसिक शिथिलता एवं धीमी गति से सीखने वाले बालक :

मंदबुद्धि बालकों की सोचने, समझने और विचार करने की शक्ति कम होती है । क्रो एवं क्रो के अनुसार जिन बालकों की बुद्धिलब्धि (I.Q.) 70 से कम होती है, उन्हें मानसिक रूप से शिथिल माना गया है। निःशक्ति व्यक्ति अधिनियम 1995 में मानसिक मंदता से अभिप्राय ऐसे व्यक्ति से है जो चित्त की अवरुद्ध या अपूर्ण विकास की अवस्था जो विशेष रूप से वृद्धि की अवसामान्यता द्वारा परिलक्षित हो को मानसिक मंदता कहा गया है। मानसिक मंदता औसत से निम्न मानसिक कार्यक्षमता का उल्लेख करती है जिसका आरंभ बालक के विकास की अवधि में होता है और यह अग्रलिखित में से किसी एक या अधिक से अनुकूल व्यवहार की कमी द्वारा संबंधित होती है–

(1) परिपन्नता

(2) अधिगम (सीखना)

(3) सामाजिक समायोजन ।

मंदबुद्धि बालक दो प्रकार के होते हैं– (क) मानसिक शिथिलता से युक्त तथा (ख) धीमी गति से सीखने वाले।

(क) मानसिक शिथिलता युक्त बालक– साधारणत: जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 60 से कम होती है उन्हें मानसिक शिथिल बालक की श्रेणी में रखते हैं । मानसिक शिथिलता वाले बालकों का समायोजन प्रतिभाशाली तथा सामान्य बालकों की अपेक्षा कठिन व भिन्न होता है। इनकी शैक्षिक विषयों की उपलब्धि निम्न श्रेणी की होती है।

कार्यात्मक सीमाएं– ये अपनी आयु और सामान्य स्तर से निम्न कार्यक्षमता रखते हैं। या तो कक्षा के प्रत्येक विषय में इनकी उपलब्धि कम होती है अथवा किसी विशेष विषय में ये निम्न निष्पादन का परिचय देते हैं। इनकी बुद्धि कमजोर होने से ये कार्यात्मक सीमाओं के अंदर ही उपलब्धि ला पाते हैं। इनका तर्क, चिंतन, मनन, स्मरण, टास्क आदि मानसिक शक्तियाँ मंद होने से इनका निष्पादन निम्न श्रेणी का होता है। ये निरंतर अस्वच्छ भी रहते हैं। सूक्ष्म चिंतन नहीं कर पाते अत: गणित, व्याकरण, विज्ञान में रुचि नहीं लेते। ये परीक्षा में बार– बार अनुत्तीर्ण होते हैं । बौद्धिक कार्यों की अपेक्षा शारीरिक कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं । इनमें मौलिकता का अभाव होता है और सामान्यीकरण में ये अयोग्य रहते हैं। कुछ बालकों बायें हाथ का प्रयोग करते हैं।

मनोसामाजिक लक्षण– मनोवैज्ञानिक रूप से ये भावना ग्रंथि के शिकार होते हैं। संवेगों पर नियंत्रण नहीं रख पाते । सामाजिक दृष्टि से इनकी प्रवृत्ति असामाजिक होती है तथा ये संगी साथियों से अलगाव रखते हैं। घर– परिवार में भी इनका व्यवहार संतुलित नहीं होता।

शैक्षणिक लक्षण– कम बुद्धिलब्धि, कम उपलब्धि, सीखने में अरुचि, आत्म विश्वास का अभाव,संकल्प शक्ति की कमी, बौद्धिक कार्यों में अरुचि परन्तु शारीरिक कार्यों में रुचि, परीक्षा में अनुत्तीर्ण होना या कम अंक प्राप्त करना, ध्यान केन्द्रीकरण की कमी, सामान्यीकरण में कमी इनके शैक्षिक लक्षण हैं।

(ख) धीमी गति से सीखने वाले बालक– धीमी गति से सीखने वाले बालकों को परिभाषाबद्ध करते हुए लेखक श्रीकृष्ण दुबे ने कहा है, “एक कक्षा के बालकों को समान रूप से शिक्षण प्रदान करने पर बालकों के अधिगम स्तर पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। इनमें से जो बालक सामान्य से कम स्तर पर अधिगम करते हैं उनको धीमी गति से सीखने वाले बालक (स्लो लर्नर) कहा जाता है।” ऐसे बालकों की बुद्धिलब्धि भी सामान्य बालकों से कम होती है।

कार्यात्मक सीमाएं– इनमें आत्मविश्वास की कमी होती है। इन्हें असफलता का भय सताता है जिससे इनकी कार्यात्मक क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। एक बार में शिक्षक के पढ़ाए अंश को सुनकर ये नहीं समझ पाते हैं इन्हें बार– बार दोहराकर ही सिखाया जा सकता है । ये देर से दिये गए प्रश्न को हल करते हैं। इनमें अवधान केन्द्रीकरण की समस्या होती है। ऐसे बालक विचारों की अभिव्यक्ति में भाषागत कठिनाई का अनुभव करते हैं। ये बालक पढ़ने व समझने के स्थान पर रटने पर बल देते हैं। शाला से अनुपस्थिति भी इनका लक्षण हैं। इनमें कल्पना शक्ति व दूरदर्शिता का अभाव होता है। ये उन्हीं तथ्यों को समझ सकते हैं जो सरल व स्पष्ट हों। अमूर्त चिंतन में ये असफल रहते हैं। सीखी हुई बातों को भी भूल जाते हैं।

मनोसामाजिक लक्षण– अध्ययन में अरुचि से ये कई बार शाला पढ़ना छोड़कर असामाजिकता का रास्ता अपना लेते हैं। इनमें आयु के अनुसार परिपक्वता नहीं आती । इनके सामाजिक गुणों का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाता। इनमें समायोजन की कमी होती है। इनमें हीनता की भावना पाई जाती है । संकोची स्वभाव के होते हैं । कक्षा में कुसमायोजित रहते है |

शैक्षणिक लक्षण– स्मरण शक्ति कमजोर होती है। ज्ञानात्मक क्षमता सीमित होती है। सूझ व चिंतन की कमी होती है। समझने की अपेक्षा रटकर परीक्षा पास करने में विश्वास रखते हैं। एकाग्रता की इनमें कमी होती है। इनकी भाषागत समस्या भी रहती है। ऐसे बालकों में कल्पना शक्ति व दूरदर्शिता का अभाव होता है। इनकी शैक्षिक उपलब्धि निम्न होती है। ऐसे बालक पढ़ने– लिखने से बचने का प्रयास करते हैं तथा पढ़ाई– लिखाई की बात करने वाले बालकों से कटने का प्रयास करते हैं। खेलों में इनकी रुचि रहती है। ऐसे छात्र शाला से गोल मारने तथा आवारागर्दी करते भी पाए जाते हैं। ये सीखी हुई बातें भी शीघ्र भूल जाते हैं। ऐसे छात्रों को व्यावसायिक शिक्षा दी जाए तो ये अच्छे व्यावसायिक बन सकते हैं।

(3) अलाभप्रद या वंचित बालक :

निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम की अनुसार धारा 2(घ) के अनुसार अलाभप्रद या असुविधाग्रस्त (डिसएडवांटेज्ड) समूह से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, सामाजिक रूप से और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग या सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, भाषायी, लिंग या ऐसी अन्य बात के कारण, जो समुचित सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट की जाए, असुविधाग्रस्त ऐसे अन्य समूह का कोई बालक अभिप्रेत है।”

असुविधाग्रस्त बालक शिक्षा की दृष्टि से वंचित बालक रहे हैं तथा इनमें शिक्षा व साक्षरता का प्रतिशत औसत दर से निम्न का रहा है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने वंचित बालकों को परिभाषित किया है। गार्डन के अनुसार, “वंचित होना बाल्य जीवन की उद्दीपन दशाओं की न्यूनता है ।” वालमैन के अनुसार, “वंचन निम्नस्तरीय जीवन दशा या अलगाव को घोषित करता है जो कि कुछ व्यक्तियों को उनके समाज की सांस्कृतिक उपलब्धियों में भाग लेने से रोकता है।” इन अपवंचित व अलाभप्रद असुविधाग्रस्त बालकों के वर्ग में सम्मिलित हैं–

(1) निरक्षर माता– पिता के प्रथम पीढ़ी के सीखने वाले बालक,

(2) अनुसूचित जाति तथा जनजाति के बालक,

(3) सामाजिक आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग के बालक,

(4) बालिकाएं,

(5) घुमंतु परिवार (खानाबदोश परिवार) के बालक आदि।

(अ) कार्यात्मक सीमाएं– अलाभप्रद, असुविधाग्रस्त या वंचित बालकों में ऐसे परिवारों से आने वाले बालक हैं जो शताब्दियों से शिक्षा के वरदान से वंचित रहने के कारण तथा अपढ़ निरक्षर माता– पिता की संतान होने के कारण घरेलू वातावरण में अध्ययन, मार्गदर्शन आदि की किसी सुविधा से विहीन होते हैं अतः इनका बौद्धिक मानसिक व ज्ञानात्मक स्तर निम्न होता है । सांस्कृतिक दृष्टि से भी ये निम्न श्रेणी में आते हैं। इन बालकों का भाषायी विकास कम होता है। इनकी वाचिक योग्यता भी कम होती है। अधिकतर बालक रूढ़िवादी, परम्परावादी, निराश व अवसादग्रस्त रहते हैं। कुछ बालक तम्बाकू सेवन आदि बुरी आदतों के शिकार भी होते हैं । इनमें युयुत्सा (लड़ाई झगड़े की भावना) पाई जाती है। ये असुविधाग्रस्त होते हैं। इन सब कारणों से ऐसे बालकों की निष्पादन क्षमता कम होती है । शैक्षिक निष्पादन व निष्पत्ति कम होने से ये कक्षा की परीक्षा में अनुत्तीर्ण भी होते हैं। इनकी कार्यात्मक सीमाएं सीमित दायरे की होती हैं । ये अविकसित घरेलू जातीय भाषा बोलते देखे गए हैं। शाला में दिये गए कार्यों (टास्क) व परियोजनाओं (प्रोजेक्ट) को या प्रायः दूसरों की नकल कर तैयार करते हैं। निर्धनता व साधनविहीनता इनकी कार्यात्मक क्षमताओं को सीमित कर देती है।

(ब) मनोसामाजिक लक्षण– ऐसे बालकों में चिंता और भय की मात्रा अधिक रहती है। ये नकारात्मक अवबोध से पीड़ित रहते हैं। ये असुरक्षा की भावना से ग्रसित होते हैं। ये पूर्वाग्रह ग्रसित, रूढ़िवादी, परम्परावादी तथा संवेगात्मक दृष्टि से अस्थिर स्वभाव के पाए जाते हैं। इनका आकांक्षा स्तर निम्न होता है। इनकी रुचियों का क्षेत्र सीमित रहता है। इनमें समस्या समाधान की योग्यता कम रहती है ।

सामाजिक दृष्टि से ये निम्न स्तर के परिवारों तथा मलिन बस्तियों में निवास करने के कारण कुछ बुरी आदतों– लड़ना, झगड़ना, अपशब्द कहना,बीड़ी पीना, तंबाकू सेवन से ग्रसित होते हैं । कुछ बालकों में शाला से भागने तथा आवारागर्दी करने की आदत भी पाई जाती है। शिक्षित व सभ्य समाज में कम संपर्क के कारण इनमें उत्तम नागरिक गुणों का विकास कम होता है। प्रायः इनके घर का वातावरण भी अभावग्रस्त तथा घरेलू हिंसा कलह से ग्रस्त होने का प्रभाव इनके समाजीकरण पर पड़ता है।

(स) शैक्षणिक लक्षण– ये शिक्षा के महत्त्व से प्रायः अनभिज्ञ रहते हैं। इनका भाषायी विकास तथा वाचिक योग्यता का पर्याप्त विकास नहीं होता। सामान्य ज्ञान की इनमें कमी रहती है । प्रायः अपने चारों ओर प्रदेश नगर, देश में घटित घटनाओं की इनकी जानकारी अपर्याप्त रहती है। सक्ष्म चिंतन में ये प्रायः असफल रहते हैं। इनकी शैक्षिक उपलब्धि प्रायः निम्न स्तर की होती है। यदि इस वर्ग के बालकों को छात्रवृत्ति, पुस्तकें, गणवेश, भोजन आदि निःशुल्क प्रदाय न हों तो अधिकांश बालक शाला त्याग देते हैं। पढ़ने– लिखने में इनकी तथा इनके अभिभावकों की रुचि कम होती है। बालिकाएं प्राय: कुछ कक्षा पढ़कर पढ़ना छोड़ देती हैं। सामान्य शिक्षा के स्थान पर प्रायः बालक व्यावसायिक शिक्षा, औद्योगिक शिक्षा को रोजगार की संभावनाओं के कारण अधिक पसंद करते हैं। इनकी स्मरण शक्ति कमजोर होती है। अपनी बोली में बात करते रहने के कारण ये प्रांतीय भाषा, अंग्रेजी आदि में कमजोर होते हैं। खेलकद तथा पाठ्यसहगामी क्रियाओं में ये कक्षा शिक्षण से अधिक रुचि लेते पाए गए हैं।

अनुशासनहीनता, शाला से भागने की प्रवृत्ति, देर से शाला में उपस्थिति, बिना यूनीफॉर्म के शाला में प्रवेश, अपशब्द बोलना, झगड़ा करना आदि प्रवृत्तियाँ इन बालकों में प्रायः दृष्टिगोचर होती हैं । गृह कार्य न करके लाना,झूठ बोलना, विषयों की कॉपियाँ न बनाना, असाइन्मेंट पूरा न करना, परीक्षा में नकल करना, अपना ग्रुप बनाना आदि समस्याएं भी इन बालकों में प्रायः पाई जाती हैं । वंचित अलाभप्रद वर्ग के कुछ ही बालक पढ़ने में होशियार होते हैं।

(4) अधिगम बाधित बालक (चिल्ड्रन विधि लर्निंग डिसएबिलिटी)

अधिगम (सीखने) में असमर्थता रखने वाले बालक, पढ़ने, लिखने, स्पेलिंग करने तथा गणित आदि में सीमित क्षमता ही (सामान्य बालकों की अपेक्षा कम) रखते हैं। उदाहरणार्थ वे 19 लिखते हैं जबकि उन्हें 91 लिखने के लिए कहा गया। वे x तथा + चिन्ह में अंतर नहीं कर पाते । अर्थात् वे मतिभ्रमता के शिकार होते हैं। यह विसंगति मनोवैज्ञानिक कारणों से भी संभव है। कुछ ऐसे बालकों की व्यवहारगत समस्याएं भी देखी गई हैं। ऐसे बालकों की बुद्धि औसत होती है । हैमिल तथा लेघ के अनुसार, “अधिगम अक्षमता एक ऐसा मूल शब्द है जो बालकों के ऐसे समूह की ओर संकेत करता है जो कि सामान्य रूप से श्रवण, वाचन, अध्ययन,

वं गणितीय आदि योग्यताओं में सार्थक रूप से कठिनाई का अनभव करता है।” क्लीमेंट ने अधिगम अक्षमता से संबंधित 99 अक्षमताओं की सूची बनाई है जिनमें से ये 9 निर्योग्यताएं निश्चित रूपेण पाई जाती हैं–

(1) अतिक्रियाशीलता (जैसे छात्र का बैठे– बैठे पैर हिलाना,शरारत करना, कक्षा में बात करना),

(2) अत्यधिक गतिक न्यूनता (धीमी गति से सीखना),

(3) सांवेगिक अस्थिरता,

(4) सामान्य समन्वय का अभाव,

(5) अवधान समस्या,

(6) प्रोत्साहनीय,

(7) स्मृति व चितन व्यवधान,

(8) विशेष शैक्षिक समस्याएं,

(9) तंत्रिकीय तरंगों में असमरूपता।

(अ) कार्यात्मक सीमाएं– ऐसे बालक स्कूल के सामान्य कार्य को करने में दिक्कत महसूस करते हैं। इनकी शैक्षिक उपलब्धि न्यून रहती है। वे पढ़ाई में पीछे रहने के कारण अनुत्तीर्ण होते हैं। ऐसे बालक अच्छे से वाचन नहीं कर पाते हालांकि उनके मौखिक उत्तर अच्छे होते हैं । शब्दों की स्पेलिंग, अंक लिखने, कक्षा का टाइमटेबल स्मरण करते समय पर गृह कार्य या प्रोजेक्ट जमा करने, दिये गये कार्य को समय पर पूर्ण करने आदि में ऐसे बालक अक्षम होते हैं। जवाब देने में सुस्त व धीमे रहते हैं। पहाड़े याद रखने, वार महीना बताने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। थोड़े से व्यवधान से इनका ध्यान भंग हो जाता है । दायें और बायें का भेद कई ऐसे बालक नहीं कर पाते । शब्द रचना वाक्य रचना में कठिनाई का अनुभव करते हैं। उच्चारण करने पर सही शब्द नहीं लिख पाते । कक्षा में शिक्षक द्वारा कहे गए तथ्यों को दोहराने में ऐसे बालक सक्षम नहीं होते।

(ब) मनोसामाजिक लक्षण– अधिगम बाधित बालक अपने बारे में हीन भावना रखते हैं । ये ध्यान केन्द्रीकरण में अधिक सफल नहीं होते जैसे शिक्षक यदि हॉकी खेल के बारे में पढ़ा रहा है तो यह क्रिकेट के बारे में ध्यान लगाता है। इन बालकों में अवधान का अभाव विचार तंत्रिका तंत्र संबंधी दोषों के कारण होता है । यदि बालक की रुचि के अनुसार शिक्षण या कार्य नहीं है तो ये उसकी उपेक्षा करते हैं। ये प्रायः मानसिक थकान का अनुभव करते हैं तथा कब कालखण्ड समाप्त होगा, इसका इंतजार करते हैं।

इनका सामाजिक दायरा सीमित होता है। खेलों व पाठ्यसहगामी क्रियाओं में ये अध्ययन की अपेक्षा अधिक रुचि लेते हैं । कक्षा में मन न लगने के कारण कुछ बालक शाला से भगोड़े भी बन जाते हैं। इन्हें दूसरों से बात करने में संकोच होता है । ये सहजता से जवाब नहीं दे पाते । कुछ बालक दिवास्वप्नी (दिन में सपने देखने वाले) होते हैं।

(स) शैक्षणिक लक्षण– अधिगम बाधित बालकों की शैक्षिक समस्याएं एक सी नहीं होती। कुछ बोलने पढ़ने में, कुछ वाचन करने में, कुछ लिखने में, कुछ समझने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। प्रायः अधिगम बाधित बालकों में वाचन या पठन में शब्द.पंक्ति छोड़कर वाचन करते देखा गया है। कुछ लिखने में, कुछ संप्रेषण में तथा कुछ संस्था संबंधी (गणित संबंधी) मामलों में धीमे होते हैं । पठन अयोग्यता (डिस्लेक्सिया), लेखन अयोग्यता (डिसग्रेफिया), गणित की अयोग्यता (डिसकेलकुलिया) इनकी प्रमुख समस्याएं हैं। पढ़ने में पंक्ति या शब्द छोड़ देना, गलत– उच्चारण करना, वर्तनी (स्पेलिंग) के अनुसार उच्चारण में असमर्थ रहना, मिश्रित शब्दों को पढ़ने में कठिनाई का अनुभव करना, धीमी गति से पढ़ना पठन अयोग्यता का लक्षण है । लिखने में अक्षरों की गलत बनावट, मानक के अनुरूप लेखन का अभाव, अधूरे शब्द लिखना, वक्र लेखन, लिखने का गलत ढंग इनके लेखन अक्षमता का लक्षण है। गणित के सवाल हल कर पाने में धीमी गति या पूर्ण असमर्थता, पहाड़े याद न होना, गणित विषय के प्रति भय, सूत्र याद न रख पाने,प्रश्न समझने में ही असफलता आदि ऐसे बालकों की गणितीय अक्षमता के उदाहरण है |

अधिगम बाधित बालक कक्षा कार्य या गृह कार्य देर से कर पाते हैं। कक्षा या शाला से अनुपस्थित रहना भी ऐसे बालकों का शैक्षिक लक्षण है।

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