निर्देशन तथा परामर्श का अर्थ बताते हुए समावेशी शिक्षा में इनके महत्त्व और प्रकारों का वर्णन कीजिए।

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निर्देशन (गाइडेंस) तथा परामर्श (काउंसलिंग) शैक्षिक, मनोवैज्ञानिक,व्यावसायिक आदि के क्षेत्र में प्रयुक्त दो भिन्न प्रक्रियाएं हैं । निर्देशन वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उसकी समस्याओं का समाधान करने के लिए निर्देशक द्वारा सहायता दी जाती है । निर्देशक वह विधियाँ व उपाय बताता है जिनका प्रयोग कर व्यक्ति अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा सकता है। विभिन्न विद्वानों ने निर्देशन की अलग–अलग परिभाषाएं दी हैं जिनसे निर्देशन का अर्थ स्पष्ट होता है । क्रो एवं क्रो के शब्दों में, “निर्देशन वह सहायता है जो एक व्यक्ति अन्य व्यक्ति को प्रदान करता है । इस सहायता से वह व्यक्ति अपने जीवन का पथ स्वयं ही प्रदर्शित करता है, अपनी विचारधारा का विकास करता है, अपने निर्णयों का निश्चय करता है तथा अपना दायित्व संभालता है।” स्किनर के अनुसार, “निर्देशक युवकों को स्वयं से, अन्य से और परिस्थितियों से सामंजस्य करना एवं सीखने के लिए सहायता देने की प्रक्रिया है।” इस प्रकार निर्देशन –

(1) निर्देशक द्वारा छात्रों, युवकों, व्यक्तियों को दिया जाता है

(2) निर्देशन निर्देशन प्राप्त करने वाले की समस्याओं के निराकरण हेतु दिया जाता है

(3) निर्देशन से प्रेरित होकर छात्र, व्यक्ति अपनी परिस्थिति से समायोजन कर सकते हैं।

समावेशी शिक्षा में निर्देशक सामान्य तथा विशेष दोनों प्रकार के अध्ययनरत छात्रों हेतु महत्त्वपूर्ण है । डॉ.सीताराम जायसवाल के शब्दों में, “निर्देशन का एक सिद्धान्त है कि इसकी सुविधा सभी को उपलब्ध हो, केवल कुछ विशेष आवश्यकता वाले व्यक्तियों के लिए नहीं। सामान्य व्यक्ति के जीवन में प्रगति एवं समस्याओं के समाधान के लिए भी निर्देशन उतना ही आवश्यक है जितना कि विशेष समस्या वाले व्यक्ति के लिए।”

निर्देशन की आवश्यकता समावेशी विद्यालयों हेतु निम्नलिखित दृष्टि से उपयोगी है।

(1) छात्रों के वैयक्तिक दृष्टिकोण से– निर्देशन से छात्रों को अपनी व्यक्तिगत समस्याओं का हल पाने में सहायता मिलती है । समावेशी विद्यालय में अध्ययनरत अपंग छात्र यदि यह जानना चाहता है कि उसे उसकी विकलांगता में कमी लाने वाले उपकरण शासन की योजना में निःशुल्क कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं तो वह निर्देशक से इसकी जानकारी प्राप्त कर सकता है । यदि एक कमजोर नजर वाला छात्र जिसे कक्षा के ब्लेकबोर्ड पर लिखी इबारत दिखाई नहीं देती तो वह इस समस्या का हल निर्देशक के पास से प्राप्त कर सकता है।

(2) शैक्षिक दृष्टिकोण से– समावेशी विद्यालय का कोई निःशक्त बालक अपने लिये उपलब्ध वैकल्पिक विषयों का कार्यानुभव व्यवसाय के चुनाव में भ्रम का शिकार हो तो निर्देशक उसे उसकी शारीरिक–मानसिक निःशक्तता के स्तर का ध्यान रखते हुए समुचित निर्देशन दे सकता है। इसी प्रकार यदि कोई दृष्टिहीन या बधिर छात्र यदि यह जानना चाहे कि क्या उसके लिए अंध से बधिर विशेष विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करना आवश्यक है या वह समावेशी विद्यालय में प्रवेश पाकर भी शिक्षा अर्जित कर सकता है तो उसे निर्देशक समुचित जाँच कर निर्देश दे सकता है।

(3) मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से– मनोग्रंथियों के शिकार निःशक्त बालक की हताशा, अवसाद या अन्य संवेगात्मक समस्याओं पर निर्देशक के निर्देश समस्या कम करने में प्रभावी होते हैं।

(4) सामाजिक दृष्टिकोण से– सामाजिक कुसमायोजन से ग्रस्त अथवा सामाजिक समस्याग्रस्त बालक का दूसरे बालकों से सामाजिक समायोजन कम हो जाता है ऐसे बालकों के श्रेष्ठ समायोजन हेतु विद्यालय में निर्देशन व्यवस्था आवश्यक है। क्रो एवं क्रो के शब्दों में, “यदि हम अपने स्वयं के निकटवर्ती वातावरण के कुमसायोजित व्यक्तियों की संख्या पर विचार करते हैं तो भी हम माल व्यवहार और मनोभाव के अधिक उपयुक्त निर्देशन की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।”

समावेशी शिक्षा में प्रयक्त निर्देशन के प्रकार– निर्देशन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। समावेशी शिक्षा में निर्देशन व्यक्तिगत, शैक्षिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, स्वास्थ्य संबंधी तथा व्यावसायिक शिक्षा संबंधी अनेक आयामों से संबंधित है। विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों तथा अन्य सामान्य बालकों दोनों की दृष्टि से निर्देशन के ये प्रकार उपयोगी हैं।

(1) शैक्षिक निर्देशन– सामान्य तथा विशेष छात्रों को विद्यालय में प्रवेश के समय उचित निर्देशन दिया जाना शैक्षिक निर्देशन के अंतर्गत प्रथम चरण है। विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों के शारीरिक व मानसिक सामर्थ्य का आकलन कर प्रवेश की कार्यवाही की जानी चाहिए । नवीन छात्रों का समावेशी शिक्षा के उद्देश्य से अवगत कराया जाना चाहिए। विद्यालयीन अनुशासन तथा नियम पालन के निर्देशन भी दिये जाने चाहिए। छात्रों को अधिगम विधियों, संसाधन कक्ष, पुस्तकालय आदि के उपयोग से परिचित कराना चाहिए । कक्षा शिक्षण में शिक्षक निर्देश भी शैक्षिक निर्देशन है। छात्रों की वैयक्तिक विभिन्नताओं का वास्तविक आकलन कर उनकी योग्यता क्षमता के अनुसार शैक्षिक निर्देशन होना चाहिए। वैकल्पिक पाठ्य विषय के चयन में छात्रों को समुचित निर्देश भी इसके अंतर्गत आते हैं।

(2) व्यावसायिक निर्देशन– निःशक्त बालकों के लिए समावेशी विद्यालय में उनकी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं को दृष्टि में रखते हुए शिल्प, कार्यानुभव या व्यावसायिक शिक्षा हेतु कौनसा व्यवसाय उनके उपयुक्त होगा इसका निर्देशन आवश्यक होता है क्योंकि बहुधा वे अपने संगी–साथी की इच्छा के अनुसार गलत व्यवसाय का चयन कर लेते हैं जो उनकी शारीरिक–मानसिक क्षमताओं तथा भविष्य में स्वरोजगार खोलने या नौकरी करने के अनुकूल नहीं होता । व्यवसाय चयन का निर्देश देते हुए बालकों को विभिन्न व्यवसायों की लाभ हानियों, भविष्य की संभावनाओं के निर्देश भी दिये जाने चाहिए।

(3) वैयक्तिक निर्देशन– वैयक्तिक निर्देशन का संबंध बालक की व्यक्तिगत समस्याओं व अवरोधों से है। छात्र के अध्ययन हेतु समुचित निर्देश, पारिवारिक व व्यक्तिगत समस्याओं को हल करने हेतु, वातावरण से अनुकूलन स्थापित करने हेतु, व्यक्तित्व संबंधी समस्याओं के समाधान हेतु वैयक्तिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। कमजोर दृष्टिवाले बालक, श्रवण बाधित बालक, धीमी गति से सीखने वाले, मंद बुद्धिलब्धि वाले बालकों की वैयक्तिक अनेक समस्याएं संभव हैं अत: व्यक्तिगत निदेशन द्वारा उनका समाधान अपेक्षित है।

(4) सामाजिक निर्देशन– समावेशी विद्यालय में भेदभाव रहित वातावरण सामुदायिक गतिविधियों के आयोजन, आदि हेतु उपयुक्त सामाजिक व्यवहार आवश्यक होता है । जो बालक सामाजिक रूप से कुसमायोजित होते हैं उनका व्यक्ति अध्ययन (केस स्टडी) कर उचित निर्देशन उन्हें दिया जाना चाहिए। चोरी करने वाले, लड़ाई झगड़ा करने वाले, शाला से भागने वाले या पढना छोड देने वाले समस्या बालकों की समस्याओं का अध्ययन विश्लेषण कर उन्हें समुचित निर्देश दिये जाने चाहिए।

(5) मनोवैज्ञानिक निर्देशन– जो बालक फोबिया, हीन भावना, अवसाद, उदासी, अतिक्रियाशीलता, आत्मविश्वासहीनता, एकाकीपन, आक्रामकता, स्वपरायणता (ऑटिज्म), तनाव आदि मानसिक कुसमायोजन से ग्रसित हैं उनका व्यक्ति इतिहास अध्ययन कर कारणों की खोज कर अनुकूल निर्देशन दिया जाना अपेक्षित होता है ताकि बालक के व्यक्तित्व को समायोजित किया जा सके । आवश्यकतानुसार साक्षात्कार, परीक्षण विधियों का उपयोग कर समस्या की तह में जाकर निर्देश देना आवश्यक होता है।

(6) स्वास्थ्य संबंधी निर्देशन– शारीरिक व मानसिक रूप से निःशक्त बालकों के उपचार, उन्हें कृत्रिम अंक, चश्मा, बैसाखी, श्रवण यंत्र, आदि उपकरणों संबंधी निर्देश, शारीरिक व्यायाम संबंधी निर्देश, दुर्घटना पर प्राथमिक उपचार, बीड़ी, गुटका आदि बुरी आदतों से बचाव, स्वस्थ जीवन का महत्त्व आदि संबंधी निर्देशन इसके अन्तर्गत आता है।

परामर्श (काउंसलिंग) : अर्थ, महत्त्व और प्रकार

परामर्श देना सलाह देने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । यह सलाह प्रशिक्षित व विशेषज्ञ सलाहकार या परामर्शदाता द्वारा दी जाती है। इस प्रकार परामर्श में परामर्शदाता और परामर्श प्रार्थी दो पक्ष अनिवार्य होते हैं। परामर्श चाहने वाले की कुछ समस्याएं होती हैं जो वह अकेला बिना किसी राय या सुझाव के पूरा नहीं कर सकता है। इन समस्याओं के समाधान हेतु उसे वैज्ञानिक सलाह की आवश्यकता होती है। यह राय या सुझाव जो विशेषज्ञ व्यक्ति द्वारा दिये जाते हैं परामर्श कहलाता है। बरनार्ड तथा फूलमार ने इसे परिभाषित इस रूप में किया है–”बुनियादी तौर पर परामर्श के अन्तर्गत व्यक्ति को समझना और उसके साथ कार्य करना होता है जिससे उसकी अनन्य आवश्यकताओं, अभिप्रेरणाओं और क्षमताओं की जानकारी हो फिर उसे इनके महत्त्व को जानने में सहायता की जाए।” वेबस्टर डिक्शनरी के अनुसार, “पूछताछ, पारस्परिक तर्क–वितर्क या विचारों का पारस्परिक आदान–प्रदान ही परामर्श है।

निर्देशन एकतरफा मार्ग है परन्तु परामर्श दोतरफा मार्ग है। परामर्श अधिक वैज्ञानिक सलाह है जो प्रशिक्षित अनुभवी व विशेषज्ञ परामर्शदाता द्वारा परामर्श के उपकरणों (बुद्धि परीक्षण, उपलब्धि परीक्षण, अभिरुचि परीक्षण,रुचि परीक्षण,संचित अभिलेख,साक्षात्कार, अवलोकन) का उपयोग कर दी जाती है।

समावेशी शिक्षा में परामर्श का विशेष महत्त्व निम्न तथ्यों से स्पष्ट होता है–

(1) व्यक्तिगत महत्त्व– समावेशी विद्यालय में विशेष आवश्यकताओं वाले बालक भी प्रवेश लेते या अध्ययन करते हैं । उनकी अपनी शारीरिक या मानसिक कमियों से संगठित कई व्यक्तिगत समस्याएं होती हैं। जैसे क्षीण श्रवणशक्ति बालक साधारण रूप से कही गई बातों को सुन नहीं पाते हैं । अल्प दृष्टि वाले बालक या तो पास की वस्तुओं को या दूर की वस्तुओं को देख नहीं पाते । चलने फिरने में असमर्थ अपंग बालक स्वयं उठने या बैठने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। मंदबुद्धि बालकों को तीव्र गति से किया गया शिक्षण समझ में नहीं आता। ऐसे निःशक्त बालकों की अन्य अनेक व्यक्तिगत समस्याओं का हल परामर्श है । परामर्शदाता द्वारा लिये गए ऐसे बालकों के साक्षात्कार, परीक्षण, परिचर्चा से समस्या का उपाय की सलाह सही परामर्श द्वारा ही मिल सकती है ।

(2) शैक्षिक महत्त्व– जो शिक्षण सामान्य छात्रों की समझ में आसानी से आ जाता है, उसे यदि धीमे अधिगमकर्ता या मंदबुद्धि के बालक समझने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें परामर्शदाता से अच्छे अधिगम की विधि ज्ञान हो सकती है तथा शिक्षक भी अपने अध्यापन के तरीकों में सुधार कर सकता है। अभ्यास कार्य को वाजिब समय से अधिक देर से करने वाले बालक, ऐसे छात्र जिनमें ध्यान केन्द्रीकरण कर सीखने की क्षमता कम है, वाचन या पठन में गलतियाँ करने वाले बालक या ऐसे बालक जिन्हें व्याकरण, गणित आदि कोई विषय दुष्कर लगता है, परामर्शदाता के परामर्श से अपनी शैक्षिक समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। छात्रों को उनकी रुचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार कार्यानुभव या व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने की सलाह भी विशेषज्ञ परामर्शदाता से प्राप्त हो सकती है । वैकल्पिक विषयों में से कौनसा विषय क्यों चयन किया जाए यह भी परामर्श से सुलझाया जा सकता है।

(3) मनोवैज्ञानिक महत्त्व– संस्कार विहीन परिवारों से आए लड़ाई झगड़ा करने वाले, अपशब्द कहने वाले दूसरों के पेन टिफिन आदि की चोरी करने वाले, शाला से भागकर आवारागर्दी करने वाले, कक्षा में शरारतें करने वाले, झूठ बोलने वाले,कुंठित, हीनता भावना से ग्रस्त अआत्मविश्वासी बालक, चाकू–छुरी रखने वाले बालक, बाल अपराधी छात्र, अनुशासनहीनता व अवज्ञा करने वाले बालकों का मनोवैज्ञानिक परीक्षण कर परामर्शदाता ऐसे बालकों की समस्याओं के कारणों की तह में जाकर उन्हें उचित सलाह देकर उनकी मनोवैज्ञानिक समस्याओं के हल में सहायता कर सकता है।

(4) सामाजिक महत्त्व– ऐसे बालक जो एकांत में रहते हैं जिनके मित्र नहीं हैं जो दूसरों से बातचीत करने में झेंपते हैं या जो असामाजिक गतिविधि में लिप्त हैं ऐसे बालकों का उपचार आवश्यक है । परामर्शदाता केस स्टडी.साक्षात्कार आदि उपयुक्त विधियों से परीक्षण कर छात्रों को समझ में बैठाकर परामर्श दे सकता है।

समावेशी शिक्षा में परामर्श के विभिन्न प्रकार

(1) नैदानिक परामर्श (क्लिनिकल काउंसलिंग) – श्रवण बाधित, दृष्टि बाधित, वाणि बाधित, अस्थि बाधित, मंदबुद्धि, धीमे अधिगमकर्ता, अलाभप्रद वंचित वर्ग के बालकों की शारीरिक व मानसिक कमियों के लिए उन्हें निदानात्मक सलाह परामर्शदाता द्वारा दी जाती है । कहाँ कृत्रिम पैर, हाथ लगाए जा सकते हैं, कहाँ सहायक उपकरण (चश्मा, श्रवण यंत्र, वैशाखी, ट्रायसिकल) उपलब्ध होंगे। कैसे क्षमताओं में सुधार लाया जा सकता है–ये कार्य सम्यक जाँच व परीक्षण कर परामर्श द्वारा निःशक्त छात्रों को दी जा सकती है ।

(2) मनोवैज्ञानिक परामर्श– मनोवैज्ञानिक परामर्श में परामर्शदाता मनोग्रंथियों के शिकार छात्रों को उनकी दमित भावनाओं एवं संवेगों का परिष्कार करने में सहायता करता है । परामर्शदाता विभिन्न मनोवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग कर सलाह देता है ।

(3) सामाजिक परामर्श– बालकों के सामाजिक कुसमायोजन को दूर कर उनमें सामाजिक कुशलताओं में वृद्धि हेतु सामाजिक परामर्श दिया जाता है । बड़ों के प्रति आदरभाव न रखने वाले, अपशब्द का प्रयोग करने वाले, नैतिकता व स्थापित मूल्यों के विरुद्ध आचरण करने वाले, संस्कारहीन बालकों में उन्हें समुचित परामर्श देकर सुधार किया जा सकता है ।

(4) शैक्षिक परामर्श– शैक्षिक परामर्श छात्र को अपनी शिक्षा एवं अध्ययन में सफलता प्राप्त करने तथा पाठ्यक्रमों एवं विषयों का उचित चुनाव करके, उपयुक्त व्यावसायिक शिक्षा का चयन करने आदि हेतु दिया जाता है। वर्तनी की अशुद्धियाँ, वाचन में समस्या, गणित आदि विषय में अरुचि, घटिया निष्पादन, उपलब्धि परीक्षणों में कम ग्रेड पाने वाले छात्रों को शैक्षिक परामर्श देकर उनमें सुधार का प्रयास किया जाता है।

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