परिवार तथा समुदाय का अर्थ एवं शैक्षिक महत्त्व स्पष्ट करते हुए समावेशी शिक्षा में इनकी विशिष्ट भूमिकाओं पर प्रकाश डालिए।

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(i) परिवार का अर्थ, शैक्षिक महत्त्व तथा समावेशी शिक्षा में भूमिका

घर, कुटुम्ब या परिवार मानव समाज की प्राचीनतम एवं आधारभूत इकाई है। परिवार माता, पिता और उनकी संतानों से बनता है। मैकाइवर और पेज ने परिवार की परिभाषा इन शब्दों में की है, “परिवार एक ऐसा समूह है जो पर्याप्त रूप से लैंगिक संबंध पर आधारित होता है तथा जो इतना स्थायी होता है कि इसके द्वारा बालकों के जन्म तथा पालन–पोषण की व्यवस्था हो जाती है।” क्लेयर के अनुसार, “परिवार से हम संबंधों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता–पिता और उनकी संतानों के बीच में पाई जाती है।” आनबर्ग और निमकाफ ने लिखा है “परिवार पति–पत्नी बच्चों सहित पुरुष या स्त्री का न्यूनाधिक रूप से स्थायी समूह होता है।” फेंक के अनुसार, परिवार ही बच्चे के लालन–पोषण एवं सामाजीकरण का अनिवार्य साधन है। इसी के द्वारा बच्चे को समाज की संस्कृति का परिचय प्राप्त होता है।”

परिवार के शैक्षिक महत्त्व को अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने अपने शब्दों में बाँधा है । रूसो ने लिखा है कि शिक्षा जन्म से प्रारंभ होती है तथा माता सर्वोत्तम शिक्षिका है। पेस्टालॉजी के अनसार परिवार प्रेम तथा स्नेह का केन्द्र, शिक्षा का सर्वोत्तम स्थान तथा बालक की प्रथम पाठशाला है। फॉबेल के विचार में माता बालक की आदर्श गुरु होती है तथा परिवार द्वारा प्राप्त की हुई अनौपचारिक शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली और प्राकृतिक होती है । मैजरी के विचारानुसार बालक नागरिकता का प्रथम पाठ माता के चुम्बन एवं पिता के संरक्षण के बीच सीखता है । हैंडरसन के मतानुसार बालक परिवार में अन्य के कार्यों को देखकर उनका अनुकरण करता है और उनमें भाग लेता है तब वह अनौपचारिक रूप से शिक्षा प्राप्त करता है । रेमान्ट ने इन शब्दों में परिवार के महत्त्व को स्पष्ट किया है–दो बालक एक ही स्कूल में भले ही पढ़ते हों, एक ही शिक्षणों से प्रभावित होते हों, एक ही साथ अध्ययन करते हों फिर भी सामान्य ज्ञान, रुचियों, भाषा, व्यवहार तथा नैतिकता में अपने–अपने अलग पारिवारिक वातावरण के कारण भिन्न होते हैं।

परिवार का शैक्षिक महत्त्व इसलिए भी है क्योंकि परिवार ही बालकों की पहली पाठशाला होती है । जब औपचारिक रूप से स्कूल अस्तित्व में नहीं आए होंगे तब बालक परिवार में ही परिवार जनों द्वारा शिक्षित किए जाते हैं । परिवार बालकों के सर्वांगीण विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कामेनियस के अनुसार बालक जीवन के प्रथम 7 वर्षों की शिक्षा माँ के घुटनों में प्राप्त करता है। बालकों की शिक्षा में परिवार का महत्त्व बहुआयामी है । शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सामाजिक विकास, नैतिक विकास, सांस्कृतिक विकास, संवेगात्मक विकास, मातृभाषा का विकास, अच्छी आदतों का विकास इत्यादि बालक के शैक्षिक विकास के बहुआयामी रूप हैं।

समावेशी शिक्षा में परिवार की विशिष्ट भूमिकाएं इस प्रकार हैं–

(1) बालक का शारीरिक स्वास्थ्य– निःशक्त बालकों के शारीरिक स्वास्थ्य हेतु उनके परिवार जनों को विशेष प्रयास करने की आवश्यकता है । दृष्टिबाधित, श्रवणबाधित, अस्थिबाधित, मंदबुद्धि बालक तथा बहुविकलांग बालकों का अच्छा स्वास्थ्य बना रहे इस हेतु अच्छा व संतुलित आहार उन्हें दिया जाना चाहिए। उनकी शारीरिक सफाई,बीमारियों से रक्षा, आराम,नींद, व्यायाम, खेल आदि की चिंता उनके पारिवारिक सदस्यों की जिम्मेदारी है क्योंकि वे स्वयं बहुत सी क्रियाएं स्वयं कर सकने में असमर्थ रहते हैं।

(2) बालक का गामक विकास – विशिष्ट बालक की गामक विकास में गति (लोकोमोशन) की समस्या प्रमुख है। अस्थिबाधित बालक के हाथों व पैरों की गति पर ध्यान देना चाहिए । मानसिक रूप से पिछड़े बच्चे चलने में सहायता माँगते हैं। कई बाधित बालकों को ऊपर–नीचे उतरने–चढ़ने, कपड़े बदलने, बटन लगाने, जूते के लेस बाँधने आदि में असुविधा होती है। परिवार के किसी सदस्य को उनकी सहायता ऐसे समय में करनी चाहिए। वे अपने समावेशी विद्यालय में जाने हेतु भली–भाँति तैयार होकर जाएं यह परिवार का दायित्व है।

(3) बालक की संवेगात्मक सुरक्षा– प्रायः परिवारजन निःशक्त बालकों को बोझस्वरूप मानते हैं। इसका बालक की भावनाओं पर बुरा असर होता है। घर में वह देखता है कि स्वस्थ भाई से सब प्रेम व सहानुभूति से पेश आते हैं तथा उसकी आवश्यकता का अधिक ध्यान रखते हैं तो निःशक्त बालक निराशा, अवसाद, हीन भावना, आत्मविश्वासहीनता ग्रस्त हो जाता है। यदि माता–पिता बात–बात पर निःशक्त बालक को लेकर अपने भारी उत्तरदायित्व का बखान बालकों के समक्ष करेंगे तो निःशक्त बालक पर इसका मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव दिखाई देगा। परिवार जनों को विशिष्ट बालक को घुमाना, उसके साथ खेलना, उससे अधिक से अधिक प्रेम भरी बातें करना उसकी संवेगात्मक सुरक्षा के लिए आवश्यक है ।

(4) समावेशी शाला में दाखिला तथा नियमित उपस्थिति– कई बालक निःशक्त बालकों की शिक्षा के प्रति जागरूक नहीं होते। ग्रामीण क्षेत्र के कई पालकों को ऐसे बालकों की शिक्षा की पर्याप्त जानकारी भी नहीं होती। परिणामतः पढ़ने योग्य उम्र बीत जाने पर ऐसे बालक अशिक्षित रह जाते हैं, उनके व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता तथा उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है। परिवार जनों का दायित्व है कि वे अपने निःशक्त बालकों को किसी समीपस्थ समावेशी स्कूल में प्रवेश दिलाएं तथा उनकी नियमित शाला उपस्थिति व शिक्षा के प्रति चितित व प्रयत्नशील रहें।

(5) नि:शक्त बालकों को अधिगम (सीखने) की प्रेरणा– समावेशी शाला में अध्ययनरत निःशक्त बालक के अध्ययन के प्रति अभिभावकों को जागरूक रहना चाहिए। उन्हे सीखने में सहायता तथा अभिप्रेरणा देनी चाहिए। अभिभावकों को शाला प्रशासन तथा शिक्षकों से संपर्क कर बालक की प्रगति की जानकारी लेते रहने चाहिए तथा शिक्षकों के सुझावों पर अमल करना चाहिए।

(6) बालक का भाषागत विकास – मातृभाषा की प्रारंभिक शिक्षा बालक घर में ही सीखता है । प्रायः देखा जाता है कि सामान्य बालकों के माता–पिता व अन्य परिवारजन इससे तब तक बोलते रहते हैं जब तक कि वह स्वयं बोलना नहीं सीख जाता । निःशक्त बालक बधिर, दृष्टिहीन, मंदबुद्धि आदि बालकों को बोलकर भाषा की शिक्षा परिवार में बचपन से ही दी जानी चाहिए। पूरे वाक्यों में बोलना, शैलीगत बोलना, अधिकाधिक सार्थक शब्दों का प्रयोग करना आदि द्वारा निःशक्त बालकों के भाषागत विकास को परिवार द्वारा सहायता दी जानी चाहिए।

(7) सामाजिक व सांस्कृतिक शिक्षा– सामान्य बालक तथा निःशक्त बालक दोनों के लिए सामाजिक व सांस्कृतिक विकास महत्त्वपूर्ण हैं। परिवार में बालकों को दूसरे बालकों से मिलकर खेलना,लड़ाई झगड़ा न करना, शिष्टाचार सिखाना, अच्छे संस्कार डालना,क्रोध अपशब्द बकने से दूर रहना, अच्छी रुचियाँ व आदतें विकसित करना, मैत्रीपूर्ण व्यवहार करना, दया, क्षमा, सहनशीलता, खाने–पीने के तरीके आदि सिखाना परिवार का दायित्व है।

(8) व्यवसाय की शिक्षा– निःशक्त बालकों के समक्ष बड़े होकर आजीविका प्राप्त करने की समस्या प्रमुख रहती है। शारीरिक, मानसिक कमियों के कारण लोग निजी रोजगार देना सही नहीं समझते । स्वयं बाधित बालक बहुत से कई व्यवसायों में अपने शारीरिक अंगों के सही संचालन के कारण कार्य करने, उत्पादन करने में असमर्थ रहते हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि कुछ दृष्टिहीन बालक गायन वादन, कुछ पैरों से अपंग बालक कलाकृति निर्माण में अच्छा निष्पादन देते हैं। परिवार तथा समावेशी विद्यालय का दायित्व है कि निःशक्त बालकों की क्षमताओं व प्रतिभा को समझकर उनके अनुकूल व्यावसायिक शिक्षा, शिल्प शिक्षा की व्यवस्था की जाए।

(9) मानसिक विकास– परिवार को निशक्त बालकों को बाल्यावस्था से ही उनकी मानसिक शक्तियों के विकास हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मंदबुद्धि बालकों को मकान बनाने के ब्लॉक,खेल खेल में शिक्षा प्राप्त करने की खेल सामग्री, कम्प्यूटर आदि के द्वारा उनकी मानसिक शक्तियों को दिशा प्रदान करनी चाहिए। चलने–फिरने में असमर्थ बालकों के मानसिक विकास को बढ़ाने वाले खेल शतरंज आदि की खेल विधियों व कई जाकर उनका मानसिक विकास करना चाहिए।

(10) नैतिक व चारित्रिक विकास– परिवार द्वारा सभी बालकों को उत्तम नागरिक बनने के गुण, ईमानदारी, मानवता, भेदभाव से दूर रहकर सहायता करने, निःशक्त बालकों के प्रति सहायता भाव रखने, अच्छी आदतों के विकास की शिक्षा दी जानी चाहिए।

परिवार का निःशक्त बालकों के प्रति चला आ रहा पारंपरिक दृष्टिकोण में बदलाव लाकर उन्हें शिक्षित किए जाने हेतु प्रयास किया जाना भी आवश्यक है ताकि उनके बालक दसरों की दशा व भिक्षा पर जीवन यापन करने में मजबूर न हों।

(II) समुदाय का अर्थ शैक्षिक महत्त्व तथा समावेशी शिक्षा में भूमिका :

साधारण बोलचाल में समुदाय का अर्थ व्यक्तियों के उस पड़ोस से है जिसमें वे रहते हैं। वस्ततः समुदाय दो या दो से अधिक व्यक्तियों का ऐसा समूह हो जो एकता या सामुदायिक भावना से युक्त हो तथा निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में निवास करता हो। आनबर्न तथा निमकाफ के शब्दों में, “किसी सीमित क्षेत्र के अंतर्गत सामाजिक जीवन के संपूर्ण संगठन को समुदाय समझा जा सकता है ।” के.डेविस के अनुसार, समुदाय सबसे छोटा ऐसा क्षेत्रीय समूह है जिसके अंतर्गत सामाजिक जीवन के समस्त पहलू आ जाते हैं।” बोगार्डस के अनुसार, “समुदाय एक ऐसा सामाजिक समूह है जिसमें कुछ अंश तक हम की भावना है और जो निर्दिष्ट क्षेत्र में निवास करता है।” इस प्रकार समुदाय में (1) व्यक्तियों का समूह, (2) निश्चित भूभाग तथा (3) सामुदायिक भावना सम्मिलित होती है।

शिक्षा के क्षेत्र में समुदाय अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिस प्रकार परिवार तथा विद्यालय का बालक के सर्वांगीण विकास में गहरा प्रभाव पड़ता है उसी प्रकार समुदाय की संस्कृति, सहन–सहन, भाषा, शिष्टाचार, सहयोग भावना, मानवीयता, स्वास्थ्य संबंधी आदतों, अभिवृत्ति एवं विचारधाराओं, चरित्र व नैतिका, इत्यादि बालक पर शैक्षिक असर डालते हैं। यह प्रायः कहा जाता है कि बालक वैसा ही बनता है जैसा समुदाय के लोग उसे बनाते हैं । वस्तुतः बालक के व्यक्तित्व के निर्माण में समुदाय अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

समुदाय के शैक्षिक महत्त्व को क्रो तथा क्रो ने इन तीन कार्यों में विभाजित किया है–

(1) समुदाय बालकों को शिक्षित करने के लिए स्कूल स्थापित करने,छात्रावास बनवाने, स्कूल हेतु सामग्री उपलब्ध कराने में आर्थिक सहायता करते हैं।

(2) समुदाय पाठ्यक्रम लागू करने, उसका निर्माण करने, पुस्तकालय, वाचनालय, संग्रहालय खोलने में और उन पर नियंत्रण रखने में सहायक है।

(3) बालक को अनौपचारिक (इनफॉर्मल) शिक्षा देने हेतु पुस्तक, समाचार पत्र, आकाशवाणी, टेलीविजन आदि सशक्त साधनों से समुदाय बालकों/व्यक्तियों को शिक्षित करता है। जॉन डीवी के शब्दों में, “अच्छे और बुद्धिमान माता–पिता जो अपने बालकों के लिए चाहते हैं वही समुदाय भी सभी बालकों के लिए चाहता है ।” बसब्री व मक्नाली ने समुदाय के शैक्षिक महत्त्व को इन तीन रूपों में रूपायित किया है–

(1) विद्यार्थियों की शिक्षा में सुधार लाना,

(2) सामुदायिक जीवन में सुधार लाना तथा

(3) समुदाय के शिक्षा संबंधी कार्यक्रम को प्रोत्साहन देना और उसे लोकप्रिय बनाना । जिस प्रकार बालकों को अनौपचारिक शिक्षा देने में समुदाय का शैक्षिक योगदान है उसी प्रकार समावेशी विद्यालयों में अध्ययनरत विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए भी उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

समावेशी शिक्षा में समुदाय की भूमिका निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट है–

(1) समावेशी शिक्षा में प्रोत्साहन देना– समुदाय के लिए समावेशी शिक्षा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि विभिन्न रूप से शारीरिक व मानसिक रूप से निःशक्त बालक सामुदायिक समस्या बन जाते हैं यदि उन्हें शिक्षित न किया जाए। समुदाय समावेशी विद्यालय स्थापित करने, निःशक्त बालकों का शाला में दाखिला कराने, समावेशी विद्यालय में उपकरण व उपस्कर आदि सामग्री उपलब्ध कराने, जनसंवेदना के तहत आर्थिक अनुदान या सहायता देने आदि में योगदान देता है । अनेक समावेशी विद्यालय सरकारी सहायता के साथ–साथ सामुदायिक सहायता से संचालित होते हैं।

(2) समावेशी शाला तथा सामुदायिक गतिविधियों का संयुक्त आयोजन – समावेशी शाला में अध्ययनरत सामान्य व विशेष बालकों को समाजीकरण की शिक्षा देने हेतु अनेक सामुदायिक गतिविधियाँ आयोजित होती हैं। विद्यालय में ही इन सामाजिक गतिविधियों का आयोजन शिक्षक दिवस, विश्व विकलांग दिवस, राष्ट्रीय दिवस, शाला के वार्षिकोत्सव का आयोजन, शिक्षक पालक संघ, अभिभावक दिवस आदि के रूप में किया जाता है जिसमें समाज के सम्मानित प्रतिष्ठित व्यक्तियों को भी निमंत्रित किया जाता है । इसी प्रकार सामुदायिक विद्यालय के शिक्षक व छात्र भी समुदाय में जाकर सफाई अभियान, शिक्षा अभियान,श्रमदान, वृक्षारोपण, स्काउट गाइड का कार्य,प्रदर्शनी आयोजन आदि करते हैं। इस प्रकार समुदाय समावेशी शाला के सहयोग से सामुदायिक गतिविधियों में सहयोग करता है।

(3) सामुदायिक सामाजिक गुणों का विकास– सहयोग, सेवा, त्याग, कर्त्तव्य भावना, सहानुभूति, सह्नशीलता, समाज सेवा, नागरिक गुणों के विकास में शिक्षा बालकों को समुदाय से ही मिलती है । समावेशी विद्यालय में शिक्षारत शारीरिक व मानसिक रूप से बाधित बालकों के लिए सहानुभूतिपूर्ण सहायता की पग–पग पर आवश्यकता पड़ती है। सामान्य छात्र, शिक्षक, गैर शिक्षकीय स्टाफ इन लाचार बालकों के साथ वांछित सहयोग करे यह आवश्यक है । समुदाय से प्राप्त सामुदायिक गुण इस प्रकार समावेशी विद्यालय हेतु लाभप्रद होते हैं।

(4) बालकों का सांस्कृतिक विकास– प्रत्येक समुदाय की अपनी निजी संस्कृति होती है जिसका प्रभाव छात्रों पर पड़ता है। जब छात्र समुदाय के सांस्कृतिक उत्सवों में भाग लेता है तो वहाँ के लोगों के पहनावे, बोलचाल के ढंग, भाषा तथा आचरण का प्रभाव उस पर पड़ता है । समावेशी विद्यालयों का एक उद्देश्य बालक का सांस्कृतिक विकास करना भी है तथा सुसंस्कृत, बालक विकसित हो सकें । समावेशी विद्यालय के छात्रों को शैक्षणिक सांस्कृतिक यात्राओं तथा सामुदायिक उत्सवों में भाग लेने हेतु प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। साथ ही समावेशी विद्यालय में भी समुदाय के लोगों को बाल प्रदर्शनी, विद्यालय मेला आदि आयोजनों में आहूत किया जाना चाहिए।

(5) मानसिक विकास– समुदाय पुस्तकालय वाचनालयों की स्थापना करता है। समुदाय समय–समय पर कवि सम्मेलन, भाषण प्रतियोगिता, वाद विवाद प्रतियोगिता, अन्तर्विद्यालयीन क्विज प्रतियोगिता आदि का आयोजन करता है । ऐसी मानसिक क्षमताओं का विकास करने वाली समुदाय की गतिविधियों में समावेशी विद्यालय के सामान्य तथा शारीरिक मानसिक रूप से बाधित बालकों को सहभागी करना चाहिए। इससे बालकों के मानसिक विकास को दिशा मिलती है।

(6) व्यावसायिक विकास– समुदाय का प्रभाव विद्यालय के बालक के व्यावसायिक विकास पर भी पड़ता है । बालक यह देखता है कि समुदाय के विभिन्न लोग किस–किस व्यवसायों से जीवनयापन करते हैं। इससे बालकों में व्यवसाय तथा धनोपार्जन करने की रुचि उत्पन्न होती है । समावेशी विद्यालयों में अध्ययनरत, दृष्टिबाधित, वाणिबाधित, श्रवण बाधित, अस्थि बाधित तथा मंदबुद्धि के बालकों के सामने भविष्य में आजीविका या जीवन यापन के साधन की समस्या उत्पन्न होगी। इसे दृष्टिगत रखते हुए तथा बालकों की शारीरिक, मानसिक क्षमताओं तथा रुचि को देखते हुए उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए । इस प्रकार समुदाय की विविध व्यवसायों के संचालन की प्रकृति समावेशी शिक्षा हेतु लाभदायक है ।

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