पाठ्यक्रम, निर्माण के मुख्य सिद्धान्तों की सविस्तार चर्चा कीजिए।

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पाठ्यचर्या निर्माण के सिद्धान्त

पाठ्यचर्या का निर्माण सरल नहीं होता है । यह अत्यन्त जटिल और कठिन प्रक्रिया है। इसके लिए प्रयत्न,लगाव, अभ्यास, विचार–विमर्श और नियोजन की आवश्यकता पड़ती है।

पाठ्यचर्या की योजना तैयार करना, पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन और पाठ्यचर्या का मूल्यांकन । पाठ्यचर्या की योजना बनाते समय शिक्षा के उद्देश्यों, दार्शनिक सिद्धान्तों और सामाजिक दर्शन को ध्यान में रखा जाता है। पाठ्यचर्या का क्रियान्वयन पाठ्य–पुस्तकों और पाठ्य–सामग्री के चयन और रचना से सम्बन्धित है । पाठ्यचर्या का मूल्यांकन यह दर्शाता है कि क्या यह बच्चों को वह सब बताने में समर्थ है जिसके लिए इसका निर्माण किया गया है । पाठ्यचर्या निर्माण के उक्त तीनों स्तर संकेत देते हैं कि उसका निर्माण कुछ सिद्धान्तों और नियमों के आधार पर ही सम्भव है। पाठ्यचर्या निर्माण के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं–

(1) मानव जाति के अनुभवों का सिद्धान्त– शिक्षा के द्वारा बालक अपने पूर्वजों के अनुभव से लाभ उठाना सीखता है। अतः शिक्षा की पाठ्यचर्या का मानव जाति के संग्रहित अनुभवों से अविच्छिन्न सम्बन्ध होना चाहिए । इसका निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इसमें ऐसे विषय, क्रियायें और अनुभव सम्मिलित किये जाने चाहिये जो उनके पूर्वजों की सांस्कृतिक धरोहर से सम्बन्धित हों। अपने पूर्वजों के अनुभवों और ज्ञान का लाभ उठाकर विद्यार्थी सच्चे मानव बनेंगे।

(2) जीवनोपयोगी होने का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या में केवल प्राचीन अनुभवों और घटनाओं का संग्रह नहीं होना चाहिए। अपितु इसमें ऐसी क्रियाओं, अनुभवों और बातों को सम्मिलित करना चाहिए जो विद्यार्थियों के वर्तमान और भावी जीवन से सफल बना सके।

रायबर्न का कथन है, बालक कुछ विद्यालय में सीखता है उसके द्वारा उसमें ऐसी योग्यता आनी चाहिए कि वह जीवन की परिस्थितियों से अनुकूलन करे और आवश्यकता पड़ने पर परिस्थितियों में परिवर्तन ला सके।

अत: पाठ्यचर्या के विषयों जैसे गणित, विज्ञान, साहित्य आदि के द्वारा उनकी तर्क विश्लेषण–संश्लेषण की क्षमता, समस्या–समाधान की योग्यता विकसित की जाये जिससे आगे चलकर अपनी समस्याओं का समाधान कर सकें।

(3) व्यक्तिगत भिन्नता, रूचि, योग्यता व आवश्यकता का सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का तात्पर्य है कि पाठ्यचर्या का निर्माण मनोविज्ञान के ज्ञान पर आधारित होना चाहिए। पाठ्यचर्या की रचना के समय विद्यार्थियों की आयु वर्ग, रुचियों, अभिक्षमताओं, योग्यताओं, रुचियों का ध्यान रखा जाना आवश्यक है। पाठ्यचर्या वैविध्यपूर्ण हो जिसमें व्यक्तिगत भिन्नता की मांग पूर्ण हो सके। अरुचिकर पाठ्यचर्या को कक्षा में सिखाना कठिन और अनुपयोगी होता है । पाठ्यचर्या विशेष आयु वर्ग की आवश्यकताओं को पूर्ण करता हो तथा बच्चों के वर्तमान जीवन से सम्बन्धित होना चाहिए।

(4) गतिशील और लचीलेपन का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या को कठोर, अनम्य और गतिहीन होना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर उसमें आवश्यक संशोधन परिवर्तन की गुंजाइश होनी चाहिए जिससे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल बन सके। परिवर्तन जीवन का नियम है । अत: पाठ्यचर्या को बदलती परिस्थितियों और मांग के अनुसार लचीला और नम्र होना चाहिए।

(5) रचनात्मकता का सिद्धान्त– विद्यार्थियों को पढ़ाई के साथ कुछ क्रियाओं, हस्तकलाओं और कक्षाओं के माध्यम से कुछ बनाने, रचने और अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर मिलना चाहिये । रचना का अपना आनन्द होता है जो जीवन में उत्सुकता, उमंग और रस पैदा करता है । अत: पाठ्यचर्या की रचना करते समय रचनात्मकता के सिद्धान्त पर ध्यान देना चाहिये । इसमें ऐसे विषयों को स्थान मिले जिसमें विद्यार्थियों को अपने को अभिव्यक्त करने, सृजन करने का अवसर मिले। पाठ्यचर्या के रचनात्मक कार्य उसे जीवन, गतिशील और आनन्ददायक बनाते हैं।

(6) सुसम्बद्धता का सिद्धान्त– इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि शिक्षा के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रमों के साथ समन्वय और क्रमबद्धता होनी चाहिये । उदाहरणस्वरूप प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की पाठ्यचर्या में सुसम्बद्धता हो जिससे एक स्तर से दूसरे स्तर पर आने पर छात्रों को अन्तराल या खालीपन व अनुभव हो और वे बिना कठिनाई या असुविधा के अगली कक्षा की पाठ्यचर्या सीखने में सफल हो सकें।

(7) सह–सम्बन्ध का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या की सुसम्बद्धता का सिद्धान्त यहाँ इस बात पर बल देता है कि सभी शैक्षिक स्तरों की पाठ्यचर्या परस्पर सम्बद्ध हो वहीं सह–सम्बन्ध का सिद्धान्त इस बात पर भी बल देता है कि एक स्तर के पाठ्यचर्या के सभी विषय परस्पर सम्बद्ध होने चाहिए। यह सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि ज्ञान टुकड़ों–टुकड़ों में न होकर एक इकाई के रूप में होता है केवल अध्ययन की सुविधा के लिए उसे कुछ विषयों में विभक्त कर दिया जाता है। सभी विषयों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करके विद्यार्थियों को सहझाया जा सकता है कि ज्ञान इकाई के रूप में होता है।

(8) अवकाश के समय के सदुपयोग का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या में ज्ञान और विज्ञान के अतिरिक्त कुछ मनोरंजक क्रियाओं, अभिरुचियों (हावी) को सम्मिलित कर लेने से यह बोझिल और उबाऊ नहीं होता है । विद्यार्थी अपनी रुचि और पसन्द के अनुसार किसी कला, हस्तकार्य, संगीत, समाज सेवा आदि में व्यस्त होकर अपने खाली समय का सदुपयोग करना सीखते हैं। अतः पाठ्यचर्या में छात्रों के खाली समय का सदुपयोग करने के लिए प्रबन्ध होना चाहिए।

(9) सामाजिकता का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय कुछ ऐसी क्रियायें, अनुभव और विषय सम्मिलित करने चाहिए जिससे बालकों में सामाजिक, नागरिक गुणों और राष्ट्रीयता की भावना विकसित हो सके। समाज की आवश्यकताओं का भी ध्यान पाठ्यचर्या निर्माण में रखना आवश्यक है।

(10) समुचित अवधि का सिद्धान्त– किसी कक्षा की पाठ्यचर्या के सिखाने की अवधि का निर्धारण सोचकर तथा परीक्षण करके करना ठीक होता है । क्योंकि पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन के लिए आवश्यकता से अधिक या कम समय देने से छात्रों का विकास बाधित होता है । आवश्यकता से कम समय देने पर पाठ्यचर्या पूरा करने की त्वरा में प्राय: छात्र पूरी तरह सीख नहीं पाते हैं अधिक समयावधि देने पर उनकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है। अत: पाठ्यचर्या लागू करने के पूर्व परीक्षण करके यह देख लेना चाहिए कि किसी स्तर के बालकों को उसे सिखाने व सीखने के लिए कितना समय निर्धारित करना उपयुक्त होगा।

(11) सदाचण प्राप्ति का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या में नैतिक आचरण, सद्व्यवहार, शिष्टाचार की बातों और नियमों को स्थान देना चाहिये जिससे बच्चों में अच्छी आदतें और नैतिकता का विकास हो सके और वे सदाचरण करना सीखें । क्रो और क्रो महोदय का ऐसा ही अभिमत है।

(12) कौतूहल एवं सामान्यीकरण का सिद्धान्त– पाठ्यचर्या निर्धारण में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह सीखने वाले की जिज्ञासा को शांत कर सकें। विभिन्न उदाहरण, तर्क और तथ्यों के द्वारा विद्यार्थी को समझना चाहिए, उसके विशिष्ट अनुभव की पुष्टि अन्य लोगों तथा परिस्थितियों से प्राप्त मिलते–जुलते अनुभवों और दृष्टान्तों से किया जाये जिससे विद्यार्थियों के विशिष्ट अनुभव विशिष्ट न रहकर, सामान्य अनुभव बन जायें, ऐसी व्यवस्था पाठ्यचर्या में होनी चाहिए।

पाठ्यचर्या निर्माण के इस सिद्धान्त के प्रतिपादक हाइटहेड महोदय हैं । उनके अनुसार कौतूहल यथार्थता और सामान्यीकरण परस्पर सम्बन्ध विधायें हैं, अतः इन तीनों का पाठ्यचर्या में समावेश होना चाहिए।

(13) विचार सहमति का सिद्धान्त– इस सिद्धान्त के प्रतिपादक बॉड महोदय हैं उनके अनुसार जब इस बात में मतैक्य न हो कि पाठ्यचर्या से किस चीज को स्थान मिले या किसी समस्या के हल में मत वैभिन्य हो तो ऐसी स्थिति में पहले विशेषज्ञों की राय ले लेनी चाहिये फिर जिस बात या निर्णय को अधिकांश विशेषज्ञ स्वीकार करें उसी की पाठ्यचर्या में स्थान देना चाहिये।

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