भारत में विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा की प्रकृति स्पष्ट कीजिए।

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विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों को हम विशिष्ट बालक कह सकते हैं जिसे परिभाषित करते एस.ए. किर्क ने लिखा है, “एक विशिष्ट बालक वह है जो शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं में किसी सामान्य बालक से उस सीमा तक भिन्न (अलग) होता है जब वह अपनी क्षमताओं के अधिकतम विकास हेतु सहायता, दिर्नेशन, विद्यालय कार्यक्रमों में परिमार्जन तथा विशिष्ट शैक्षिक सेवाओं की आवश्यकता रखता है।” यह परिभाषा यह स्पष्ट संकेत देती है कि विशेष बालकों की आवश्यकता भी भिन्न होती है।

हीवर्ड के शब्दों में, “विशिष्ट बालकों की श्रेणी में वे बालक आते हैं जिन्हें सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है या जिनका मानसिक या शैक्षिक निष्पादन या सूजन उच्च कोटि का होता है या जिनको व्यावहारिक, सांवेगिक एवं सामाजिक समस्याएं घेर लेती हैं या वे विभिन्न शारीरिक अपंगताओं या निर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं जिनके कारण ही उनके लिए अलग प्रकार से विशिष्ट प्रकार की शिक्षा व्यवस्था करनी होती है।” इस परिभाषा के अनुसार शारीरिक रूप से सक्षम,प्रतिभाशाली, सृजनशील, मंदबुद्धि, अधिगम बाधित, दृष्टिहीन, श्रवण बाधित आदि श्रेणी के बालक विशिष्ट बालकों के प्रकार में आते हैं। इन विशिष्ट बालकों की विशेष आवश्यकताओं को चिन्हित कर उनके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था अपेक्षित होती है।

विशिष्ट बालकों की शिक्षा की प्रकृति को हम निम्नलिखित दो प्रकारों में विभाजित कर सकते हैं–

(अ) विशिष्ट बालकों के लिए विशेष विद्यालयों में विशेष शिक्षा

(ब) समावेशी विद्यालयों में विशेष बालकों हेतु विशेष शिक्षा

(अ) विशेष विद्यालय– विशेष बालकों की असमर्थता की जाँच में जब यह पाया जाता है कि वे इतने अधिक बाधिता से ग्रसित हैं कि उन्हें सामान्य बालकों के साथ शिक्षित नहीं किया जा सकता और उनके लिए पृथक विशेष विद्यालय में प्रवेश दिलाया जाना आवश्यक है जहाँ उनकी विशेष पाठ्यक्रम, विशेष शिक्षण विधियों से शिक्षा हो सके तो वे बालक इस विशेष श्रेणी में परिगणित किये जाते हैं। पूरी तरह दृष्टिहीन या पूर्ण अंधे बालक को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा नहीं दी जा सकती अत: उनके लिए अंध विद्यालयों में बेल लिपि में बनाई गई पाठय पुस्तकों से अध्ययन की व्यवस्था होती है। इसी प्रकार पूर्णतः बधिर व्यक्ति जो श्रवणयंत्र की सहायता से भी शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता उसे मूक बधिर विद्यालयों में प्रवेश दिलाया जाता है जहाँ विशेष रूप से प्रशिक्षित शिक्षक संकेत भाषा, चिह्न भाषा, ओष्ठ भाषा से संप्रेषण कर ऐसे बालकों को शिक्षित करते हैं। इसी प्रकार मंद बुद्धि बालकों के लिए अलग विशेष विद्यालय होते हैं जहाँ उनकी बुद्धि क्षमता के अनुसार शिक्षा दी जाती है । ऐसे बालकों के लिए भी प्रशिक्षित शिक्षकों, विशेष पाठ्यक्रम तथा विशेष प्रकार की पाठ्यपुस्तकों की आवश्यकता होती है।

भारत में विशेष विद्यालयीन शिक्षा की प्रकृति इस प्रकार है–

(i) पृथक्कीरण– पूर्ण बाधित या अक्षम बालकों के लिए पृथक विद्यालयों की स्थापना का प्रावधान निशक्त व्यक्ति (समान अधिकार, अधिकार संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) अधिनियम 1995 (जो भारत में 1 जनवरी 1996 से प्रभावशील है) को धारा 27 ‘घ’ में भी है। जिसमें उल्लेख है कि समुचित सरकारें और स्थानीय प्राधिकारी निःशक्त बालकों के लिए विशेष विद्यालयों को व्यावसायिक प्रशिक्षण सुविधाओं से सुसज्जित करने का प्रयास करेंगे। धारा 27 ‘ग’ के अनुसार उनके लिए जिन्हें विशेष शिक्षा की आवश्यकता है, सरकारी और प्राइवेट सेक्टर में विशेष विद्यालयों की स्थापना में ऐसी रीति से अभिवृद्धि करेंगे कि जिससे देश के किसी भी भाग में रहे निःशक्त बालकों की ऐसे विद्यालयों तक पहुँच हो।

पृथक विद्यालयों में समावेशी व सामान्य विद्यालयों के समान सामान्य बालकों व विशेष बालकों का एकीकरण का प्रयास नहीं होता बल्कि अधिक बाधित या पूर्ण बाधितों के लिए अलग से स्कूलों की स्थापना होती है जहाँ अंध, मूक, बधिर, मानसिक मंदिता के शिकार, अपंग (लंगड़े लूले) बालकों की विशेष आवश्यकताओं की पहचान कर प्रशिक्षित शिक्षक, स्त्रात शिक्षक, स्रोत सामग्री, अधोसंरचनागत विकास, विशिष्ट पाठ्यक्रम व विशिष्ट शिक्षण विधिया तथा मूल्यांकन विधियों के द्वारा ऐसे विशेष बालकों को शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा दी जाती है |

पृथक्करण के सिद्धान्त पर आधारित इन विशेष विद्यालयों में बाधित बालकों को समावेशी विद्यालय के सामाजिक शैक्षिक अलगाव का सामना नहीं करना पड़ता तथा अपने समान सभी छात्रों के साथ शिक्षा प्राप्त करने में सहजता का अनुभव करते हैं। सामान्य शिक्षक पूर्णत: या 80 प्रतिशत से अधिक बाधित बालकों को शिक्षा देने में असमर्थ रहते हैं अतः ऐसे बालकों के लिए पृथक विद्यालय ही उपयुक्त होते हैं।

भारत में केन्द्र व राज्य सरकारों तथा अनुदान प्राप्त गैर सरकारी संगठनों द्वारा ऐसे पृथक विद्यालय प्रायः नगरों, महानगरों में संचालित हैं।

(2) पृथक शैक्षिक व्यवस्था– राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में निःशक्तजनों की शैक्षिक व्यवस्था विकसित करने हेतु निम्न प्रावधान थे–

(1) जिला मुख्यालयों पर अनेक प्रकार के विकलांगों के लिए विशेष विद्यालय तथा छात्रावास खोले जायें,

(2) विकलांगों को व्यावसायिक शिक्षा देने हेतु बाधित प्रबंध किये जायें,

(3) विकलांग बच्चों की शिक्षा के लिए प्राथमिक स्तर पर विशेष शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया जाये,

(4) विकलांगों की शिक्षा के लिए स्वैच्छिक प्रयासों को बढ़ावा दिया जाये।।

निःशक्तजन अधिनियम,1995 में भी अक्षम व्यक्तियों के लिए निम्नानुसार पृथक शैक्षिक व्यवस्था का प्रावधान है–

(i) शारीरिक रूप से अक्षम छात्रों के लिए पृथक विद्यालयों की व्यवस्था की जाये, जिससे उनके अनुकूल वातावरण तैयार किया जा सके

(ii) इनके महाविद्यालयों में रैंप की व्यवस्था की जाये, जिससे पैरों से विकलांग छात्रों की ट्रायसिकल विद्यालय के अंदर तक प्रवेश कर सके

(iii) इन छात्रों को पृथक शिक्षण विधियों से शिक्षण कराया जाए जिससे इनके अधिगम स्तर को उच्च बनाया जा सके

(iv) इन विद्यालयों के शिक्षकों को पृथक रूप से प्रशिक्षित किया जाये जिससे शिक्षण में गुणवत्ता लाई जा सके

(v) इन विद्यालयों की संरचना भी शारीरिक रूप से अक्षम छात्रों के अनुरूप होनी चाहिए जिससे इनको असुविधा न हो

(vi) इन विद्यालयों में शारीरिक अक्षमता के अनुसार उपकरणों की व्यवस्था हो, जिससे अक्षम छात्रों की शिक्षण व्यवस्था में रुचि उत्पन्न हो सके।

(3) अक्षम छात्रों का शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, सामाजिक विकास– शैक्षिक विकास के अतिरिक्त इन विशिष्ट विद्यालयों में नि:शक्त छात्रों के सर्वांगीण विकास अर्थात् शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक विकास पर भी ध्यान दिया जाता है जो विशेष प्रकार के बालकों की विशेष आवश्यकताओं के अनुरूप होता है। छात्रों का नियमित स्वास्थ्य परीक्षण, चिकित्सकों द्वारा निःशुल्क स्वास्थ्य सुविधाएं, आवश्यक होने पर उपकरणों का प्रदाय औषधियों का प्रदाय, पाठ्य सहगामी क्रियाओं में सहभागिता, मिल– जुलकर कार्य करने से सामाजिक विकास तथा मनोचिकित्सक या परामर्शदाता द्वारा छात्रों की कुंठा, दिवास्वप्नी होगा असामाजिक होना, डिप्रेशन में आना आदि समस्याओं का निराकरण भी विशेष विद्यालय में होता है।

(4) अधोसंरचनात्मक तथा संसाधनात्मक सुविधाओं का विकास– विशेष विद्यालय के भवन की निर्माण संबंधी विशेषताएं, अपंग छात्रों हेतु रैंप निर्माण, स्रोत कक्षों की साज सज्जा, पुस्तकालय, ब्रेल लिपि में पुस्तकें, संसाधनों उपकरणों का बाहुल्य, दृश्य– श्रव्य सामग्री युक्त कक्षाएं, स्वच्छ शौचालय,शुद्ध पेयजल, मंदबुद्धि बालकों हेतु खिलौनों के रूप में शिक्षण सामग्री, उपयुक्त फर्नीचर, क्लीनिक या चिकित्सा कक्ष, कम्प्यूटर कक्ष, शिक्षण उपकरण, सहायक शिक्षण सामग्री इत्यादि अधोसंरचनात्मक व संसाधनात्मक सुविधाएं जो विशेष बालकों की आवश्यकताओं के अनुरूप हों विशेष विद्यालय की प्रकृति में सम्मिलित हैं।

(5) विशिष्ट शिक्षण प्रविधियाँ, विशिष्ट पाठ्यक्रम, विशेष प्रशिक्षित शिक्षक– विशिष्ट बालकों हेतु निर्मित विशेष विद्यालयों में विभिन्न प्रकार या श्रेणी के बाधितों हेतु आवश्यक विशिष्ट पाठ्यक्रम, विशिष्ट पाठ्यक्रमेत्तर गतिविधियाँ, विशिष्ट आधुनिक मनोवैज्ञानिक क्रियाशील शिक्षण प्रविधियाँ तथा उन्हें पढ़ाने वाले विशेष प्रशिक्षित शिक्षक होने चाहिए । वीडियो टेप, टी.वी., स्मार्ट विजुअल क्लास, ओवरहेड प्रोजेक्टर, कम्प्यूटर, टेबलेट, फिल्म आदि शैक्षिक सामग्रियाँ भी इन विद्यालयों में आवश्यक हैं।

(6) विशिष्ट व्यावसायिक शिक्षा तथा पुनर्वास सुविधाएं– राष्ट्रीय शिक्षा नीति में विकलांगों (जिनमें अस्थि बाधित, दृष्टि बाधित, श्रवण बाधित, वाणि बाधित, मंद बुद्धि आदि सम्मिलित हैं) के लिए व्यावसायिक शिक्षण को भी सामान्य शिक्षा के साथ आवश्यक बताया है। इसकी पृष्ठभूमि में यह तथ्य छिपा है कि पढ़ लिख जाने के बाद विकलांगों को किसी व्यवसाय या नौकरी से जीवन यापन करना आवश्यक होता है ताकि वे अपनी आजीविका की समस्या का हल पा सकें । विशेष विद्यालयों में बाधित बालकों की प्रकृति व क्षमता को देखते हए उन्हें कई प्रकार की व्यावसायिक शिक्षा दी जाती है जैसे संगीत.टाइप राइटिंग कताई– बनाई. पाक़ विद्या, बिजली का काम, लाइब्रेरियन का नाम इत्यादि । व्यावसायिक प्रशिक्षण से वे भविष्य में पढ़ लिख कर नौकरी पाने या स्वरोजगार स्थापित करने में समर्थ हो सकेंगे।

(7) आवासीय विद्यालय– विशिष्ट बालकों के लिए प्राचीनतम शिक्षा व्यवस्था की प्रकृति छात्रावासी विद्यालयों के रूप में थी जो आज भी अनेक अंध, मूक, बधिर, मंदबुद्धि विद्यालयों में है। छात्रावास में रहने से विभिन्न श्रेणियों के छात्रों में अपनत्व, भाईचारा, दूसरे की सहायता करने की भावना उत्पन्न होती है । छात्रावास में रहकर उनमें आत्मनिर्भरता का गुण भी उत्पन्न होता है तथा भोजन आवास आदि समस्या से मुक्त होकर ऐसे बाधित व्यक्ति शिक्षा हेतु समीप स्थित विद्यालय में जाकर शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

(ब) समावेशी विद्यालय– समावेशी विद्यालय बाधित तथा विशिष्ट बालकों के लिए स्थापित विशेष विद्यालयों से इस रूप में भिन्न होते हैं कि समावेशी विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ विशेष ऐसें बालकों को प्रवेश दिया जाता है जो पूर्णतः अंधे, बधिर, अपंग, मंदबुद्धि न होकर कम मात्रा या परिमाण में अक्षम होते हैं तथा अन्य सामान्य बालकों के साथ समायोजित हो जाते हैं। यद्यपि उनके लिए विशेष कक्षा, विशेष स्रोत शिक्षक, विशेष शिक्षण विधियों की आवश्यकता पड़ती है। विशेष विद्यालय बाधित बालकों के ग्राम या नगर से दूर केन्द्रित नगरों में स्थापित होते हैं जहाँ जाकर अध्ययन करने में बाधित वर्ग के बालकों को यातायात, आर्थिक व्यय,शारीरिक अक्षमता आदि की समस्या आती है तथा उनके निवास स्थान के निकट विद्यालयों में ऐसे बालकों को सामान्य बालकों के साथ समायोजित किया जाता है। इससे वे समाज के मुख्य धारा के निकट आते हैं तथा पृथक्करण के स्थान पर एकीकरण के सिद्धान्त पर शिक्षा अर्जित कर सकते हैं।

भारत में विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा में समावेशी शिक्षा की प्रकृति इन तथ्यों से स्पष्ट है–

(1) शिक्षा व्यवस्था में सामान्य एवं अक्षम छात्रों को एक साथ शिक्षित किया जाता है। पृथक्करण के स्थान पर एकीकरण के सिद्धान्त को अपनाया जाता है।

(2) इसमें विशेष आवश्यकता वाले बालकों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के प्रयास होते हैं। वांग के अनुसार, “मुख्य धारा से अभिप्राय सामान्य और विशिष्ट बालकों का एक विद्यालय के पर्यावरण से है जहाँ सभी बालक सीखने हेतु समान साधनों एवं अवसरों का उपयोग करने में हर समय समान रूप से भागीदार होते हैं।”

(3) यह शिक्षा समावेश के सिद्धान्त पर आधारित है। इसमें बिना किसी अपंगता या विशिष्टता का भाव लिए विशेष आवश्यकता वाले बालक सामान्य बालकों के साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं।

(4) विशेष विद्यालयों की प्रकृति महँगी है परन्तु समावेशी शिक्षा सस्ती व सुलभ है |

(5) समावेशी शिक्षा में विशेष आवश्यकता वाले बालक तथा सामान्य बालकों की सहभागिता व साझेदारी होने से सामाजिक गुण, टीम भावना, भाईचारा पनपता है। परस्पर सहयोग की भावना भी विकसित होती है।

(6) यह शिक्षा भेदभाव रहित होने से पृथकता की शिक्षा की विरोधी है।

(7) इस समावेशी शिक्षा से विशिष्ट बालकों में आत्मविश्वास विकसित होता है।

(8) भारत में विशेष विद्यालय कम स्थापित हैं अतः समावेशी शिक्षा भारतीय परिस्थिति के अनुकूल होने के साथ– साथ सबके लिए शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त करने में सहायक है।

(9) इसमें शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर विभिन्न बाधित बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं को समझकर उसके अनुसार शिक्षा देते हैं।

(10) विद्यालय की अधोसंरचना व संसाधनों में सामान्य बदलाव कर विद्यालय को समावेशी विद्यालय बनाया जा सकता है।

(11) समावेशी विद्यालयों में भी विशिष्ट बालकों हेतु उनकी क्षमताओं के अनुसार शिक्षण देने में शिक्षण तकनीक, लोचदार पाठ्यक्रम, प्रशिक्षित शिक्षक तथा विशिष्ट पाठ्य सहगामी क्रियाओं व विशेष कक्षाओं की आवश्यकतानुसार जरूरत होती है ताकि बाधित बालकों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार । शिक्षित किया जा सके । सामान्य बालकों हेतु दृश्य– श्रव्य साधन, अद्यतन शिक्षण विधियाँ विशेष बालकों हेतु भी उपयोगी सिद्ध होती है।

(12) सर्वांगीण विकास (शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक) सामान्य व विशिष्ट दोनों प्रकार के छात्रों हेतु आवश्यक है जो समावेशी विद्यालय में थोड़े बहुत बदलाव के प्रयासों से अर्जित किया जा सकता है।

(13) गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सामान्य व बाधित दोनों प्रकार के छात्रों के लिए उपयोगी है। इसी प्रकार व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दोनों प्रकार के छात्रों हेतु उपयोगी है। इसे समावेशी विद्यालयों में पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जा सकता है।

(14) सामान्य विद्यालयों या कक्षाओं में पढ़ रहे बाधित बालकों हेतु अतिरिक्त कक्षा की व्यवस्था होने से मंदबुद्धि, अधिगम बाधित व अन्य श्रेणी के बाधित बालकों को सामान्य बालकों के साथ उनके स्तर तक समायोजित किया जा सकता है।

(15) निदेशन व परामर्श बाधित बालकों के लिए समावेशी विद्यालयों में आवश्यक है तथा इससे सामान्य बालक भी लाभान्वित हो सकते हैं।

(16) समावेशी विद्यालय में मूल्यांकन का विशेष महत्त्व बाधित बालकों के लिए है क्योंकि मूल्यांकन से प्राप्त परिणामों के आधार पर विशेष बालकों की वैयक्तिक कमियों की पहचान कर उसके अनुरूप शिक्षण देने में शिक्षक को सहायता मिलती है। बेशक मूल्यांकन व्यवस्था अन्य सामान्य बालकों के लिए भी उपयोगी है। सतत तथा समग्र मूल्यांकन की व्यवस्था समावेशी विद्यालयों हेतु आवश्यक है।

(17) खेलकूद, पाठ्यसहगामी क्रियाएं विशिष्ट तथा सामान्य बालकों के विकास हेतु उपयोगी है। शैक्षिक यात्राएं भी समावेशी विद्यालयों की प्रकृति में सम्मिलित होनी चाहिए इससे विशिष्ट बालकों को बाहर की दुनिया का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है।

भारत में अन्य कई देशों के समान बाधित बालकों को अलग कर विशेष संस्थाओं में रखा जाता है। परन्तु शिक्षा की दृष्टि से उन्नत देशों में अब विशिष्ट बाधित बालकों को नियमित समेकित शालाओं में प्रवेश दिलया जा रहा है इससे दोहरे लाभ हैं एक तो समावेशी शिक्षा मितव्ययी व सुलभ है दूसरे इसमें तथा सामान्य बच्चों में परस्पर एक दूसरे को समझने व सद्भाव में वृद्धि होती है। शत प्रतिशत विकलांगता से ग्रसित बालकों को समावेशी शालाओं में प्रवेश से उनकी समुचित शिक्षा व्यवस्था में कठिनाई आएगी अतः ऐसे विकलांग बालकों हेतु विशेष विद्यालय में शिक्षा दिलाया जाना उचित है।


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