लघु उत्तर दीजिए–

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(अ) समावेशी शिक्षा के संप्रत्यय को स्पष्ट कीजिए ।

(ब) समावेशी शिक्षा की विशेषताएं बताइए।

(स) समावेशी शिक्षा के दार्शनिक सिद्धान्त बताइए।

(द) समावेशी शिक्षा के प्रतिरूपों (माडल्स) कौनसे हैं ? उनका दार्शनिक आधार क्या है ?

(अ) समावेशी शिक्षा का संप्रत्यय

समावेशी शिक्षा से तात्पर्य उस शिक्षा व्यवस्था से है जिसमें सामान्य छात्र तथा ‘बाधित– अक्षम– अपंग छात्र’ एक साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं। समावेशी शिक्षा शारीरिक तथा मानसिक रूप से निःशक्त छात्रों को सामान्य कक्षाओं में सामान्य बालकों के साथ शिक्षा देने के साथ ही विशिष्ट बालकों की विशेष आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षित कर मुख्य धारा में एकीकृत करने में सहायता देती है। यह शिक्षा व्यवस्था इस दर्शन पर आधारित है कि अपंग विशिष्ट छात्र यद्यपि सामान्य बालकों से भिन्न होता है तथापि उसे उचित प्रयासों के साथ सामान्य बालकों के साथ शिक्षित करना लाभप्रद है।

अपंग बालकों को विशिष्ट विद्यालयों में विशिष्ट शिक्षा दी जाए या उन्हें सामान्य बालकों के साथ समावेशी शिक्षा दी जाए यह विचारधारा विशिष्ट विद्यालयों तथा समावेशी विद्यालयों की लाभ व हानियों से जुड़ा विषय है । वास्तव में पूरी तरह दृष्टिहीन, पूर्ण बधिर, गूंगे तथा गंभीर स्वरूप में मंदबुद्धि बालक व शारीरिक रूप से अधिक अपंग है उनके लिए सामान्य विद्यालयों में शिक्षा की व्यवस्था इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि इससे बहुसंख्यक सामान्य छात्रों की शैक्षणिक गतिविधियाँ कुप्रभावित हो सकती हैं। इसलिए ऐसे अति अपंग बालकों के लिए अंध– मूक– बधिर विद्यालय या मानसिक रूप से मंद बालकों के लिए विद्यालय खोले जाकर उन्हें ब्रेललिपि, संकेत लिपि, ओष्ठ पठन, चिन्ह भाषा, खिलौने से खेलकर शिक्षित करने जैसी विशिष्ट शिक्षण पद्धतियों से शिक्षित किया जाता है । परन्तु विशिष्ट विद्यालयों का एक दोष ये भी है कि अलगाव, असामाजिक परिवेश आदि के कारण इनमें पढ़ने वाले विद्यार्थी समाज की मुख्य धारा से कट जाते हैं। अतः ऐसे विशिष्ट विद्यालयों में सामान्य किस्म की अपंगता के शिकार बालकों को पढ़ाने के स्थान पर उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने वाले एकीकरण का प्रयास करने वाले समावेशी– विद्यालयों में उनकी विशेष आवश्यकताओं की पहचानकर उसके अनुरूप शिक्षित करना अधिक लाभप्रद है ।

समावेशी विद्यालय का संप्रत्यय इन विद्वानों की परिभाषाओं से स्पष्ट होता है–

(1) उप्पल तथा डे के अनुसार, “सामान्य बालकों तथा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक आवश्यकताओं के संक्रमण और मेल को समावेशी शिक्षा के नाम से अभिहित किया गया है ताकि सभी बच्चों के लिए सामान्य विद्यालयों में शिक्षा देने हेतु एक ही पाठ्यक्रम हो। यह एक लचीली तथा व्यक्तिगत रूप से विशिष्ट बच्चों और नवयुवकों की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहायक प्रणाली है। यह समग्र शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न घटक है जो सामान्य स्कूलों में सबके लिए उपयुक्त शिक्षा के रूप में प्रदान किया जाता है।”

(2) स्टेनबैक एवं स्टेनबैक– “समावेशी विद्यालय अथवा पर्यावरण से अभिप्राय ऐसे स्थान से है जिसका प्रत्येक व्यक्ति अपने को सदस्य मानता है, जिसको अपना समझा जाता है, जो अपने साथियों और विद्यालय कदम्ब के प्रत्येक सदस्य की सहायता करता है और अपनी शिक्षा प्राप्ति संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उनसे सहायता प्राप्त करता है।”

(3) एम. मैनीवन्नान– “समावेशी शिक्षा उस नीति तथा प्रक्रिया का परिपालन है जो सब बच्चों को सभी कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए अनुमति देती है । नीति से तात्पर्य है कि अपंग बालकों को बिना किसी अवरोध के सामान्य बालकों के सभी शैक्षिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए स्वीकृति प्रदान करे। समावेशी प्रणाली से अभिप्राय पद्धति के उन साधनों से है जो इस प्रक्रिया को सबके लिए सुखद बनाए । समावेश शिक्षा क्षतियुक्त बालकों के लिए सामान्य शिक्षा के अभिन्न अंग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह सामान्य शिक्षा के भीतर अलग से कोई प्रणाली नहीं है।”

(4) माइकल एक जियान ग्रैको– “समावेशी शिक्षा से अभिप्राय उन मूल्यों, सिद्धान्तों और प्रथाओं के समूह से है जो सभी विद्यार्थियों को, चाहे वे विशिष्ट हैं अथवा नहीं,प्रभावकारी और सार्थक शिक्षा देने पर बल देते हैं।”

(5) अडवानी तथा चड्ढा– “समावेशित शिक्षा का उद्देश्य एक सहायक तथा अनुकूल पर्यावरण की रचना करना है ताकि सभी को पूर्ण प्रतिभागिता के लिए समान अवसर प्राप्त हो सकें और इस तरह से विशेष आवश्यकता वाले बालक शिक्षा की मुख्य धारा के क्षेत्र में सम्मिलित हो सकें। यह विद्यार्थियों की विभिन्न आवश्यकताओं के महत्त्व को समझती है। यह उपयुक्त पाठ्यक्रम, शिक्षण युक्तियों, सहायक सेवाओं तथा समाज व माता– पिताओं के सहयोग के द्वारा सभी को समान शिक्षा प्रदान करने का विश्वास दिलाती है।” –

(6) प्रो. एस.के. दुबे– “समावेशी शिक्षा का आशय उस शिक्षा व्यवस्था से है जिसमें सामान्य एवं अक्षम छात्रों को एक साथ शिक्षण प्रदान करते हुए. उच्च अधिगम स्तर से संबंधित क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है तथा समुदाय, अभिभावक, शिक्षक एवं प्रशासक का सक्रिय सहयोग प्राप्त किया जाता है।”

उक्त परिभाषाएं समावेशन’ शब्द पर बल देती है । समावेशी शिक्षा का संप्रत्यय बिना ‘समावेशन’ के संप्रत्यय को समझे, स्पष्ट नहीं हो सकता। समावेशन का अर्थ समावेशित या अन्तर्विष्ट करना है अर्थात् विविधताओं को जोड़ना है। समावेशित शिक्षा सामान्य परिशिष्ट छात्रों को जोड़ने, अभिभावकों, समुदाय, शिक्षक, प्रशासकों को समावेशित करने, शिक्षण विधियों, पाठ्यचर्या, मूल्यांकन के समावेशन इत्यादि का दिया हुआ समुच्चय बोधक नाम है।

(ब) समावेशी शिक्षा की विशेषताएं

समावेशन के अर्थ तथा समावेशी शिक्षा की परिभाषाओं के विश्लेषण से इसकी निम्नलिखित विशेषताएं ज्ञात होती हैं–

(1) समावेशी शिक्षा को एक साधन के रूप में मान्य किया गया है जिसके माध्यम से अपंग व सामान्य विद्यार्थियों की अधिगम संबंधी आवश्यकताओं को समझा व पूर्ण करने के प्रयास किया जाता है।

(2) समावेशी शिक्षा के अंतर्गत सामान्य छात्रों की अपेक्षा अक्षमता से युक्त छात्रों की शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता है ताकि अक्षम छात्रों द्वारा भी सामान्य छात्रों की भाँति शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में भाग लिया जा सके।

(3) इस शिक्षा के अंतर्गत वंचित या लाभहीन उन बालकों की शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाता है जिन्हें अब तक शिक्षा के समानता के अवसर अनुपलब्ध रहे हैं ।

(4) समावेशी शिक्षा के अंतर्गत सामान्य व अक्षमता से युक्त दोनों प्रकार के छात्रों की सम्मिलित शिक्षा, पाठ्यसहगामी क्रियाएं, खेलकूद आदि आयोजित होते है |

(5) समावेशी शिक्षा की व्यवस्था में समुदाय, अभिभावक, स्कूल प्रशासक, शिक्षक तथा नीति निर्माताओं का पूर्ण सहयोग या समावेशन प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है । यह नीचे विस्तृत दायरे को स्पष्ट करने वाले चित्र से स्पष्ट है–

(6) समावेशी शिक्षा में प्रारंभिक स्तर से ही विभिन्न प्रकार की शैक्षिक सुविधाओं का संचालन इस प्रकार किया जाता है जिससे सामुदायिक सहभागिता हो । जैसे वार्षिकोत्सव का आयोजन, शाला में मध्याह्न भोजन कार्यक्रम, शैक्षणिक यात्राएं सामुदायिक कल्याणकारी कार्यों में छात्रों की सहभागिता, शिक्षक पालक संघ का आयोजन, अभिभावक दिवस का आयोजन इत्यादि।

(7) समावेशी शिक्षा में सामान्य विषयों की शिक्षा के साथ व्यावसायिक शिक्षा, शिक्षण के साथ मूल्यांकन, पाठ्यक्रम के लाभ पाठ्यसहगामी क्रियाओं का समायोजन भी होता है।

(8) समावेशी शिक्षा समावेश के सिद्धान्त पर आधारित है। अतः इस शिक्षा पद्धति में बालकों में भेदभाव का कोई स्थान प्राप्त नहीं है। इस शिक्षा में सभी प्रकार के सामान्य व बाधित बालकों का समुचित समावेश होता है।

(9) समावेशी शिक्षा के कारण ऐसे बाधित छात्र जो शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाने के कारण नौकरी व रोजगार न पाकर भिक्षा माँगने के लिए विवश हो जाते थे उन्हें घर के नजदीक की ही शाला में समावेशित कर सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा हो गई है।

(10) समावेशी शिक्षा अपंग बाधित बालकों को घर– ग्राम से दूर स्थित (प्रायः जिला मुख्यालयों में स्थित) विशेष अंध– मूक– बधिर या मंद बुद्धि विद्यालयों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने के स्थान पर घर के समीप स्थित समावेशी विद्यालय में अपनी ही उम्र के सामान्य विद्यार्थियों के साथ शिक्षा प्राप्त करने का अवसर देकर उन्हेंसमाज की मुख्यधारा में सम्मिलित करने का प्रयास करती है।

(11) समावेशी शिक्षा का उद्देश्य बालकों का सर्वांगीण विकास करने के साथ ही अपंग या नि:शक्त बालकों को आत्मविश्वासी व आत्मनिर्भर बनाना है।

(12) समावेशी शाला पृथक्करण के सिद्धान्त के विरुद्ध एकीकरण के सिद्धान्त पर आधारित है। यह निःशक्त व सामान्य छात्रों में भेदभाव की विरोधी तथा बाधित , विशिष्ट बालकों का समावेशित पर्यावरण उपलब्ध कराने पर आधारित है।

(13) किसी भी देश में निःशक्त जनों के लिए विशेष विद्यालय कम ही स्थापित होने से नि:शक्त बालकों का बहुल वर्ग इन शालाओं में प्रवेश पाने से वंचित रह जाता है। इसके अतिरिक्त ये विशेष विद्यालय इन बाधित बालकों को समाज की मुख्य धारा में समन्वित करने में असमर्थ रहते हैं। अत: समावेशी विद्यालय ‘सभी को शिक्षा प्राप्त कराने के सिद्धान्त’ को पूरा कर पाते हैं। यही बात सारे संसार के देशों के लिए यूनेस्को (UNESCO) ने कही है।

(स) समावेशी शिक्षा के दार्शनिक सिद्धान्त

दर्शन ‘सत्य की खोज’ को कहा गया है। हक्सले का मत है, “मनुष्य अपने जीवन दर्शन तथा संसार के विषय में अपनी– अपनी धारणाओं के अनुसार जीवन व्यतीत करते हैं। यह बात विचारहीन व्यक्तियों पर भी लागू होती है। बिना दर्शन के जीवन व्यतीत करना असंभव है।” शायनहावर ने संसार के प्रत्येक व्यक्ति को जन्मजात दार्शनिक कहा है । हैडरसन तथा उसके साथियों ने दर्जन का विशिष्ट रूप से अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है, “दर्शन ऐसी सबसे जटिल समस्याओं का कठिन, अनुशासित तथा सावधानी के साथ किया हुआ विश्लेषण है जिसका मानव ने कभी अनुभव किया हो।”

समावेशी शिक्षा के दर्शन में शिक्षा की समावेशित अवधारणा (कन्सेप्ट) अन्तर्निहित है जो इस शिक्षा व्यवस्था के गहन स्वरूप को स्पष्ट करती है । समावेशी शिक्षा के जो आधारभूत सिद्धान्त हैं जिन पर समावेशी शिक्षा का ढाँचा अवलंबित है उन्हें हम इस शिक्षा व्यवस्था के दार्शनिक सिद्धान्त कह सकते हैं। समावेशी शिक्षा के प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्त ये हैं –

(1) एकीकरण का सिद्धान्त – समावेशी शिक्षा दर्शन में एकीकरण का आशय विशेष, बालकों तथा सामान्य बालकों को एक करना’ है । एक करने से आशय है इनकी पृथक– पृथक शिक्षा व्यवस्था के स्थान पर समावेशी एकीकृत शिक्षा व्यवस्था लागू करना। इसे स्टेनबैक व स्टेनबैक ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, “समावेशित विद्यालय का प्रत्येक सदस्य अपने को सदस्य मानता है, जिसको अपना समझा जाता है, जो अपने साथियों और विद्यालय कुटुम्ब के प्रत्येक सदस्य की सहायता करता है और अपनी शिक्षा प्राप्ति संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उनसे सहायता प्राप्त करता है।”

संक्षेप में एकीकरण का दर्शन यह है कि विशिष्ट शिक्षा का सामान्य शिक्षा पद्धति के साथ अंतरंग समन्वय हो ताकि अपंग और अपंगता रहित बालकों की शिक्षा साथ– साथ चले और दोनों प्रकार के बच्चों की आवश्यकताएं बिना किसी अलगाव और भेदभाव के पूरी होती चलें।

(2) भेदभाव व पृथकता के सिद्धान्त का अंत– समावेशी शिक्षा की नीति यह है कि यह अपंग (निःशक्तता) तथा सामान्य बालकों में पृथकता की शिक्षा तथा पृथकता की भावना की विरोधी है तथा बिना किसी भेदभाव के दोनों वर्गों की साथ–साथ की शिक्षा का समर्थन करती है |

(3) विशिष्ट बालकों को मुख्य धारा से जोड़ना– यदि विशेष बालकों को उनके लिए ही संचालित विशेष विद्यालयों में शिक्षा दी जाए तो उनमें अलगाव तथा समाज से कटे होने का भाव उत्पन्न होता है। यह स्थिति निःशक्त बालकों को समाज की मुख्य धारा से पृथक कर देती है। समावेशी शिक्षा का दर्शन यह है कि विशिष्ट बालकों को भी समाज की मुख्य धारा से जोड़ने हेतु सामान्य बालकों के साथ शिक्षित किया जाए ताकि उनमें समाजीकरण हो तथा वे समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सकें।

(4) समावेशित पर्यावरण का सिद्धान्त– समावेशी पर्यावरण या वातावरण से आशय है साझेदारी या सहभागिता से या मिलजलकर कार्य करने के प्रयासों को सशक्त करना। यह मेलजोल विशिष्ट बालकों व सामान्य बालकों,विद्यालयीन स्टाफ तथा बालकों,उनके अभिभावकों, समुदाय के लोगों की भागीदारी से समावेशी विद्यालय में निर्मित होता है । समावेशी पर्यावरण में विशिष्ट नि:शक्त बालक तथा सामान्य बालक मिलजुलकर नए शैक्षिक अनुभव प्राप्त करने में साझेदारी करते हैं।

(5) सभी के लिए शिक्षा (एजुकेशन फॉर आल) का सिद्धान्त– निःशक्तजनों हेतु विशेष विद्यालय नगों–महानगरों में होते हैं जिसमें देश के 25 लाख से अधिक विशेष बालकों का प्रवेश असंभव है। अत: यदि इन बालकों की सुविधा तथा परिवहन की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए उन्हें उनके ग्राम में ही अथवा मोहल्ले के स्कूल में ही अन्य सामान्य बालकों के साथ शिक्षा दी जाए– जो समावेशी विद्यालय की विशेषता है–तो सभी के लिए शिक्षा का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है । समावेशी शिक्षा में इस दर्शन या विचारधारा के आधार पर सभी की शिक्षा की व्यवस्था होती है।

(6) वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त– शिक्षा मनोविज्ञान ने स्पष्ट किया है कि सभी बालक वैयक्तिक विभिन्नता लिये होते हैं। उनकी शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक स्थिति भिन्न–भिन्न होती है। शिक्षा मनोविज्ञान यह भी मानता है कि वैयक्ति विभिन्नता के आधार पर प्रत्येक बालक की आवश्यकता को देखते हुए शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। समावेशी शिक्षा के दर्शन के अनुसार विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों तथा सामान्य बालकों की आवश्यकताओं का समन्वय करते हुए शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम तथा पाठ्यसहगामी गतिविधियों का आयोजन किया जाना चाहिए ।

(7) निरस्त करने का सिद्धान्त– समावेशी दर्शन यह मानता है कि नि:शक्त, असुविधाग्रस्त किसी भी बालक को विद्यालय में प्रवेशं से अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की धारा 15 में भी किसी बालक या विशेष आवश्यकता वाले बालक को प्रवेश से इंकार न किये जाने का प्रावधान है।

(8) अभिभावकों से सहयोग तथा परिचर्चा का सिद्धान्त– समावेशी दर्शन के अनसार समावेशी शाला में अध्ययनरत विशेष व सामान्य बालकों की विशेषताओं शैक्षिक स्थिति बालक को वेयक्तिक कठिनाइयों इत्यादि पर उन बालकों के पालकों या अभिभावकों से शिक्षकों की परिचर्चा का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि बालकों की यदि कोई वैयक्तिक या शैक्षिक समस्या है तो उसका हल खोजा जा सके। अभिभावकों का शिक्षकों तथा विद्यालय प्रसाधन से सहयोग बालक व विद्यालय के हित में भी है तथा स्वयं अभिभावकों के हित में भी।

(9) विशेष बालकों की विशेष आवश्यकता के परिचालन का सिद्धान्त– नि:शक्त बालक कई प्रकार की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समस्या से ग्रसित होते हैं तथा तदनुसार उनकी विशेष आवश्यकताएं भिन्न–भिन्न होती हैं । उदाहरणार्थ अस्थि विकलांग बालक की ट्रायसिकल को कक्षा तक ले जाने की समस्या, अल्प दृष्टि वाले बालक की अपने सहयोग हेतु साथी की आवश्यकता, मंद बुद्धि बालक द्वारा शिक्षोपकरण द्वज्ञरा शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता अथवा श्रवण बाधित बालक की श्रवण यंत्र की आवश्यकता आदि । समावेशी दर्शन मानता है कि बिना इन विशेष आवश्यकताओं की पहचान व उपलब्धता के ऐसे बालकों की शिक्षा संभव नहीं हो पाती।

(10) सर्वांगीण विकास का सिद्धान्त– सभी विशेष व सामान्य बालकों का वैयक्तिक, नैतिक, शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक तथा शैक्षिक विकास समावेशी शिक्षा का लक्ष्य है । समावेशी शिक्षण तथा पाठ्यसहगामी क्रियाओं का उद्देश्य भी इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति है ताकि बालकों में आत्मविश्वास तथा आत्मनिर्भरता उत्पन्न हो तथा वे देश के बेहतर नागरिक बन सकें।

(द) समावेशी शिक्षा के विभिन्न प्रतिरूप (मॉडल) तथा उनके दार्शनिक आधार

निःशक्त बालकों को समावेशी शिक्षा की व्यवस्था के पैटर्न, डिजाइन या विविधता के स्वरूप को बताने वाले अनेक प्रतिरूप (मॉडल) हैं जो विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों के विशेष विद्यालयों पर भी समान रूप से लागू होते हैं। समावेशी शिक्षा से संबंधी प्रतिरूप तथा उनके आधारभूत दार्शनिक विचार निम्नानुसार हैं–

(1) सांख्यिकी मॉडल– यह प्रतिरूप (मॉडल) सांख्यिकी के सामान्य संभाव्य वितरण वक्र की प्रकृति तथा बहुमान्य विचारों पर आधारित है। इसे नीचे रेखाकृति में प्रदर्शित किया गया है जिसके अनुसार सामान्य बालक मध्य रेखा (मध्यमान या औसत) के दोनों ओर स्थित है तथा विभिन्न बालक (जिनकी अनुमानित संख्या सामान्य बालकों की तुलना में दस प्रतिशत है) दोनों ओर (दाएं व बायें) 5.5 प्रतिशत पर है–

सामान्य संभाव्यता वक्र का यह मॉडल समावेशी शिक्षा की इस प्रकृति की ओर संकेत करता है कि इसमें बहुसंख्यक 90% बालक सामान्य तथा कम 10% बालक विशेष आवश्यकताओं वाले बालक होते हैं। यह एक अनुमानित स्वरूप है। इसकी इस मॉडल की विशेषता यह भी है कि यह बताता है कि किसी विशेष वर्ग के (उदाहरणार्थ दृष्टिबाधित बालकों में) 95% बालक सामान्य बालकों के साथ सामान्य या समावेशी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने लायक होते हैं तथा मात्र 10% ही विशेष अंध विद्यालयों में (पूर्णत: अंधे होने के कारण) शिक्षा हत् योग्य हैं । यही बात अन्य अस्थिविकलांग,श्रवण बाधित, मानसिक मंदता के शिकार बालकों पर लागू होते हैं। (ज्ञातव्य है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व की कल जनसंख्या का 10 प्रतिशत भाग किसी न किसी रूप में विकलांग है।)

समावेशी शिक्षा का सांख्यिकी मॉडल वैयक्तिक विभिन्नता के अनुसार शिक्षा देने के सिद्धान्त पर आधारित है। यह बताता है कि सामान्य व विशेष दोनों प्रकार के बालक वैयक्तिक विभिन्नता रखते हैं तथा उसके अनुसार उनकी शिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

(2) मौखिक संचार मॉडल– वे विशेष बालक जो ध्वनिबाधित या वाणिबाधित होते हैं तथा वे जो भाषा संबंधी निःशक्तता के ग्रसित होते हैं तथा जो ऊंचा सुनते हैं. इस मौखिक संप्रेषण मॉडल की समावेशी शिक्षा के अंतर्गत आते हैं। ऐसे बालकों की विशेष आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए तथा समावेशी विद्यालय में संसाधन कक्ष का निर्माण भी इनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हए किया जाना चाहिये। यह मॉडल भी वैयक्तिक विभिन्नता के सिद्धान्त या दार्शनिक विचार धारा पर आधारित है साथ ही विशेष आवश्यकता वाले बालकों के सिद्धान्त पर आधारित है।

(3) चिकित्सीय या जीव विद्या मॉडल– इस प्रतिरूप (मॉडल) के अन्तर्गत शारीरिक रूप में निःशक्त बालक आते हैं जिनकी अस्थि या हड्डियों में कोई विकृति होने से वे पैरों, हाथी, रीढ़ की हड्डी, जोड़ों आदि के कारण काम करने चलने फिरने, झुकने आदि में कमजोर होते हैं । तथापि ये बालक मानसिक दृष्टि से अन्य सामान्य बालकों के अनुरूप क्षमता रखते हैं । समावेशी विद्यालयों में ये अन्य सामान्य बालकों के साथ शिक्षा प्राप्त करने में मानसिक रूप से सक्षम होते हैं केवल इनके लिए वैशाखी, ट्रायसिकल, व्हील चेयर, कृत्रिम अंग आदि के कारण इनके चलने–फिरने, बैठने के स्थान व उपयुक्त फर्नीचर की व्यवस्था करनी होती है । खेलकूद शारीरिक शिक्षण आदि शारीरिक गतिविधियों में अस्थिबाधित बालक अक्षम होते हैं । यह मॉडल विशेष आवश्यकता वाले सिद्धान्त, सभी के लिए समान शिक्षा के सिद्धान्त, अपंग बालकों को मुख्य धारा से जोड़ने के सिद्धान्त, समावेशित वातावरण के सिद्धान्त आदि पर आधारित है।

(4) सांस्कृतिक मॉडल– इस मॉडल में सांस्कृतिक रूप से पृथक बालक, असुविधायुक्त या वंचित वर्ग के वे बालक आते हैं जहाँ शिक्षा का प्रकाश नहीं पहुंच पाया है या जिनके परिवारों में निरक्षरता, निर्धनता, सांस्कृतिक–सामाजिक रूप से वंचन या विघटन की स्थिति है । आदिवासी, अनुसूचित जाति, पिछड़ावर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग के गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करने वाले अनेक परिवारों के बालक इस मॉडल के अंतर्गत आते हैं। अतः सांस्कृतिक रूप से भिन्न बालक भी विशेष बालक में परिगणित किया जाता है। अभावग्रस्त स्थिति में कारण तथा शैक्षिक–जागरुकता के अभाव के कारण शताब्दियों से इन बालकों के परिवार अशिक्षा व अज्ञान का अंधकार झेलते रहे हैं। ऐसे बालक औसत बुद्धिलब्धि के होते हैं। यदि इन बालकों को सरकारी सहायता, छात्रवृत्ति, नि:शुल्क पाठ्यपुस्तकों, निःशुल्क गणवेश (पोशाक, यूनिफॉर्म) निःशल्क मध्याह्न भोजन, निःशुल्क आश्रम छात्रावास की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं तो श लाओं में नामांकन तथा बिना शाला त्यागे प्रारंभिक शैक्षणिक स्तर उत्तीर्ण करने में ऐसे बालक सफल हो सकते हैं। समावेशी शिक्षा के लगभग सभी दार्शनिक सिद्धान्त व नीतियाँ सांस्कृतिक मॉडल के बालकों के लिए लाभप्रद हैं। सबके लिए शिक्षा का लक्ष्य भी इन करोड़ों निर्धन बालकों के बिना अर्जित नहीं किया जा सकता।

(5) मनोसामाजिक मॉडल– मनोवैज्ञानिक रूप से तथा सामाजिक रूप से,कुसमायोजित बालक इस मॉडल में आते हैं। संवेगात्मक रूप से असंतुलित धीमी गति से सीखने वाले,मंदबुद्धि, बाल अपराधी, स्कूल से भागने वाले,शरारी, समस्यात्मक बालक,मनोसामाजिक मॉडल अंतर्गत आते हैं। समावेशी शिक्षा में इनकी प्रकृति व विशेषताओं की पहचान कर उसके अनुरूप मनोवैज्ञानिक व सामाजिक रूप से उपचार की कार्यवाही की जा सकती है। समावेशी शिक्षा के एकीकरण, मुख्य धारा से जोड़ना, वैयक्तिक विभिन्नता की शिक्षा, अभिभावकों से विमर्श सर्वांगीण विकास आदि के दार्शनिक सिद्धान्त इस मॉडल में प्रयुक्त होते हैं।

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