विशिष्ट बालकों की पहचान किस प्रकार की जा सकती है? व्याख्या करें।

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संसार में कोई भी दो व्यक्ति पूर्ण रूपेण एक समान नहीं होते हैं । यही कारण है कि किसी विद्यालय अथवा कक्षा में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो बालक आते हैं, उनमें शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक तथा संवेगात्मक दृष्टि से अनेक अंतर होते हैं कुछ बालकों को सामान्य तथा औसत कहा जा सकता है,जबकि कुछ बालक तीव्र बुद्धि वाले होते हैं, कुछ बालक मन्द बुद्धि वाले होते हैं, कुछ विभिन्न प्रकार के शारीरिक दोषों से युक्त होते हैं तथा कुछ विभिन्न प्रकार की समस्याओं से ग्रस्त होते हैं। ऐसे बालक जो सामान्य बालकों से पर्याप्त भिन्नता रखते हैं उन्हें विशेष आवश्यकता वाले बच्चे या विशिष्ट बालक कहते हैं।

विशिष्ट बालक के प्रत्यय को गुणात्मक व मात्रात्मक दोनों ही दृष्टि से देखा जाता है । गुणात्मक दृष्टिकोण के अनुसार विशिष्ट बालक कुछ अलग प्रकार के होते हैं ये सीखने, सोचने, समायोजन करने आदि में सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं। मात्रात्मक दृष्टिकोण के अनुसार विशिष्ट बालकों तथा सामान्य बालकों के गुणों में केवल मात्रा का अन्तर होता है । सभी बालक चाहे वे सामान्य हो अथवा विशिष्ट एक ही ढंग से पढ़ते, सोचते तथा समायोजित करते हैं। विशिष्ट तथा सामान्य बालकों में अन्तर यह है कि विशिष्ट बालक कार्यों को शीघ्रता से/विलम्ब से, अधिक यथार्थता से/कम यथार्थता से करते हैं परन्तु सभी बालकों के लिए लागू होने वाले मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त मूलतः एक समान होते हैं ।

विशिष्ट बालकों की पहचान

विशिष्ट बालकों की कई प्रकार से विभक्त किया जा सकता है व हर प्रकार के आधार पर उनकी पहचान की जा सकती है।

(1) प्रतिभाशाली बालकों की पहचान– कोई भी बालक प्रतिभाशाली है इसकी पहचान के बाद ही बालक की विशिष्ट शैक्षिक देखभाल करना संभव हो सकता है इन्हें पहचानने के लिये निम्न का प्रयोग किया जा सकता है– (i) विधिवत अवलोकन, (ii) मानकीकृत परीक्षण ।

इन बालकों की कुछ योग्यताओं की पहचान हेतु परीक्षण का उपयोग किया जाता है व कुछ योग्यताओं हेतु अवलोकन विधि का प्रयोग किया जाता है । कभी–कभी बालकों की कुछ योग्यताओं को जानने के लिए दोनों ही विधियों का प्रयोग किया जाता है। इन दोनों विधियों के अन्तर्गत आने वाले उपकरण निम्न हैं–

(I) विधिवत अवलोकन–

(i) अध्यापक निर्णय, (ii) सहपाठी निर्णय ।

(II) मानकीकृत परीक्षण–

(i) समूहगत बुद्धि परीक्षण, (ii) व्यक्तिगत बुद्धि परीक्षण, (iii) उपलब्धि परीक्षण, (iv) विशिष्ट योग्यता परीक्षण, (v) रुचि परीक्षण,(vi) व्यक्तित्व परीक्षण ।

2. मन्दबुद्धि बालकों की पहचान – मन्दबुद्धि बालकों की पहचान के उपरान्त ही उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप उनकी शैक्षिक देखभाल करना सम्भव हो पाता है इनकी पहचान हेतु भी विधिवत अवलोकन तथा मानकीकृत परीक्षणों का उपयोग किया जाता है। व्यक्तिगत, सामूहिक बुद्धि परीक्षणों, उपलब्धि परीक्षण द्वारा भी मन्दबुद्धि बालक को पहचाना जा सकता है । सहपाठियों, अध्यापकों, परिवारजनों तथा इष्टमित्रों द्वारा बालकों के संबंध में की गई अवलोकन टिप्पणियों से भी मन्दबुद्धि बालकों के संबंध में महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं मानकीकृत परीक्षणों का प्रयोग तब ही किया जाता है जब बालकों की बुद्धि सामान्य होने के संबंध में संदेह हो। यह संदेह बालक के द्वारा घर, परिवार, पड़ोस, विद्यालय या खेलकूद में किये जाने वाले व्यवहार के अवलोकन से ही परिलक्षित होता है । किसी भी बालक के मन्दबुद्धि होने पर मानकीकृत परीक्षणों को प्रशासित करके उसकी बुद्धि लब्धि का निश्चय करना आवश्यक हो जाता है। निम्न बिन्दुओं के आधार पर इनकी पहचान हो सकती है–

(i) शैक्षिक उपलब्धि के आधार पर इन्हें पहचाना जा सकता है।

(ii) ऐसे बालक अधिकता शारीरिक रूप से भी अयोग्य होते हैं।

(iii) संवेगात्मक रूप से अस्थिर होते हैं।

(iv) शैक्षिक व शारीरिक आलेख पत्र भी सहायक हो सकते हैं।

(v) व्यक्ति वृत्त अध्ययन द्वारा पहचान की जा सकती है।

मानसिक मन्द बालकों को निम्न प्रमुख बुद्धि परीक्षण द्वारा भी पहचाना जाता है–

(a) सिगुइन फॉर्म बोर्ड परीक्षण

(b) जे भरत राज–डेवलपमेंट स्क्रीनिंग परीक्षण ।

(c) आर.पी. श्रीवास्तव एवं किरण सक्सेना–मानसिक योग्यता परीक्षण ।

(dd) सी.एम. भाटिया निष्पादन बुद्धि परीक्षण

(i) कोट ब्लाक डिजाइन परीक्षण

(iiii) अलेक्जेण्डर पास अलांग परीक्षण

(iii) आकृति चित्रण परीक्षण

(iviv) अंक तत्काल स्मृति परीक्षण

(v) चित्र रचना परीक्षण।

(e) मलिन्स भारतीय बच्चों के लिए बेहतर बुद्धि परीक्षण आदि : मन्द बुद्धि बालकों को विभिन्न विशेषताओं, उपलब्धि एवं कार्यों को सूक्ष्म निरीक्षण, मानकीकृत बुद्धि परीक्षण पर प्राप्त अंकों के तथा अन्य परीक्षण के उपयोग से पहचाना जा सकता है।

3. श्रवण क्षतियुक्त बालकों की पहचान– बधिकर बालकों की पहचान उनसे बोलने पर हो सकती है, परन्तु उनकी पहचान श्रवण यंत्रों द्वारा करना उचित होगा। इनकी पहचान श्रवण यंत्रों यथा–श्रवणमापक तथा अन्य तकनीकों के की जाना चाहिए । एक विद्यालय में श्रवण क्षतियुक्त बालक कई दिनों तक अध्यापक की दृष्टि में नहीं आ पाता । अध्यापक को यह आभास तभी होगा जब वह बालक से अधिकतम अन्तक्रिया करेगा लेकिन अधिक संख्या वाली कक्षा में ऐसा संभव नहीं हो पाता अतः बालकों के प्रवेश के समय ही उनका परीक्षण करवा लेना उचित होगा। माता–पिता को भी बालक के जन्म के तीन महीने पश्चात् चिकित्सक द्वारा अपने बालक की श्रवण शक्ति की जाँच अवश्य करा लेनी चाहिये । विद्यालय में प्रवेश के समय भी उन्हें अध्यापक को बालक की श्रवण स्थिति से अवश्य अवगत करा देना चाहिये।

पिछड़े बालकों की पहचान– कक्षा में ऐसे बालक जो अन्य छात्रों की अपेक्षा मन्द रहता है लिखने पढ़ने व समझने में अन्य बच्चों से कमजोर रहता है। यह बालक कक्षा में सामान्य रूप से कार्य नहीं कर पाते हैं जिसके परिणामस्वरूप यह शैक्षिक प्रक्रिया में असफल रहता है । इन बालकों को निम्न तरीकों से पहचाना जा सकता है।

पहचान की विधियाँ

(1) अध्यापक द्वारा निरीक्षण– किसी भी कक्षा में बालकों के संबंध में शिक्षक सबसे ज्यादा जानकारी रखता है बालक की गतिविधियों से कार्य करने, पढ़ने आदि गतिविधियों से बालक के बारे में जानकारी हासिल कर सकता है कि कक्षा का कौनसा बालक शैक्षिक रूप से पिछड़ा है व क्यों।

(2) उपलब्धि परीक्षण– कक्षा एक से कक्षा बारहवीं तक के तथा अन्य कक्षाओं के लिये विभिन्न उपलब्धि परीक्षण उपलब्ध हैं इनमें से कुछ साधारण अध्ययन के लिये हैं जबकि कुछ शैक्षिक कठिनाइयों का पता लगाने के लिए हैं। अध्यापक को यह सुनिश्चित करना होता है कि किन परिस्थितियों में किस तरह के परीक्षणों का उपयोग किया।

(3) बुद्धि परीक्षण– कई बार पिछड़ापन बुद्धि की कमी के कारण भी हो सकता है इसलिये विद्यार्थी की बुद्धि का बुद्धि परीक्षण द्वारा पता लगाया जा सकता है।

(4) व्यक्तित्व सूची– व्यक्तित्व सूची द्वारा व्यक्तित्व व प्रेरणा का पता लगाया जा सकता है |

(5) केस अध्ययन– केस अध्ययन के अन्तर्गत बालक के बारे में उसके परिवार, स्कूल, दोस्त,रुचियाँ उसका पढ़ाई के प्रति दृष्टिकोण आदि का पता लगाया जा सकता है जिसके बालक के पिछड़ेपन का कारण सामने आ जाता है ।

(6) शारीरिक व इन्द्रिय परीक्षाएं– बालकों की शारीरिक व इन्द्रिय परीक्षाओं द्वारा भी पिछड़े बालकों का पता लगाया जाता है । इस प्रकार के परीक्षणों में हाथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । इन परीक्षणों में वस्तुओं को पकड़ने की शक्ति, आंखों का उपयोग, कैंची का प्रयोग आदि आंखों की चोट व यदि एक की चोट से होने वाली पढ़ने लिखने की कठिनाई आदि का पता लग जाता है।

(7) घर व व्यवहार का निरीक्षण– जिन विद्यार्थियों में व्यवहार संबंधी दोष होते हैं वे भी कई बार शैक्षिक रूप से पिछड़े हो सकते हैं कभी–कभी घर का दूषित वातावरण भी इसमें सहायक होता है घर का वातावरण तनाव मुक्त व शांतिपूर्ण हो जिससे व्यक्ति सही निर्देशन ले सके क्योंकि परिवार का वातावरण व संस्कार उसकी शैक्षिक उन्नति को प्रभावित करते हैं।

कम देखने वाले बालकों की पहचान

दृष्टि अक्षम बालकों को सामान्य से कम, निम्न या शून्य दृष्टि वाले बालकों में वर्गीकृत किया जा सकता है । कम देखने वाले बालकों की पहचान सबसे सही रूप में मेडिकल परीक्षण द्वारा करवाई जा सकती है स्कूल में प्रवेश के समय बालकों की आंखों का परीक्षण होना चाहिए । परीक्षण द्वारा कम देखने वाले बालकों की पहचान भी की जा सकती है व उसके लिए शिक्षण सामग्री की व्यवस्था की जा सकती है।

दृष्टि अनुवीक्षण द्वारा भी इन बालकों की पहचान की जा सकती है। यह कार्य डॉक्टर, नर्स, अध्यापक कर सकते हैं। स्कूल स्वास्थ्य सेवा विभाग का कर्तव्य है कि वह अनुवीक्षण की व्यवस्था कराये यह भी सुनिश्चित किया जाना आवश्यक होगा कि अनुवीक्षण सही दशा में हो रहा है या नहीं।

माता–पिता को भी चाहिये कि बच्चे का समय–समय पर चेकअप करवाते रहें उसके किताब पढ़ने, पकड़ने, आंखें बन्द करने, आंखें छोटी करने आदि गतिविधियों को देखकर बच्चे की आंखों से सम्बन्धित कमी का पता लगा सकते हैं । स्कूल स्वास्थ्य विभाग का भी यह कर्त्तव्य है कि बच्चों का व्यापक स्वास्य परीक्षण करवाये।

समस्यात्म बालकों की पहचान

समस्यात्मक बालकों की पहचान उनके व्यवहार से की जा सकती है निम्न विधियों द्वारा व्यवहार को पहचाना जा सकता है।

(1) निरीक्षण विधि– इस विधि द्वारा शिक्षक मनोवैज्ञानिक व विशेषज्ञ बालक के व्यवहार का निरीक्षण करता है। यह निरीखण दो प्रकार से हो सकता है–

(i) सहभागी, (ii) असहभागी।

सहभागी निरीक्षण में बालक के साथ रह कर क्रियाकलापों में भाग लेकर उसके व्यवहार का अध्ययन किया जाता है असहभागी निरीक्षण में दूर से बालक के व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है। निरीक्षण द्वारा उसकी समस्याओं का पता लगाया जाता है।

(2) साक्षात्कार विधि– कुछ इस प्रकार की समस्यायें होती हैं जिनका निरीक्षण द्वारा पता लगाना संभव नहीं हो पाता है साक्षात्कार विधि द्वारा चाहे वह संरचित हो या असंरचित द्वारा बालक की समस्याओं की पहचान की जाती है । साक्षात्कार में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके समस्या की पहचान हो जाती है।

(3) इतिहास विधि– इस विधि में बालक के इतिहास का पता लगाया जाता है जिससे उसके परिवार के सदस्यों मुख्यतः माता–पिता, विद्यालय, कर्मचारी, अध्यापक, प्रधानाचार्य, मित्र सहयोगियों से बातचीत की जाती है। इनके द्वारा बालक के व्यवहार का उसकी समस्या का अध्ययन किया जाता है।

(4) मनोवैज्ञानिक विधि– समस्यात्मक बालकों की पहचान हेतु मनोविज्ञान में कई परीक्षणों का निर्माण किया जा चुका है । इन परीक्षणों का प्रयोग बालक पर करके उसकी समस्या से अवगत हो सकते हैं।

(i) मूनी की समस्या जाँच सूची

(ii) भाग्या की समस्या जाँच सूची आदि।

कभी–कभी समायोजन प्रश्नावलियों का प्रयोग भी समस्यात्मक बालकों का पता लगाने हेतु किया जाता है । ये समायोजन प्रश्नावलियाँ निम्न हैं–

(i) सिन्हा एवं सिन्हा की विद्यालय विद्यार्थियों हेतु समायोजन सूची

(ii) मित्तल की समायोजन सूची

इन परीक्षणों को बालकों से करवा कर समस्याओं का पता लगाया जाता है । परन्तु परीक्षणों में प्रश्नों का उत्तर कई बालक सही नहीं देते हैं सामाजिक वांछिता के आधार पर वे अपने दोषों को छिपा लेते हैं इसलिए कभी–कभी निष्कर्ष पूरी तरह सही प्राप्त नहीं हो पाते हैं समस्यात्मक बालकों की पहचान हेतु विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जाता है इन विधियों का एक साथ प्रयोग बालक की सही पहचान के लिये अपरिहार्य व उचित होगा।

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