विशेष आवश्यकताएं क्या हैं? इन्हें कितने प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है ?

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यह सर्वविदित है कि कोई भी दो प्राणी एक से नहीं होते, वे न तो एक सा व्यवहार करते हैं न ही उनकी शिक्षा दीक्षा एक जैसी होती है । बाल– विकास के अनुसार बालक को दो भागों में बाँटा गया है।

(1) सामान्य बालक

(2) विशेष आवश्यकता वाले बालक (विशिष्ट बालक)

विशिष्टता का क्षेत्र सार्वभौमिक है यह किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि में पायी जा सकती है कभी यह विशिष्टता, कभी वंशानुगत होती है या कभी– कभी दोनों के संयोजन का परिणाम होती है। इन विशिष्टता या निर्योग्यताओं की पूर्ति संभव है जबकि उचित शिक्षण व प्रशिक्षण द्वारा सामान्य बालकों की तरह इन विशेष बालकों को भी समाज व राष्ट्र के लिए उपयोगी बनाया जाये । मनोवैज्ञानिकों ने निम्न सिद्धान्तों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि अधिकतर बालक सामान्य होते हैं उनके दोनों ओर असामान्य या विशिष्ट बालक होते हैं।

(1) यदि एक समरूप समूह के बालकों के लक्षणों का मापन किया जाये उसका वितरण सामान्य वक्र के समान होगा। सामान्य वक्र में बीच में पड़ी लम्बवत रेखा यह बताती है कि सामान्य बालक वे हैं जो इस बिन्दु पर पड़ते हैं सामान्य वक्र के दायें तथा बायें छोर पर पड़ने वाले 10– 10% बालकों को औसत से भिन्न माना जा सकता है इन 20% बालकों का विशिष्ट बालकों की संज्ञा दी जाती है।

(2) एक बालक के विभिन्न लक्षणों में यद्यपि धनात्मक सह– संबंध देखने को मिलता है तथापि यह बालक एक लक्षण में सामान्य बालकों की तरह होते हुए भी अन्य लक्षण में औसत से भिन्न हो सकता है। उदा. एक बालक शारीरिक रूप से सामान्य होते हुए भी मानसिक रूप से पिछड़ा हो सकता है।

(3) अत: एक बालक के विभिन्न लक्षणों का मापन करके यदि उसे सामान्य वक्र में दर्शाया जाये तो लक्षणों का वितरण रेखाचित्र के समान हो जायेगा। अर्थात् बालक के 30% लक्षण अपने ही अन्य लक्षणों से असामान्य रूप से पृथक होंगे।

इन सिद्धान्तों के आधार पर कहा जा सकता है कि “विशिष्ट बालक वह है जो उन बालकों से, जो कि शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक या सामाजिक गुणों में औसत है भिन्न है।”

परिभाषाएं :

(1) क्रो एवं क्रो– “विशिष्ट प्रकार या विशिष्ट शब्द किसी एक ऐसे लक्षण या उस लक्षण को रखने वाले व्यक्ति पर लागू किया जाता है जबकि लक्षण को सामान्य रूप से रखने से प्रत्यय की सीमा इतनी अधिक होती है कि उसके कारण व्यक्ति अपने साथियों का विशिष्ट ध्यान प्राप्त करता है और इससे उसकी व्यवहार की अनुक्रियाएं व क्रियाएं प्रभावित होती हैं ।”

(2) बलेन्स बालिन– “प्रारम्भिक स्कूल के 1000 बालकों में से लगभग 300 बालकों में कुछ विशिष्टताएं पायी जाती हैं इसमें भी लगभग 50% बालक शारीरिक या मानसिक हीनता से ग्रस्त दिखाई देते हैं अन्य बालक, मानसिक, संवेदात्मक, सामाजिक, व्यक्तित्व संबंधी विशिष्ट समस्याओं के कारण विशिष्ट होंगे ये विशिष्ट बालक सभी प्रकार के सामाजिक– आर्थिक पर्यावरण से आते हैं । इनके समायोजन की विशिष्ट समस्याएं होती हैं और शिक्षक को उनको विशेष रूप से सुलझाना पड़ता है।”

(3) सच वार्टज– “जब हम किसी को “विशिष्ट” कह कर वर्णितकरते हैं हम व्यक्ति को औसत या सामान्य लोगों जिन्हें हम एक या इससे अधिक लक्षणों के सम्बन्ध में जानते हैं, से अलग रखते हैं।”

विशिष्ट बालकों के प्रकार – शिक्षा प्राप्त करने हेतु प्रत्येक विद्यालय में अनेक सामान्य बालक आते हैं इसके अलावा कुछ ऐसे बालक भी आते हैं जिनकी अपनी कुछ शारीरिक व मानसिक विशेषताएं होती हैं। इनमें कुछ प्रतिभाशाली, कुछ मन्दबुद्धि, कुछ पिछड़े हुए शारीरिक दोषों वाले आदि होते हैं । इन बालकों को विशेष आवश्यकता वाले बालक या विशिष्ट बालक कहते हैं। इन्हें कई प्रकार से विभक्त किया जा सकता है। इन्हें साधारणतया छः श्रेणियों में रखा जाता है ये श्रेणियाँ निम्न हैं–

(1) बौद्धिक रूप से भिन्न

(a) मानसिक रूप से पिछड़े,

(b) शैक्षिक रूप से पिछड़े,

(c) प्रतिभावान,

(d) सृजनात्मक।

(2) शारीरिक रूप से भिन्न

(a) विकलांगिक अक्षम,

(b) चिरकालिक बीमार,

(c) श्रवण क्षतियुक्त,

(d) दृष्टि क्षतियुक्त,

(e) बहुल विकलांग।

(3) मौखिक संचार से भिन्न

(a) वाक क्षतियुक्त,

(b) भाषा विकलांग।

(4) मनोसामाजिक रूप से भिन्न

(a) संवेगात्मक रूप से अशान्त

(b) सामाजिक रूप से कुमसायोजित

(c) समस्यात्मक बालक ।

d) अपराधी बालक

(5) सांस्कृतिक रूप से भिन्न

(a) अधिगम असुविधायुक्त

(b) सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक

(5) वंचन के आधार पर भिन्न

(a) वंचित बालक

(1) बौद्धिक रूप से भिन्न बालक– ऐसे बालक जो मानसिक रूप से पिछड़े हैं, सीखने में अयोग्य हैं या शैक्षिक रूप से पिछड़े हैं प्रतिभावान हैं या सृजनात्मक हैं, बौद्धिक रूप से भिन्न कहलाते हैं मानसिक रूप से पिछड़े बालकों को छोड़कर इस श्रेणी के सभी बालक सामान्य बालकों की तरह ही दिखते हैं परन्तु उनका व्यवहार सामान्य बालकों से भिन्न होता है। 110 से अधिक IQ वाले बालकों को प्रतिभावान तथा 90 से कम IQ वाले को मानसिक रूप से पिछड़ा समझा जाता है । प्रतिभावान बालक व पिछड़े बालक बौद्धिक योग्यताओं में एक दूसरे के विपरीत होते हैं।

(2) शारीरिक रूप से भिन्न बालक– क्षतिपूर्ण स्वास्थ्य, चिरकालिक बीमारी, श्रवण क्षति, नेत्र क्षति, बहुल विकलांगता आदि शरीर से संबंधित दिशाएं बालक को सामान्य बालक से शारीरिक रूप से भिन्न बनाती है। शारीरिक रूप से कमजोर या भिन्न बालक को लोग प्रायः मानसिक रूप से कमजोर भी मान लेते हैं। परन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं होता है इनकी शारीरिक कमी को ध्यान रखते हुए इनकी विशेष शिक्षा का आयोजन किया जाना चाहिये। मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए इन बालकों को शिक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि शारीरिक अक्षमता इनके मनोविज्ञान को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है।

(3) मौखिक संचार में भिन्न बालक– यह दो प्रकार के होते हैं–

(i) वाक क्षतियुक्त बालक

(ii) भाषा विकलांग बालक।

प्रथम प्रकार के बालकों में किसी न किसी प्रकार बोलने में दोष होता है । जैसे– हकलाना, स्वरदोष द्वितीय प्रकार के बालकों में उस भाषा की कमी होती है जो कि स्कूल या बाजार में बोली जा रही है साथ ही वे बालक जो मातृभाषा भी ठीक तरीके से नहीं बोल पाते हैं अर्थात ऐसे बालक जो अपने विचारों को दूसरों तक नहीं पहुंचा पाते हो। इस तरह इन बालकों की शैक्षिक उपलब्धि प्रभावित होती है शैक्षिक उपलब्धि पर नकारात्मक प्रभाव के साथ– साथ इनका व्यावसायिक जीवन भी प्रभावित होता है । इनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हए विद्यालयों में विशेष प्रोग्राम बनाये जाना चाहिए ।

(4) मनोसामाजिक रूप से भिन्न बालक – इस श्रेणी में संवेगात्मक रूप से व सामाजिक रूप से कमसायोजित बालक आते हैं ऐसे बालकों में अपनी भावनाओं के प्रदर्शन में कठिनाई देखी जाती है। साथ ही ये बालक अपनी भावनाओं को सही रूप में प्रतिबन्धित भी नहीं कर पाते व संवेगात्मक असंतुलन का प्रदर्शन करते हैं । सामाजिक रूप से कुसमायोजित बालक अपने परिवार के सदस्यों, मित्रों, सहयोगियों व समाज के विभिन्न सदस्यों से नियमानुसार व सहज ढंग से अनुक्रिया नहीं कर पाता है इसलिए अन्य विचारों को समझने व गुणों को सीखने में वंचित रह जाता है।

(5) सांस्कृतिक रूप से भिन्न बालक – इसके अन्तर्गत अधिगम असुविधायुक्त तथा सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक तथा वंचित बालक आते हैं। इन बालकों को वे सुविधाएं प्राप्त नहीं होती हैं जो सामान्य बालकों को मिलती हैं जिसके कारण उसकी शैक्षिक उपलब्धि नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है अपने परिवेश में अपनी संस्कृति रखने वाले बालकों में विशिष्टता पायी जाती है जो कई सामाजिक, मनोवैज्ञानिक व शैक्षिक समस्याओं को जन्म देती है। यह बालक अन्य बालकों से भिन्न होने के कारण विशिष्ट शिक्षा के अधिकारी होते हैं।

(6) वंचन के आधार पर भिन्न बालक– वंचित बालक भी विशिष्ट बालकों की श्रेणी में आते हैं इनके लिए सामान्य शिक्षा के साथ– साथ अतिरिक्त शिक्षा प्रावधानों की आवश्यकता पड़ती है यह तीन प्रकार के होते हैं ।

(1) सामाजिक रूप से वंचित बालक

(2) शैक्षिक रूप से वंचित बालक

(3) आर्थिक रूप से वंचित बालक

यह बालक सामाजिक आर्थिक सुविधाओं से वंचित रहने के कारण शिक्षा के अधिकार से वंचित रह जाते हैं कई बार सामाजिक प्रतिष्ठा व धन के अभाव में पढ़ नहीं पाते हैं कई बार अपराध की दुनिया में चले जाते हैं।

अतः विशिष्ट बालक कई प्रकार के हैं। इन बालकों की मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, संवेगात्मक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए इनके साथ व्यवहार व उन्हें शिक्षा प्रदान करनी चाहिए।

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