विशेष आवश्यकताओं के संप्रत्यय की विवेचना कर इनके प्रकार बताइए।

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विशेष आवश्यकताओं के संप्रत्यय का संबंध उन विशेष बालकों की शैक्षणिक जरूरतों से है जो या तो प्राकृतिक अक्षमताओं के कारण शिक्षा अर्जित करने में कठिनाई अनुभव करते हैं या इनका संबंध उन प्रतिभाशाली सृजनात्मक बालकों से है जिनके लिए विद्यमान शिक्षा प्रणाली उनकी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असमर्थ सा अनुभव करती है । ये विशिष्ट बालक हैं– दृष्टि बाधित, वाणी बाधित, अस्थिबाधित, धीमी गति से सीखने वाले, मंदबुद्धि बालक या उच्च बुद्धिलब्धि तथा उच्च निष्पत्ति वाले प्रतिभायुक्त बालक । निश्चय ही इन सबकी विशेष आवश्यकताएं भिन्न– भिन्न हैं।

शिक्षा में वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त यह बताता है कि सभी बालक समान नहीं होते । वैयक्तिक विभिन्नता के कारण उनकी अधिगम (सीखने) की क्षमताएं भी भिन्न– भिन्न होती हैं। अतः उनकी शिक्षा हेतु विशेष प्रकार की जरूरतें अपेक्षित होती हैं। उदाहरण के लिए श्रवण बाधित बालक (यदि पूर्णतः बधिर नहीं है तो) श्रवण यंत्र की जरूरत पूरी होने पर सुन सकेगा तथा शिक्षा प्राप्त कर सकेगा। इसी प्रकार कम दृष्टि वाले बालकों को चश्मा अथवा अस्थिबाधित बालक को वैशाखी या व्हील चेयर प्राप्त होने पर वे सीखने हेतु साधन सम्पन्न हो सकेंगे। द्रष्टव्य है कि बालकों की असमर्थताओं का प्रतिशत न्यून या अधिक होने का प्रभाव उनकी विशेष आवश्यकताओं के कम या अधिक होने पर पड़ता है। विशेष आवश्यकताएं केवल सामग्री उपलब्ध होने से ही पूर्ण नहीं हो जातीं उनकी सीमा विस्तृत है तथा इसमें वंचित बाधित बालकों की पारिवारिक, आर्थिक, शारीरिक, सामाजिक, व्यावसायिक, शैक्षणिक अनेक आवश्यकताएं सम्मिलित हैं। यहाँ विशेष आवश्यकताओं के संप्रत्यय का प्रत्यक्ष संबंध विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं से है।

विशेष बालकों की विशेष आवश्यकताएं सामान्य आवश्यकताओं से भिन्न तथा विशिष्टता लिये होती है। सामान्य आवश्यकताएं तो विशिष्ट व सामान्य दोनों प्रकार के बालकों में समान रूप से पाई जाती हैं । जैसे भोजन, आवास, वस्त्र, सुरक्षा, निद्रा आदि की आवश्यकताएं। स्नेह सम्मान, स्वतंत्रता सराहना जैसी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएं तथा बोलचाल, मित्रता जैसी सामाजिक आवश्यकताएं भी विशिष्ट व सामान्य दोनों प्रकार के बालकों में समान रूप से दिखाई देती है।

विशिष्ट बालकों की विशेष शैक्षिक आवश्यकताएं– चाहे वे विशिष्ट स्कूलों में पढ़ें या समावेशी स्कूल में– प्रमुख रूप से निम्नानुसार हैं–

(1) विशिष्ट बालकों के लिये विशेष कक्षाओं की आवश्यकता होती है क्योंकि सामान्य कक्षा उनकी वैयक्तिक वैभिन्य के अनुसार उन्हें शिक्षा देने में आंशिक रूप से ही सफल होती है।

(2) विशिष्ट बालकों की विशिष्ट आवश्यकता को देखते हुए उन्हें विशेष प्रशिक्षित, संवेदनशील शिक्षक तथा स्रोत शिक्षक की आवश्यकता होती है।

(3) विशिष्ट बालकों की विशिष्ट आवश्यकता की पूर्ति विशिष्ट पाठ्यक्रम (जो लोचदार हो अर्थात् विशिष्ट बालकों की आवश्यकता को देखते हुए परिवर्तनशील होना आवश्यक होता है) व्यावसायिक पाठ्यक्रम भी लचीला, होना चाहिये।

(4) विशिष्ट शिक्षण प्रविधियाँ भी विशेष बालकों हेतु आवश्यक होती हैं।

(5) विशिष्ट पाठ्यपुस्तकें जैसे नेत्रहीन हेतु ब्रेल लिपि की पुस्तकें, मंददृष्टि के बालकों के लिए बड़े– बड़े मोटे अक्षरों वाली सचित्र पाठ्य पुस्तकें आवश्यक होती हैं।

(6) प्रतिभाशाली छात्र को सामान्य पाठ्यक्रम नीरस लगने लगता है अतः उसके लिए विषयों की अनेक लेखकों की पुस्तकों की आवश्यकता पड़ती है।

(7) धीमी गति से सीखने वाले बालकों के लिए शिक्षक को अपनी शिक्षण गति को धीमा करना होता है।

(8) शारीरिक रूप से विकलांग (निःशक्त) बालक को चिकित्सकीय सहायता आवश्यक होती है।

(9) पढ़ने में असमर्थ, लिखने में स्पेलिंग की गलती करने वाले गणित में कमजोर विशिष्ट बालकों के लिए विशिष्ट व्यक्तिगत शिक्षण व अभ्यास कार्य कराने की आवश्यकता होती है।

(10) विशेष आवश्यकता वाले बालकों हेतु कक्षा प्रबंधन, स्रोत कक्ष की व्यवस्था, कक्षा में सामने की सीट पर बैठाने, किसी संगी साथी के पढ़ने– लिखने में सहयोग करने आदि की जरूरत होती है।

(11) त्रिआयामी सहायक शिक्षण सामग्री, दृश्य श्रव्य सामग्री, सभी शिक्षण टेक्नोलॉजी की आवश्यकता मंदबुद्धि, धीमी गति से सीखने वाले बालकों हेतु आवश्यक होती है।

(12) चलने– फिरने में, उठने बैठने में असमर्थ या कठिनाई का सामना करने वाले शारीरिक रूप से अस्थि विकलांग बालक के लिये वैशाखी ट्रायसिकल उसे रखने के लिए पर्याप्त स्थान की जरूरत कक्षा में पड़ती है। इसी प्रकार मंद दृष्टि बालक हेतु चश्मे कम सुनने वाले हेतु श्रवण मंत्र आदि विशिष्ट बालकों की विशेष आवश्यकता है जिसके अभाव में वे शिक्षण– अधिगम ठीक ढंग से प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं।

उक्त प्रमुख उदाहरणों से विशेष आवश्यकताओं का संप्रत्यय स्पष्ट होता है । समावेशी विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ विशिष्ट आवश्यकता वाले बालकों को भी साथ– साथ पढ़ाया जाता है ताकि उन्हें मुख्य धारा से जोड़ सकें । प्रायः बाधित बालक समाज की मुख्य धारा से कटे हए होते हैं तथा शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ रहते हैं । समावेशी विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ विशेष बालकों को सामाजिक, भावात्मक, मनोवैज्ञानिक तथा शैक्षणिक वातावरण सुलभ होता है जो विशेष बालकों के भी सर्वांगीण विकास हेतु लाभप्रद है। समावेशी विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के विशेष आवश्यकता वाले बालकों की जरूरतों को ध्यान रखते हुए उन्हें शैक्षणिक सुविधाएं उपलब्ध कराया जाना आवश्यक है।।

विशेष आवश्यकताओं के प्रकार– राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 तथा कार्य योजना 1992 में विकलांग (निःशक्तजन) बच्चों की शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार करते हुए स्पष्ट किया गया कि विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ बालकों के समतुल्य शैक्षिक विकास करना है जिससे उनमें उत्साह एवं विश्वास के साथ जी सकने की क्षमता उत्पन्न हो। इसके लिए जहाँ तक संभव हो सभी को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा दी जाये। केवल पूर्ण विकलांग बालकों हेतु विशेष विद्यालय खोले जाएं। चाहे विशेष आवश्यकता वाले विभिन्न प्रकार के विशिष्ट बच्चों को समावेशी विद्यालयों में शिक्षा दी जाये या उनके लिए पृथक विशेष विद्यालय हों– दोनों समस्याओं में ऐसे बालकों की विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाना आवश्यक है।

यद्यपि विशेष आवश्यकताएं शारीरिक, मानसिक, शैक्षिक, संवेगात्मक, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक विभिन्न विभिन्न रूपात्मक हो सकती हैं जिनके रूप के आधार पर भी विशेष आवश्यकताओं का विवेचन संभव है तथापि विशेष प्रकार के बालकों की विशेष आवश्यकताओं की पहचान तथा तथा उसके अनुरूप विशेष शिक्षा हेतु उनके प्रकारों की विविधता का विश्लेषण आवश्यक है । मोटे तौर पर ये विशेष आवश्यकताओं वाले विशेष बालकों के प्रकार ये हैं–

(1) गत्यात्मक (चलने उठने बैठने) क्षति वाले शारीरिक रूप से निःशक्त बालक ।

(2) श्रवण क्षति से युक्त विशेष बालक ।

(3) दृष्टि क्षति से युक्त विशेष बालक।

(4) अधिगम बाधित विशेष बालक।

(5) मानसिक शिथिलता तथा मंद (धीमी) गति के अधिगमकर्ता विशेष बालक ।

(6) प्रतिभाशाली विशेष बालक ।

(7) लाभहीन वंचित वर्ग के विशेष बालक ।

इन प्रकारों के प्रत्येक में मात्रात्मक या परिमाणात्मक भिन्नता पाई जाती है जिसके आधार पर पर उनकी विशेष आवश्यकताएं भी भिन्न हो जाती हैं। इन विशेष आवश्यकताओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है–

(1) गत्यात्मक क्षति वाले बालक– शारीरिक अंगों हाथ– पैर आदि की क्षतियुक्त बालकों की पहचान उनके व्यवहार, चलने– फिरने, उठने– बैठने तथा शारीरिक प्रकृति से की जा सकती है। कुछ बालकों के पैर– हाथ ही दुर्घटनावश कट जाते हैं या पूर्णतः लकवाग्रस्त हो जाते हैं ऐसे बालक पूर्ण गत्यात्मक क्षति वाले बालक कहलाते हैं। दूसरे कुछ बालकों में पैरों हाथों में कुछ प्रतिशत तक की ही निशक्तता होते हैं। ऐसे बालक वैशाखी के सहारे, ट्रायसिकल का उपयोग कर या दूसरों का सहारा लेकर चलने– फिरने व शिक्षा प्राप्त करने, किसी व्यवसाय को अपनाने में समर्थ होते हैं। ऐसे कम गत्यात्मक क्षति युक्त बालकों को समावेशी विद्यालयों में शिक्षित किया जा सकता है। फिर भी इनकी आंशिक शारीरिक क्षति इनके शिक्षा प्राप्त करने में बाधक होती है। ये सामाजिक दृष्टि से भी भलीभाँति समायोजित नहीं हो पाते। कुछ बालकों में हीन भावना उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु यह भी सत्य है कि अधिकतर ऐसे विकलांग अपनी कमी को कला, संगीत, गायन– वादन, वाद– विवाद, भाषण, अध्ययन आदि क्षेत्रों में निष्पादन क्षमता से दूर करने में समर्थ होते हैं जिसे प्रोत्साहन दिया जाना आवश्यक है।

अस्थि बाधित अपंग बालकों की चिकित्सकीय जाँच में उपरांत उसकी गत्यात्मक असमर्थताओं को पहचानकर उसकी विशेष आवश्यकताओं का आकलन होना चाहिए। उसकी विशेष आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए ये उपाय संभव है–

(1) उपचार सुविधा, (2) उपकरण प्रदाय.(3) शाला में विशेष शिक्षक, (4) विशेष कक्षा व अतिरिक्त कक्षा, (5) विशेष विद्यालय, (6) लोचदार पाठ्यक्रम, (7) अभिवृत्ति में बदलाव के प्रयास, (8) समाजीकरण हेतु प्रयास, (9) पुनर्वास हेतु व्यावसायिक प्रशिक्षण, (10) कक्षा व शाला प्रबंध में बदलाव ।

(2) श्रवण क्षति से युक्त विशेष बालक– पूर्णतः बधिर या ऊंचा सुनने वाले बालक श्रवण क्षति युक्त बालक कहलाते हैं । यदि बालक कम सुन पाते हैं तो उनकी समुचित चिकित्सा कर उसे श्रवण यंत्र आदि लगाने से वे अधिक सुन पाते हैं। श्रवण संबंधी क्षति कुछ बालकों में जन्म से होती है तथा कुछ बालकों में बीमारी या दुर्घटना के कारण या कमी आ जाती है। बधिर बालकों या कम सुनने वाले बालकों की व्यक्तिगत, सामाजिक, शैक्षिक आवश्यकताएं होती हैं।

बधिर बालकों के साथ संप्रेषण (कम्युनिकेशन) कठिन होता है अत: विशेष संप्रेषण तकनीक जैसे चिन्ह भाषा (साइन लैंग्वेज), ओष्ठ पठन (लिप्स रोडिंग) का सहारा लेना होता है । पूर्ण बधिर बालकों के लिए पृथक विद्यालय की आवश्यकता होती है जहाँ संकेत विधि, चिन्ह विधि, ओष्ठ पठन कला की शिक्षा दी जा सके। समावेशी विद्यालयों में कम या ऊंचा सुनने वाले बालक श्रवण उपकरणों के प्रयोग से समायोजित हो सकते हैं।

श्रवण क्षति युक्त बालक कुंठाग्रस्त हो सकता है। उसके संगीसाथी या मित्र कम होते हैं। अतः वह सामाजिक क्रियाओं में पिछड़ जाता है। ऐसे बालकों की भाषा का व बोलने की शक्ति का समुचित विकास नहीं हो पाता। कम सुनने वाले या ऊंच सुनने वाले बालकों के लिए विशेष प्रयास न हों तो उनकी निष्पत्ति या शैक्षिक अर्थापन कम हो जाती है । कुछ व्यक्ति एक कान से ही सुनते हैं जिसका उपचार श्रवण यंत्र से संभव होता है।

श्रवणक्षति युक्त बालकों का शिक्षा के लिए दृश्य श्रव्य सामग्री से शिक्षण, फिल्म व वीडियो से शिक्षण, वैयक्तिक रूप से शिक्षक द्वारा शिक्षण, पृथक कक्षा तथा ऐसे बालकों को प्रिंटिंग, बिजली का काम,खाना बनाने का काम, लकड़ी का काम,कलात्मक कार्य,हिसाब किताब आदि को व्यावसायिक शिक्षा भी अपेक्षित होती है ताकि वह भविष्य में स्वरोजगार द्वारा जीवन यापन कर सके । गत्यात्मक या क्रियात्मक शिक्षण भी ऐसे बालकों हेतु लाभप्रद होता है।

प्राय: यह पाया गया है कि बधिर बालक वाणीबाधित भी हो जाते हैं। अमेरिकी वाक्भाषा श्रवण एसोसिएशन के अनुसार “वाक् विकास से तात्पर्य आवाज विकार,उच्चारण दोष, वाक प्रवाह में विकार से है ।” अत: ऐसे बालकों की विशेष आवश्यकता भाषा– विज्ञान के तरीके से व्यक्तिगत रूप से उन्हें उच्चारण आदि की शिक्षा देना होता है।

(3) दृष्टि क्षति से युक्त विशेष बालक– विशेष आवश्यकता वाले बालकों का एक प्रकार दृष्टिहीन (अंधे) या कम दृष्टि वाला होता है। एक आंख से अंधे (काने) बालक भी दृष्टिहीनता के आंशिक शिकार होते हैं क्योंकि एक नेत्र से वे नहीं देख पाते हैं । कम देख पाने वाले बालकों के लिए आजकल चिकित्सकीय सुविधाएं उपलब्ध हैं तथा लेंस प्रत्यारोपण या चश्मे आदि द्वारा वे सामान्य बालकों की तरह देखने वाले हो जाते हैं । जो पूर्णत: दृष्टिहीन हैं उन्हें दृष्टिहीनों के लिए संचालित विशेष स्कूलों में शिक्षा व प्रशिक्षण लेना होता है किन्तु कम देख पाने वाले बालकों के लिए समावेशी विद्यालय में (जहाँ विशेष व सामान्य बालक साथ– साथ पढते हैं) शिक्षा की व्यवस्था सामान्य से बदलावों के साथ हो सकती है । पूर्ण अंधे बालक के लिए ब्रेल लिपि की पुस्तकों से अध्ययन हो सकता है । ब्रेल लिपि में मोटे कागज पर छिद्र व उभरे हुए बिन्दु बने होते हैं जिन्हें स्पर्श करते हुए अंधा व्यक्ति हाथों की सहायता से पढ़ सकता है। इस हेतु उसे विशेष विद्यालयों में प्रशिक्षित किया जाता है | आजकल बोलने वाली पुस्तकें (टाकिंग बुक्स) भी उपलब्ध हैं जो वस्तुतः लोंग प्लेइंग फोनोग्राफ रिकॉर्डस हैं इनका उपयोग भी अंधे व्यक्ति कर सकते हैं । ब्रेल विधि में बालक पढ़ भी सकता है और लिख भी सकता है। अंधे बालकों हेतु संगीत शिक्षा, गायन, वादन तथा व्यावसायिक शिक्षा जैसे कुर्सी बुनना, बाँस की टोकड़ी बनाना, रस्सी बनाना, लिफ्ट परिचालन,कागज व गत्ते के डिब्बे बनाना,लिफाफे बनाना, टेलीफोन ऑपरेटर का काम आदि सिखाए जा सकते हैं।

कम दृष्टि वाले के लिए विशेष कक्षा; सामान्य कक्षा में सामने की सीटों पर बैठना ताकि ब्लेकबोर्ड दिखाई दे; पर्याप्त रोशनी की कक्षा में व्यवस्था. ऐसी पुस्तकें जो 18 या 24 पाइंट के बड़े– बड़े अक्षरों में छपी हों (जबकि सामान्य पुस्तकें 10 या 12 पाइंट की होती हैं) का उपयोग, स्थानांतरित किये जा सकने वाले फर्नीचर की व्यवस्था की जानी चाहिए। कम दृष्टि वाले बालकों के लिए सामान्य बालकों के पृथक पाठ्यक्रम की आवश्यकता नहीं होती।

दृष्टिहीन व्यक्तियों/बालकों के लिए आधुनिक युग में शिक्षा हेतु तकनीकी उपकरण भी उपलब्ध हैं । आप्टाकॉन एक ऐसा कैमरा है जो प्रतिबिम्बों को अक्षरों में रूपांतरित करता है ।

यह मशीन प्रति मिनट 5 से 11 अक्षरों का रूपांतर करने में समर्थ है। इससे नेत्र ही समाचार पत्र पत्रिकाएं आदि पढ़ सकते हैं। दूसरी मशीन कुर्जब्रेल पढ़ने की मशीन एक छोटे से कम्प्यूटर के समान है जो छपे अंश को ध्वनि के रूप में रूपान्तरित करती है। तीसरी मशीन लघु बेल रिकॉर्डर के द्वारा एक साथ अनेक छात्रों को प्रशिक्षित किया जा सकता है। गणित विषय पढ़ाने में यह बहुत लाभदायक है।

(4) अधिगम बाधित विशेष बालक– अधिगम (सीखना) बाधित विशेष बालक प्रायः सामान्य कक्षा में 2 से 5 प्रतिशत तक हो सकते हैं। ये वे विशेष बालक है जिन्हें विषयों को सीखने में सार्थक कठिनाई होती है । हैमिल तथा लेघ के अनुसार “अधिगम अक्षमता या निःशक्तता एक ऐसा बुनियादी शब्द है जो ऐसे बालकों के समूह को इंगित करता है जिसे सामान्यतः सुनने, पढ़ने, लिखने, तर्क करने, अध्ययन करने तथा गणित करने आदि योग्यताओं में सार्थक रूप से कठिनाई आती है ।” अधिगम बाधित बालकों का सीखने का स्तर सामान्य बालकों की तुलना में निम्न कोटि का होता है इनकी निष्पत्ति (उपलब्धि) क्षमता कम होती है।

यद्यपि अधिगम बाधित बालक मानसिक रूप से पिछड़े बालक नहीं होते परन्तु शैक्षिक दृष्टि से वे सामान्य बालकों से कमतर होते हैं । कक्षा में सामान्य बालकों को जो कुछ पढ़ाया जाता है उसे ग्रहण करने में ये बालक असफल रहते हैं। ऐसे बालकों के मन में असफल होने की भावना घर कर जाती है । प्राय: ये बालक कक्षा में भगोड़ा होते हैं। इनका मन पढ़ाई में कम लगता है। इसका कारण है कि जो कुछ पढ़ाया जाता है उसे ये बहुत कम समझ पाते हैं । ये प्रायः परीक्षा में अनुत्तीर्ण होते हैं तथा एक ही कक्षा में कई वर्ष रहते हैं। तथापि इनकी बुद्धि लब्धि मंदबुद्धि बालकों से अधिक होती है। अधिगम बाधिता के प्रमुख रूप हैं–

(1) पठन या वाचन अयोग्यता, (2) लेखन अयोग्यता, (3) गणित की अयोग्यता, (4) ध्यान केन्द्रीकरण की अयोग्यता।

अधिगम बाधितों के संवेगात्मक कारण, घर का वातावरण, शैक्षिक कमी, शाला में शिक्षा की कमी आदि कारण भी होते हैं।

अधिगम बाधित बालकों की विशेष आवश्यकताएं होती हैं जिन्हें पूर्ण कर उनकी अधिगम असमर्थता का निवारण संभव है। अधिगम निःशक्तता के समाधान की प्रमुख विधियाँ है–

(अ) व्यावहारिक निर्देशन विधि जिसमें परिमार्जन मॉडल शिक्षण पुरस्कार तथा अनावश्यक दशाओं पर नियंत्रण कर समाधान किया जाता है।

(ब) संज्ञानात्मक व्यवहार परिमार्जन विधि जिसमें लक्ष्योन्मुख व्यवहार पर बल, संवेदनशीलता को कम करना, गणितीय क्रियाओं में मॉडल शिक्षण, अध्ययन शैली में सक्रिय बल, लेखन आयामों पर चरणबद्ध प्रयास द्वारा समाधान किया जाता है।

(स) कम्प्यूटर निर्देशन विधि जिसमें कम्प्यूटर कौशलों का निर्माण, संचालन द्वारा अधिगम को रोचक बनाया जाता है।

(5) मानसिक शिथिलता वाले धीमी गति के अधिगमकर्ता बालक– मानसिक शिथिलता या मंदता युक्त बालक की बौद्धिक विकास की स्थिति अन्य बालकों की तुलना में मंद होती है । मंदबुद्धि का आशय अल्प बुद्धि से है। यह प्राकृतिक होने के कारण इसका उपचार असंभव है । इनकी बुद्धिलब्धि (I.Q.) 50 से 70 तक आंकी गई है । क्रो और क्रो के अनुसार जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 70 से कम हो उन्हें मंद बुद्धि बालक कह सकते हैं। स्किनर का कथन है, “प्रत्येक कक्षा में छात्रों को एक वर्ष में शिक्षा का एक निश्चित कार्यक्रम पूरा करना पड़ता है। जो छात्र उसे पूरा कर लेते हैं उन्हें सामान्य छात्र कहा जाता है और जो छात्र उसे पूरा नहीं कर पाते उन्हें मंदबुद्धि छात्रों की संज्ञा दी जाती है।”

मंदबुद्धि या मानसिक शिथिलता वाले विशेष बालक सूक्ष्म चिंतन में असमर्थ रहते हैं। इनमें ध्यान केन्द्रित करने की क्षमता कम होती है तथा प्रायः ये बालक दूसरे बालकों का अंधानुकरण करते हैं। इनमें आत्मविश्वास की कमी होती है।

मानसिक शिथिलता वाले बालकों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ऐसे बालकों को धीमी गति से पढ़ाया जाना चाहिए ताकि वे समझ सकें । शिक्षक का व्यवहार ऐसे छात्रों के प्रति संवेदनशील व सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए । नव्यतम शिक्षण विधियों, दृश्य श्रव्य सामग्री सूक्ष्म शिक्षण व अधिक्रमित अधिगम का प्रयोग शिक्षक को मंदबुद्धि छात्रों हेतु करना चाहिए। शिक्षक द्वारा पाठ को बार– बार दोहराया जाना चाहिए तथा ऐसे बालकों को वैयक्तिक शिक्षण दिया जाना चाहिए । उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न करने के लिए उनके प्रयासों की सराहना करनी चाहिए।

धीमी गति के सीखने वाले बालकों सामान्य बालकों की अपेक्षा मंद गति से अधिगम कर पाते हैं। ऐसे बालकों की भी अवधान क्षमता अल्प होती है। उनमें आत्मविश्वास कम होता है। धीमी गति से सीखने वाले बालकों के लिए सकारात्मक अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है । शिक्षक को ऐसे विशेष बालकों की आवश्यकता के अनुरूप शिक्षण विधियों का कक्षा शिक्षण में प्रयोग करना चाहिए शिक्षक को पाठ को बार– बार दोहराया जाना चाहिए ताकि धीमी गति से सीखने वाले बालकों को सीखने में सुविधा हो । शिक्षक का संयमशील तथा संवेदनशील होने से ऐसे बालकों को प्रोत्साहन मिलता है।

(6) प्रतिभाशाली विशेष बालक– ऐसे विशेष बालक जिनकी बुद्धिलब्धि 120 से ऊपर हो प्रतिभाशाली बालक कहलाते हैं। पूरी कक्षा में एक दो छात्र ही ऐसे होते हैं। फिफ्टी सेवन्थ ईयर बुक ऑफ द नेशनल सोसाइटी फॉर दि एजुकेशन ने लिखा है, “एक प्रतिभाशाली बालक वह है जो लगातार उच्च स्तर का कार्य निष्पादन किसी भी सामान्य प्रयास के क्षेत्र में प्रदर्शित करता है । गिल फोर्ड ने 120 विभिन्न बौद्धिक योग्यताओं को बताया है जिनमें से प्रतिभाशाली बालक में एक या अधिक योग्यताएं हो सकती हैं जैसे संगीत,भाषा कला,यांत्रिक क्षमता, सामाजिक योग्यता आदि । इस प्रकार प्रतिभा न केवल बौद्धिक योग्यता का संकेत देती है बल्कि यह कला, संगीत, साहित्य आदि क्षेत्र में उच्च निष्पादन क्षमता का संकेत देती है।”

चूंकि ऐसे बालकों का शैक्षिक स्तर सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक होता है अतः शिक्षक को ऐसे बालकों के लिए पृथक कक्षा या कोचिंग की व्यवस्था करनी चाहिए । कमजोर बालकों के मार्गदर्शन के लिए भी प्रतिभाशाली बालकों की सेवाएं ली जा सकती हैं। ऐसे बालकों के लिए निर्धारित पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त विद्यालय, पुस्तकालय से चयनित पुस्तकें भी स्वाध्याय हेतु ऐसे बालकों को उपलब्ध कराई जानी चाहिए।

प्रतिभावान विशेष बालकों की शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति निम्नलिखित साधनों द्वारा की जाकर उनकी बुद्धि की प्रखरता को समुचित शिक्षा दी जा सकती है– विशेषीकृत शिक्षण विधियों का प्रयोग, समस्या केन्द्रित या योजना केन्द्रित विशेष पाठ्यक्रम द्वारा, पाठ्य सहगामी क्रियाओं में प्रतिभावान बालकों की सहभागिता से, संदर्भ पुस्तकों के अध्ययन से, सामूहिक कार्यों में प्रतिभावान बालकों को प्रोत्साहन देने, शैक्षिक पर्यटन व यात्राओं के आयोजन तथा उससे बालक को समुचित मार्गदर्शन प्रदान करने, प्रतिभावान बालक में नेतृत्व करने संबंधी गुणों का विकास करने, छात्रवृत्ति (मेधावी) द्वारा बालक को प्रोत्साहन प्रदान करने आदि द्वारा।

(7) लाभहीन वंचित वर्ग के विशेष बालक– सामाजिक तथा आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से वंचित बालकों से अभिप्राय ऐसे निर्धन विपन्न समाज की मुख्य धारा से कटे लोगों की संतानों से है जिन्हें शिक्षा के अवसर सुलभ नहीं हुए या कम सुलभ हुए हैं। वॉलमैन के शब्दो में, वंचित होना निम्न स्तरीय जीवन दशा या अलगाव को सूचित करता है,जो कि कुछ व्यक्तियों को उनके समाज की सांस्कृतिक उपलब्धियों में भाग लेने से रोकता है।” ऐसे लाभहीन वंचित बालकों में सम्मिलित हैं ऐसे बालक जिनके माता– पिता निरक्षर है ऐसी बालिकाएं जो शिक्षा के वरदान से शताब्दियों से अभावग्रस्त रही हैं, आदिवासी तथा अनुसूचित जाति तथा अल्पसंख्यक वर्ग के बालक, खानाबदोश परिवारों या घुमंतु परिवारों के शिक्षा से वंचित बालक इत्यादि।

यद्यपि अधिकांश लाभहीन वंचित बालक बौद्धिक दृष्टि से अन्य सामान्य बालकों के समान ही होते हैं परन्तु शिक्षा से वंचित रहने के कारण उनकी क्षमताओं– योग्यताओं का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता। ऐसे बालकों की विशेष शैक्षिक आवश्यकताएं ये होती हैं–

(1) शिक्षण संस्थाओं में भारी फीस (शुल्क) चुका पाने में पारिवारिक असमर्थता,

(2) पुस्तक, स्टेशनरी,गणवेश, बस्त, जूतों आदि के क्रय करने में आर्थिक असमर्थता,

(3) आर्थिक अभाव के कारण छात्रवृत्ति की अपेक्षा,

(4) नगरों में या घर से दूर स्थानों पर स्थित विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने हेतु आवागमन के साधनों या छात्रावास आश्रम की सुविधाओं का अभाव,

(5) परिवार में शिक्षा हेतु अध्ययन हेतु सहायता करने वाले माता– पिता, ट्यूटर की सुविधा का अभाव,

(6) शिक्षा प्राप्त करने के आधुनिक उपकरण– कम्प्यूटर, टेबलेट, स्मार्ट फोन का अभाव

(7) सांस्कृतिक कारणों से शिक्षा के महत्त्व को न समझने के कारण विद्यालयों से वंचित होना इत्यादि।

वंचित अलाभप्रद विशेष बालकों की विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उनके माता– पिता को साक्षर व जागरूक बनाना, अच्छे स्कूलों में नि:शुल्क प्रवेश दिलाकर बस्ते, गणवेश, पस्तक कलम लेखन सामग्री आदि निःशल्क प्रदाय करना नामांकन या प्रवेश के लिए शालाओं में विशेष अभियान चलना, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तकों को रोचक व मनोरंजक तथा क्रियात्मक बनाना ताकि शिक्षा से असंतुष्ट होकर बालक पढ़ना न छोड़ दें। इत्यादि ।

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