विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की प्रकृति, प्रकार तथा विशेषताएं बताइए।

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विशेष आवश्यकताओं वाले बालक ‘विशिष्ट बालक’ भी कहे जाते हैं। सामान्य बालकों (नॉर्मल चिल्ड्रन) से विशिष्ट वाला (एसेप्शनल चाइल्ड) की प्रकृति में भिन्नता पाई जाती है। सामान्य बालक औसत शरीर वाले एवं स्वस्थ अंगों वाले होते हैं तथा सामान्य शारीरिक श्रम वाले कार्यों को करने में किसी प्रकार की बाधा का अनुभव नहीं करते । इनका बौद्धिक स्तर प्रायः सामान्य बुद्धिलब्धि अर्थात् 90 से 110 की सीमा के मध्य होता है। इनकी अधिगम (सीखने) की गति भी औसत होती है। ये संवेगात्मक रूप से संतुलित होते हैं जबकि विशिष्ट बालक औसत बालकों से भिन्न होते हैं। या तो वे 120 बुद्धिलब्धि या उससे अधिक वाले प्रतिभाशाली बालक होते हैं अथवा शारीरिक, मानसिक दृष्टि से बाधित बालक होते हैं ।

विशिष्ट आवश्यकताओं वाले बालकों की प्रकृति विभिन्न मनोवैज्ञानिकों, शिक्षाविदों द्वारा उनकी परिभाषाओं से स्पष्ट होती है । क्रो एवं क्रो के अनुसार, “विशिष्ट प्रकार या विशेष पद किसी गुण या उन गुणों से युक्त व्यक्ति पर लागू होता है जिसके कारण वह व्यक्ति साथियों का ध्यान अपनी ओर विशिष्ट रूप से आकृष्ट करता है तथा इससे उसके व्यवहार की अनुक्रियाएं भी प्रभावित होती हैं।” एम.ए. किर्क अमेरिकन नेशनल सोसाइटी फॉर द स्टडी ऑफ एजुकेशन’ के अनसार “एक विशिष्ट बालक वह है जो कि शारीरिक मानसिक संवेगात्मक एवं सामाजिक विशेषताओं में किसी सामान्य बालक से उस सीमा तक विचलित होता है जब वह अपनी क्षमताओं के अधिकतम विकास हेतु सहायता, निर्देशक, विद्यालय कार्यक्रमों में परिमार्जन तथा विशिष्ट शैक्षिक सेवाओं की आवश्यकता रखता है।” हावर्ड (1996) के अनुसार, “विशिष्ट बालकों की श्रेणी में वे बच्चे आते हैं जिन्हें सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है या जिनका मानसिक या शैक्षिक निष्पादन या सृजन अत्यन्त उच्च कोटि का होता है या जिनको व्यावहारिक, सांवेगिक एवं सामाजिक समस्याएं घेर लेती है या वे विभिन्न शारीरिक अपंगताओं या निर्बलताओं से पीड़ित रहते हैं जिसके कारण ही उनके लिए अलग से विशिष्ट प्रकार की शिक्षा व्यवस्था करनी होती है।”

अत: एक ऐसा बालक जो कि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांवेगिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं के कारण किसी सामान्य या औसत बालक से उस सीमा तक विशिष्ट रूप से विचलित तथा भिन्न होता है जहाँ कि अपनी योग्यताओं, क्षमताओं एवं शक्तियों को समुचित रूप से विकसित करने के लिए परम्परागत शिक्षण विधियों में परिमार्जन या विशिष्ट प्रकार के कार्यक्रमों की आवश्यकता होती है, विशिष्ट बालक कहा जाता है । इस श्रेणी में शारीरिक रूप से अक्षम, प्रतिभाशाली, सृजनात्मक, मंद बुद्धि आदि प्रकार के बालक सम्मिलित है। इन विभिन्न प्रकार के विशिष्ट बालकों की प्रकृति भी भिन्न होती है।

विशिष्ट बालकों के विभिन्न प्रकारों में उनकी प्रकृति तथा विशेषताओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है–

(1) प्रतिभाशाली बालक– जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 120 से अधिक पाई जाती है वे प्रतिभाशाली बालक के अन्तर्गत आते हैं। स्कीमर तथा हैरीमन की यह मान्यता है कि प्रतिभाशाली बालक का प्रयोग उन एक प्रतिशत बालकों के लिए किया जाता है जो सबसे अधिक बुद्धिमान है। क्रो एंड क्रो की यह मान्यता है कि प्रतिभाशाली बालक दो प्रकार के होते हैं । एक तो वे बालक जिनकी बुद्धिलब्धि 130 से अधिक होती है और दूसरा वे बालक जो कला, संगीत, गणित अभिरूप आदि में प्रतिभाशाली सृजनशील होते हैं । टर्मन तथा ओडन की यह मान्यता है कि प्रतिभाशाली बालक शारीरिक गठन, सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व के लक्षणों, विद्यालय, ‘ उपलब्धि, खेल और रुचियों की बहुलता में सामान्य बालकों से श्रेष्ठ होते हैं ।”

प्रतिभाशाली बालकों की प्रकृति निम्नानुसार है–

(1) वे नवीन ज्ञान शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं।

(2) उनके किए पुनरावृत्ति की कम आवश्यकता पड़ती है।

(3) उनमें तार्किक क्षमन, मनन क्षमता, स्मरण शक्ति, सामान्यीकरण की क्षमता अधिक होती है।

(4) उनमें शब्द भंडार में व्यापकता होती है।

(5) उनकी रुचियों में पर्याप्त वैभिन्य दिखाई देता है ।

(6) उन्हें सामान्य बालकों में समायोजित करने में कठिनाई होती है।

(7) इनका सामान्य ज्ञान अधिक होता है ।

प्रतिभाशाली बालक की विशेषताओं/लक्षणों को कुछ मनोवैज्ञानिक ने इन वर्गों में बाँटा है–

(1) शारीरिक दृष्टि से इनकी ज्ञानेन्द्रियाँ तीव्र होती है। ये सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक स्वस्थ होते हैं ।

(2) मानसिक दृष्टि से इनकी बुद्धि लब्धि 120 से अधिक होती है।

(3) रुचियों की दृष्टि से इन बालकों की विशेषताओं में मुख्यतः तुलनात्मक, कल्पना प्राप्ति, धैर्य, तर्क व खोजबीन की प्रवृत्ति पायी जाती है ।

(4) मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से इनमें समायोजन, गहनता, सूझ प्रमुख हैं।

(5) मानवीय गुणों की दृष्टि से इनमें ईमानदारी, सच्चाई व पारिवारिक जीवन की दृष्टि से ये अधिक समायोजनशील, सहयोगात्मक, विनम्र,सहनशील, जिज्ञासु,शांतिप्रिय प्रकृति के होते हैं ।

(6) खेलकूद व सहगामी क्रियाओं की दृष्टि से यह पाया गया है कि कुछ ही प्रतिभाशाली रुचान प्रदर्शित करते हैं।

स्कीनर तथा हैरीमैन द्वारा प्रतिभाशाली बालकों की कुछ विशेषताएं बताई गई हैं जिनमें प्रमुख हैं–

(1) विशाल शब्द कोष,

(2) मानसिक प्रक्रिया में तीव्रता,

(3) दैनिक कार्यों में भिन्नता,

(4) सामान्य अध्ययन में रुचि,

(5) अध्ययन में अद्वितीय समानता,

(6) अमूर्त विषयों में रुचि,

(7) आश्चर्यजनिक अन्तर्दृष्टि,

(8) मंदबुद्धि व सामान्य बालकों में अरुचि,

(9) पाठ्य विषय में अत्यधिक रुचि,

(10) विद्यालय के कार्यों के प्रति बहुधा उदासीनता,

(11) बुद्धि परीक्षणों में उच्च बुद्धिलब्धि 130– 170 तक।

(2) मानसिक मंदबुद्धि बालक– सामान्यतः मानसिक मंदता के संबंध में यह धारणा है कि मानसिक रूप से मंदबुद्धि बालकों की मानसिक योग्यताएं कम होती हैं। ऐसे बालकों की बुद्धिलब्धि भी साधारण बालकों की बुद्धिलब्धि से कम होती है। स्कीनर के अनुसार मानसिक मंदता वाले बालकों के लिए अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया जाता है जैसे– अल्प बुद्धि, विकल बुद्धि मूढ बालक, बुद्धि शिथिलता वाले बालक । सन 1913 तक मंदबुद्धि और पिछडे हुए बालकों में कोई भी अंतर नहीं किया जाता था। इसके बाद जैसे– जैसे मनोविज्ञान का विकास हुआ है वैसे– वैसे इन दोनों में विभिन्नता की जाने लगी। अमेरिका में मानसिक मंदता को इस प्रकार से परिभाषित किया गया– मानसिक मंदता औसत से निम्न कार्यक्षमता न उल्लेख करती है और इस कारण ऐसे बालकों में निम्नलिखित में से एक से अधिक अनुकूल व्यवहार की कमी रहती है–

(1) परिपक्वता,

(2) अधिगम,

(3) सामाजिक समायोजन।

क्रो एवं क्रो मानते हैं कि जिन बालकों की बुद्धिलब्धि 70 से कम होती है, वे मंदबुद्धि बालक हैं । स्कीनर के अनुसार प्रत्येक कक्षा के छात्रों को एक वर्ष में शिक्षा का एक निश्चित पाठ्यक्रम पूरा करना पड़ता है पर जो बालक इस पाठ्यक्रम को पूरा नहीं कर पाते मंदबुद्धि बालक कहलाते हैं।

मंदबुद्धि बालक कक्षा में पृथक रहना चाहते हैं और इनकी प्रकृति असामाजिक व असमायोजित रहती है। इनमें हताशा व निराशा भी रहती है। इनकी मानसिक आयु (M.A.) कम होती है अर्थात् ये अपनी कक्षा का कार्य ठीक प्रकार से करने में असमर्थ कहते हैं। इनकी रुचियाँ भी भिन्न होती हैं। इनमें ज्ञानेन्द्रिय संबंधी दोष पाए जाते हैं।

मंदबुद्धि बालकों की प्रमुख विशेषताएं ये हैं–

(1) आत्म विश्वास की कमी,

(2) असंतुलित व्यवहार,

(3) कम बुद्धिलब्धि,

(4) सूक्ष्म चिंतन का अभाव,

(5) संवेगात्मक अस्थिरता,

(6) व्यवहार कुशलता की कमी,

(7) उत्तरदायित्व वहन करने में असमर्थ,

(8) सीखने की क्षमता में कमी,

(9) ज्ञानेन्द्रिय दोष,

(10) अपनी मान्यताओं पर अटल विश्वास,

(11) अधिगम स्थानांतर में कमी,

(12) निर्णय लेने में परिस्थितियों की अवहेलना,

(13) कार्य– कारण के संबंध में बेबुनियाद धारणाएं रखना है जैसे अधिक बुखार के माप को थर्मामीटर पर दोषारोपण करना,

(14) पढ़ाई में असफलता,

(15) दूसरे बालकों को मित्र बनाने की इच्छा किन्तु मूल्यों के द्वारा मित्र बनाए जाने की कम इच्छा।

(3) अधिगम बाधित (लर्निंग डिएबल्ड) बालक– सीखने संबंधी कमी या असमर्थता वाले बालक विशेष आवश्यकता वाले इस वर्ग में आते हैं। ये बालक मानसिक रूप से मंद नहीं होते परन्तु सामान्य बालकों की तुलना में शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं। कक्षा में सामान्य बालकों को जो कुछ पढ़ाया जाता है उसे ग्रहण करने में ये बालक असफल रहते हैं । इस कारण से वे दुःखी व तनावग्रस्त रहते हैं। उनके मन में ऐसी धारणा बन जाती है कि जीवन में सफल नहीं हो सकते। कुछ बच्चे शाला से भागकर आवारागर्दी करने लगते हैं। प्राथमिक स्तर पर लगभग 20 प्रतिशत बालक अधिगम दृष्टि से अयोग्य होते हैं। प्रायः अधिगम बाधित बालक पढ़ने,समझने, गणित करने,तर्क– वितर्क करने में बहुत कम उपलब्धि का प्रदर्शन करते हैं । अधिगम बाधित को प्रकृति को हैमिल बेच, मौक नट और लारसन ने निम्न शब्दों में परिभाषित किया है– “अधिगम असमर्थता एक ऐसा मूल शब्द है जो ऐसे समूह की ओर संकेत करता है जो श्रवण, वाचन, अध्ययन, लेखन, तर्क और गणितीय जैसी योग्यताओं में सार्थक रूप से कठिनाई का अनुभव करते हैं। ये कठिनाइयाँ किसी भी व्यक्ति की आंतरिक होती हैं जो केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र की विकृत क्रिया के परिणामस्वरूप घटित होती हैं।”

क्लीमेंट से अधिगम असमर्थता से संबंधित 99 विशेषताओं की सूची बनाई है जिनमें से ये सभी अधिगम असमर्थ बालकों में पाई जाती हैं–

(1) अतिक्रियाशीलता,

(2) प्रात्यक्षिक गतिक न्यूनता,

(3) सांवेगिक अस्थिरता,

(4) सामान्य समन्वय का अभाव,

(5) सामान्य समन्वय का अभाव,

(5) अवधान (ध्यान) समस्या,

(6) प्रोत्साहनीय,

(7) स्मृति व चिंतन अभाव,

(8) विशेष शैक्षिक समस्याएं,

(9) तांत्रिकीय तरंगों में असमरूपता।

(4) गति संबंधी बाधा से ग्रसित बालक– चलने– फिरने,उठने, बैठने में न्यूनता या कमी रखने वाले बालक इस श्रेणी के अंतर्गत आने वाले विशेष आवश्यकता वाले बालकों में आते हैं। इसमें पर्णत: असमर्थ तथा कम मात्रा में असमर्थता से यक्त दो प्रकार के बालक आ जन्म से, दुर्घटना से या बीमारी (लकवा) पोलियों से ग्रसित होकर ये बालक चलने फिरने में पर्ण असमर्थ या बिना सहारे के चलने– फिरने में असमर्थ रहते हैं। वैशाखी, ट्रायसिकल, व्हील चेयर के उपयोग से अनेक अपंग बालक आजा सकने में समर्थ होते हैं। क्रो व क्रो ने विकलांग, दिव्यांग या निःशक्त बालक की परिभाषा इस प्रकार दी है– “वह बालक जिसका शारीरिक दोष उसे साधारण क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है विकलांगता से दुख बालक कहा जाएगा।”

गत्यात्मक बाधा ग्रसित बालकों की कुछ प्रमुख विशेषताएं ये हैं–

(1) पोलियो बीमारी के कारण, प्रमस्तिष्कीय पक्षाघात आदि से ग्रसित ऐसे बालक या तो सामान्य बुद्धि के होते हैं या असामान्य क्षमता वाले।

(2) शारीरिक रूप से ये सामान्य बालकों से अक्षम या निर्बल होते हैं।

(3) विकलांगता वाले बालक शिक्षा प्राप्त करने में बाधा का सामना करते हैं।

(4) चलने– फिरने में कमी होने के कारण खेलकूद, भाग– दौड़ आदि में से अच्छा निष्पादन नहीं दे पाते।

(5) सामाजिक कार्यक्रमों में अधिक सक्रिय नहीं होते।

(6) विकलांगता के कारण वे कभी– कभी व्यंग्य– उपहास के पात्र बन जाते हैं।

(7) उनमें अपनी विकलांगता को लेकर हीन भावना उत्पन्न हो जाती है।

(8) वे प्रभावी व्यक्तित्व के स्वामी नहीं बन पाते।

(9) विकलांग बालक अपनी कमी प्रायः किसी न किसी दूसरे क्षेत्र में पूर्ण करते हैं जैसे संगीत, कला, वाद– विवाद, अध्ययन आदि ।

(10) कुछ अपंग बालक कृत्रिम अंग लगाने, उपकरणों, फिजियोथैरेपी से कुछ सीमा तक ठीक हो जाते हैं।

(5) नेत्रहीन या दृष्टि क्षति से युक्त बालक– इस वर्ग में पूर्ण अंधे, काने (एक आंख, वाले) कम दृष्टि रखने वाले बालक आते हैं। यदि बालक की दृष्टि एक्यूटी 20/200 या इससे कम पाई जाती है तो उसे दृष्टि क्षतियुक्त बालक कहा जाता है। पूर्णांध बालक को आंख को छोड़कर नाक, कान, मुँह, हाथ (त्वचा) आदि अन्य जागृत इन्द्रियों पर निर्भर होना पड़ता है । कहा गया है कि अंधे अक्षम नहीं होते वास्तव में वे भिन्न तरीके से सक्षम होते हैं। साधारण दृष्टि क्षति युक्त बालक चिकित्सा, आंख के ऑपरेशन, चश्मा आदि से देख पाते हैं। पूर्ण रूप से अंध बालक ब्रेल लिपि में लिखित पुस्तकें पढ़ सकते हैं। पूर्ण अंध या अधिक दृष्टि क्षति युक्त बालकों की शिक्षा विशेष विद्यालयों में तथा शेष सामान्य रूप से दृष्टि क्षतियुक्त बालक समावेशी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने हेतु सक्षम होते हैं।

दृष्टिहीन बालकों में निम्नलिखित विशेषताएं दिखाई देती हैं–

(1) बालक का बार– बार आंखों को मलना,

(2) एक आंख खोलना और एक आंख बंद करना,

(3) प्रकाश के प्रति संवेदनशील होना,

(4) किसी कार्य को करते हुए चेहरे की अभिव्यक्ति में असामान्य होना,

(5) आंखों में दर्द का अनुभव करना व जलन का अहसास होना,

(6) विषय सामग्री को बहुत नजदीकी से पढ़ना या दूर से पढ़ना,

(7) जीवन की वास्तविकता से अनभिज्ञ होना,

(8) आत्मविश्वास की कमी,

(9) एक साथ दो– दो वस्तुएं दिखाई देना,

(10) पढ़ते हुए बीच– बीच में विषय वस्तु को छोड़ देना,

(11) गति मंद होना,

(12) सामूहिक कार्यों में कम सहभागिता,

(13) नेत्र के अलावा अन्य ज्ञानेन्द्रियों का संवेदनशील होना,

(14) तीव्र समय गति होना,

(15) अपने आसपास के वातावरण पर नियंत्रण में कमी,

(16) अमूर्त (एब्स्ट्रेक्ट) चिंतन में कमी,

(17) 10– 12 पाइंट अक्षरों वाली किताबों से पढ़ पाने में असमर्थता।

(6) श्रवण क्षति युक्त बालक– बधिर या कम (ऊंचा सुनने वाले) सुनने वाले बालक इस वर्ग में आते हैं। कुछ बालक जन्म से बधिर होते हैं तथा कुछ बीमारी, दुर्घटना आदि के । कारण श्रवण क्षति मुक्त हो जाते हैं। सुनने में अक्षमता के कारण ऐसे बालकों की बोलने की शक्ति का भी विकास तथा भाषा का विकास नहीं हो पाता। शाला– कक्षा में ऐसे बालकों की शैक्षिक उपलब्धि कम होती है । इस प्रकार के बालक पाठ्यसहगामी क्रियाओं में भाग नहीं ले पाते क्योंकि उनका श्रवण दोष बाधा उत्पन्न करता है । अल्प श्रवण बाधित या ऊंचा सुनने वाले बालकों को प्रायः 3 श्रेणियों में बाँटा जाता है–

(1) साधारण श्रवण बाधित जिनकी श्रवण क्षमता का स्तर 65 डेसीबल होता है ।

(2) मध्यम श्रवण बाधित बालक जो प्रायः 65 डेसीबल स्तर पर भी नहीं सुन पाते तथा,

(3) गंभीर श्रवण बाधित बालक जिनमें 70– 90 डेसीबल तक की श्रवणबाधिता होती है।

श्रवण बाधित बालकों की प्रमुख विशेषताएं (लक्षण) इस प्रकार हैं–

(i) इनमें आत्म विश्वास की कमी होती है ।

(ii) ऐसे बालक अपने भविष्य के प्रति चिंतित रहते हैं ।

(iii) ऐसे बालक प्रायः तनावग्रस्त रहते हैं।

(iv) भाषा का विकास न होने से इनका बौद्धिक विकास भी कम हो जाता है ।

(v) ऐसे बालकों में सामाजिकता का अभाव दिखाई देता है।

(vi) बधिर बालक प्रायः मूक भी होते हैं।

(7) लाभहीन वंचित वर्ग के बालक– सामाजिक एवं आर्थिक रूप से लाभहीन वंचित बालकों में ये बालक आते हैं–

(i) निरक्षर परिवार से आने वाले बालक,

(ii) अनुसूचित जनजाति

(आदिवासी) बालक,

(iii) अनुसूचित जाति के बालक,

(iv) अल्पसंख्यक बालक,

(v) बालिकाएं,

(vi) घुमंतु परिवारों के बालक जैसे ईट भट्टा श्रमिक, लोहा पिट्टा, बँटाईदार, झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले अस्थाई निवास करने वाले परिवार के बालक आदि । गार्डन ने इन्हें परिभाषित करते हुए लिखा है, “वंचित होना बाह्य जीवन की उद्दीपक दशाओं की न्यूनता है।” अर्थात् निर्धनता, निरक्षरता, मुख्यधारा से दूर पहाडों जंगलों में निवास आदि से ऐसे बालक लाभहीन या वंचित कहलाते हैं । बालमैन के अनुसार, “वंचित होना निम्नस्तरीय जीवन दशा या अलगाव की ओर संकेत करता है जो कि कुछ व्यक्तियों को उनके समाज की सांस्कृतिक उपलब्धियों में भाग लेने से रोक देता है।”

इस वर्ग के बालकों में निम्न विशेषताएं पाई जाती हैं–

(1) ऐसे बालकों का पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्तर निम्न होता है।

(2) ऐसे बालक संसार, देश, प्रांत नगर में घटित होने वाली घटनाओं से प्रायः अनभिज्ञ होते हैं।

(3) इनका बौद्धिक स्तर कम होता है।

(4) इनमें भाषा का विकास कम होता है ।

(5) सुसंस्कारों अच्छे मेंबर्स कम पाए जाते हैं ।

(6) इनमें प्रदर्शन करने की भावना प्रबल होती है।

(7) ये प्रायः अन्तर्मुखी होते हैं।

(8) पूर्वाग्रह ग्रसित भी होते हैं ।

(9) जीवन के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण प्रायः इनमें पाया जाता है ।

(10) रूढ़िवादी, अंधविश्वासी होते हैं ।

(11) इनमें युयुत्सा या लड़ने की भावना पाई जाती है ।

(12) असुरक्षा से ग्रसित होते हैं ।

(13) इनकी वाचिक योग्यता कम होती है ।

(13) समस्या समाधान की क्षमता कम होती है।

(14) प्रायः अनुत्तीर्ण होने, रोजी कमाने आदि कारणों से पढ़ना या शाला जाना त्याग देते हैं।

(15) स्कूल अध्ययन में इनके अभिभावकों, पालकों की रुचि कम होती है।

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