विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालें।

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किसी भी सामाजिक एवं शैक्षिक प्रणाली की परिपक्वता की महत्त्वपूर्ण कसौटी है कि वह समाज अपने विकलांग सदस्यों की ओर कितना ध्यान देता है। यही कारण है कि शैक्षिक व नवाचारों के माध्यम से शिक्षा जगत में सुधार लाया जा रहा है, जिसके फलस्वरूप शैक्षिक परिवर्तन ने शैक्षिक समस्याओं नवीन ज्ञान एवं शैक्षिक तकनीक के माध्यम से शैक्षिक प्रगति के नूतन आयाम प्रस्तुत किए हैं। परिवर्तन की इस तीव्र व गत्यात्मक प्रक्रिया ने “विशिष्टीकरण” की माँग को जन्म दिया है अतः विकलांग बच्चों के लिए सहायताओं, नवीन उपकरणों व यंत्रों व नवीन प्रणालियों को विकसित रूप प्रदान किया जा रहा है।

सामाजिक परिवर्तन, राष्ट्रीय पुनरुत्थान और विकास की सबसे पहली आवश्यकता है शिक्षा का समुचित प्रचार व प्रसार एवं मानव संसाधन का विकास । संसार के सभी देशों में विकलांग बालकों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ है, इन बालकों की समुचित शिक्षा के लिए प्रचार एवं प्रसार पर अत्यन्त बल दिया जा रहा है। राष्ट्रीय विकलांग एवं पुनर्वास सूचना केन्द्र दुबारा विकलांगता व सम्बद्ध क्षेत्रों के बारे में व्यापक संचार योजना पैकेज तैयार किया गया है।

सम्पूर्ण विश्व में आज समता एवं अवसर की समानता के लिए शिक्षा की माँग हो रही है। सामान्यतः सभी छात्रों की ज्ञान के किसी विशेष क्षेत्र में विशेष आवश्यकताएं होती है, तब विकलांग बालकों के लिए ही यह क्यों कहा जाए कि उनकी विशेष आवश्यकताएं होती है । यह तो सभी बालकों की आवश्यकताएं पूर्ण करने का प्रश्न है इसलिए “सभी के लिए शिक्षा” में विकलांग बालकों की विशेष आवश्यकताओं को भी शामिल किया गया है।

विकलांग बालकों सहित सामान्य कक्षाओं में सभी बालकों की शिक्षा हो, इसी को “मुख्य धारा से मिलाना” कहते हैं, जिससे शिक्षा की मुख्य धारा में सभी को तैरने का अवसर मिलता है। इससे विकलांग बालकों की शिक्षा हो, इसी को “मुख्य धारा में मिलाना कहते हैं, जिससे शिक्षा की मुख्य धारा में सभी को तैरने का अवसर मिलता है। इससे विकलांग बालकों की शिक्षा की आवश्यकता की पुष्टि होती है । सारांशत: शिक्षा प्रत्येक बालक को समान अवसर प्रदान करने वाली होनी चाहिए। यह लोकतंत्र की अनिवार्यता ही नहीं, जिम्मेदारी भी है।”

प्रकृति की सम्पूर्ण रचना के पीछे क्रमबद्ध व्यवस्था है । इस रचना की व्यवस्था तथा चिंतन का परिणाम है, व्यक्तिगत विभिन्नताएं । मनोशारीरिक असमानताओं को ही व्यक्तिगत विभिन्नता कहते हैं। यही कारण है कि सभी बालक एक समान नहीं होते हैं। इनमें अधिकांशतः सामान्य बालक व कुछ विशिष्ट बालक होते हैं। विशिष्ट बालक सामान्य बालकों से इतना अधिक भिन्न होते हैं कि इनको अलग से पहचाना जा सकता है।

विशेष आवश्यकता वाले बालकों हेतु शिक्षा का प्रावधान :

भारतीय संविधान में प्रावधान किया गया है कि संविधान लागू होने के पश्चात् से 10 वर्षों के अंतर्गत सभी राज्य 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेंगे। राज्य अपनी आर्थिक क्षमता के अन्तर्गत विकलांग बालकों के लिए जीवनयापन शिक्षा एवं रोजगार की व्यवस्था करेगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत बालकों व विकलांग बालकों के लिए किए गए प्रावधान का वर्णन किया गया। “जो बच्चे विकलांग हों या विक्षिप्त भावनाओं वाले हों या जिनका मानसिक विकास कम हुआ हो, उनको विशेष उपचार, शिक्षा पुनः स्थापन और देखभाल की सुविधायें प्रदान की जायेगी।”

नई राष्ट्रीय शिक्षा– नीति में बालकों व विकलांग बालकों के लिए प्रावधान के अन्तर्गत वर्णन किया गया कि भारतीय संसद ने मानवतावादी आदर्शों की पुनः स्थापना करने का निश्चय दोहराया है। शिक्षा वर्तमान तथा भविष्य के लिए एक अद्वितीय विनियोजन है। इस नीति के अनुसार अनुमानतः 5 प्रतिशत विकलांग बच्चे ही विशेष विद्यालयों में शिक्षा एवं रोजगार हेतु सुविधाएं पाते हैं अतः इन्हें सामान्य बालकों के साथ सहभागी के रूप में समन्वयन करके उन्हें सामान्य विकास के लिए तैयार करना है जिससे वह “शिक्षा की मुख्यधारा में सबके साथ तैर सके।”

20 नवम्बर, 1959 को संयुक्त राष्ट्र की महासभा में 78 देशों के प्रतिनिधियों की एक वृहद सभा के बालकों के अधिकारों के घोषणा पत्र को पारित किया व 9 दिसम्बर, 1975 को संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में विकलांग व्यक्तियों के घोषणा पत्र को पारित किया।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1981 अंतर्राष्ट्रीय विकलांग वर्ष घोषित किया था जिसके फलस्वरूप विकलांगों के हित में अनेक योजनायें व कल्याणकारी कार्यक्रम सरकार व स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा प्रारंभ किये गये । विकलांगों की बहुमुखी समस्याओं एवं आवश्यकताओं के प्रति समस्त विश्व में चेतना लाने के लिए 20 दिसम्बर 1959 में ज्यूरिक सम्मेलन में विश्व विकलांग दिवस का शुभारम्भ हुआ तब से मार्च के तृतीय रविवार को यह दिवस विश्व के अनेक राष्ट्रों में मनाया जाता है।

विद्यालय व उनके प्रकार– कोठारी कमीशन के अनुसार अध्ययन की दृष्टि से विशेष आवश्यकता वाले बालकों को तीन प्रकार से बाँटा जा सकता है इन्हीं प्रकारों के आधार पर विद्यालयों के प्रकार भी तीन प्रकार के निर्धारण किये गये हैं–

(i) शारीरिक विकलांगों के विद्यालय

(ii) बौद्धिक विकलांगों के विद्यालय

(iii) सामाजिक विकलांगों के विद्यालय

पाठ्यक्रम– सभी प्रकार के विशेष योग्यता वाले बालकों के लिए एक ही प्रकार का पाठ्यक्रम का निर्धारण नहीं कर सकते क्योंकि सभी बालकों की समस्यायें अलग– अलग होती हैं । हम दृष्टि बाधित विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम को सभी विकलांगिक अक्षम विद्यार्थियों पर लागू नहीं कर सकते अतः इन सभी के लिये हमें पृथक– पृथक पाठ्यक्रम बनाने की आवश्यकता होती है।

(1) डॉ. केम्पटन के अनुसार दृष्टि बाधित विद्यार्थियों के लिये भी पाठ्यक्रम के उद्देश्य वही होने चाहिए जो सामान्य दृष्टि वालों के लिये होते हैं अत: पाठ्यक्रम में भी समानता रखी जा सकती है। निम्न विषयों को सम्मिलित किया जा सकता है–

(अ) गृह विज्ञान, (ब) संगीत, (स) शारीरिक कलाएं, (द) गतिशीलता

इन पाठ्यक्रम में जान प्रदान करने हेतु विद्यालयों को विशिष्ट पाठन विधियों को अपनाना आवश्यक है ऐसी सहायक सामग्री का प्रयोग करना जिससे स्पर्श व श्रवण इन्द्रियों का विकास हो सके जैसे रेडियो ग्रामोफोन, टेप– रिकॉर्डर आदि।

(2) श्रवण बाधित बालकों की इन्द्रियाँ निष्क्रिय होती हैं व अन्य इन्द्रियाँ विकसित होती हैं। इन बालकों के लिए दृश्य साधनों से ही शिक्षा प्रदान की जा सकती है। इन बालकों को ऐसी शिक्षा व्यवस्था करने की आवश्यकता है जो सामान्य गुणों का विकास करने के अतिरिक्त उन्हें व्यावसायिक निपुणता प्रदान कर सके।

(3) जिन बालकों के पैरों में दोष होता है वैसे वे ठीक प्रकार से देख सुन सकते हैं। इनके लिए भी सामान्य बालकों की तरह ही पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए। विद्यालय में निम्न व्यवस्था की जानी चाहिए–

(अ) घुमावदार कुर्सियों की व्यवस्था

(ब) बिजली के टंकण यंत्र

(स) विद्यालय भवन में उपयुक्त फर्शों का निर्माण आदि ।

(4) मानसिक दुर्बलता से ग्रसित बालकों को तीन प्रकार में बाँटा जा सकता है–

(अ) जड़ बुद्धि, (ब) निम्न बुद्धि, (स) सामान्य से निम्न

इन तीनों प्रकार के बालकों की विशेषताएं पृथक होती हैं अतः सबके लिए पृथक– पृथक पाठ्यक्रम निर्धारित किया जाना चाहिए।

जड़ बुद्धि किसी प्रकार की सामान्य शिक्षा सरलतापूर्वक ग्रहण करने योग्य नहीं होते हैं अतः उनके पाठ्यक्रम में हस्तशिल्प को प्रमुखता दी जानी चाहिए। साथ ही केवल स्थूल रूप में ही धान दिया जाना चाहिए। निम्न बुद्धि बालक विशेष प्रयासों से किसी स्तर विशेष तक सामान्य शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं किन्तु इन्हें विद्यालयों तथा पाठन विधियों की आवश्यकता होती है। इनके पाठ्यक्रम में सामान्य शिक्षा के साथ हस्तशिल्प भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। “करके सीखना” सीखने की विधि इनके लिए सर्वदा उपयुक्त है । दृश्य व श्रव्य सामग्री का प्रयोग इनके लिए ज्यादा उपयुक्त है।

तीसरी श्रेणी के बालकों के लिए विशेष प्रयासों के साथ शिक्षा प्रदान की जा सकती है। पाठ्यक्रम समान रखा जा सकता है जिसके लिए शिक्षकों को कुछ हद तक शिक्षित होना भी आवश्यक है।

विशेष आवश्यकता वाले बालकों के व्यक्तिगत जीवन में सरसता, सौन्दर्य तथा संतुलन लाने के लिए यह आवश्यक है कि इनकी यथासंभव शैक्षिक व व्यावसायिक सहायता की जाये। सामाजिक दृष्टिकोण से भी इनकी शिक्षा व्यवस्था करना न केवल आवश्यक है बल्कि महत्त्वपूर्ण भी है। ऐसा न किया जाने पर वे सामाजिक समस्याओं का निर्माण करेंगे व समाज पर एक भार स्वरूप रहेंगे । अतः हम कह सकते हैं कि व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों ही दृष्टिकोणों से विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा तथा प्रशिक्षण की व्यवस्था करना अत्यन्त आवश्यक है

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