विशेष बालकों हेतु पाठ्यक्रम अनुकूलन (एडॉप्टेशन) का क्या अर्थ है ? पाठ्यक्रम अनुकूलन की विभिन्न विधियाँ तथा सिद्धान्तों पर प्रकाश डालिए।

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समावेशी शिक्षा में अनुकूलन का अर्थ सामान्य बालकों की शिक्षा के साथ विशेष शैक्षिक आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा को सामंजस्य पूर्ण, समायोजन योग्य तथा समरस बनाने में अनुकूलता लाना है । विशेष बालकों को सामान्य बालकों के साथ शिक्षा देने में सामान्य बालकों को गति के अवरोध का सामना करना पड़ता है तथा कम दृष्टि वाले, कम सुनने वाले, अस्थि बाधाओं से पीडित चलने, उठने, लिखने आदि में कमजोर एवं मंदबुद्धि वाले या धीमे अधिगमकर्ताओं को शिक्षण की तेज गति, कठिन विषय-प्रसंग,शिक्षक द्वारा श्यामपट पर लिखे छोटे अक्षर शिक्षक की आवाज का अनुकूल न होना, बेठने की सीट का आरामदायक न होना, पेन या कलम पकड़कर लिखने में परेशानी अनुभव करना इत्यादि भिन्न-भिन्न अवरोध का सामना करना पडता है। विषय शिक्षण के साथ-साथ पाठ्यक्रम, अधिगम, पाठ्यसहगामी क्रियाओं में सहभागिता, खेल खेलने में, आदि में भी विशेष बालक अपनी शारीरिक या मानसिक निःशक्ताओं के कारण असविधा का अनुभव करते हैं। यह विसंगति विभिन्न श्रेणी के निःशक्त बालकों की अलग-अलग हो सकती है। शिक्षक को विशेष बालकों की असमर्थताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण में अतिरिक्त अनुदेशन देना तथा अतिरिक्त मार्ग दर्शन देकर अनुकूलन करना होता है। उसे शिक्षण की सहायक सामग्री को भी विशेष बालकों के अनुकूल करने हेतु भिन्न-भिन्न प्रयत्न करने होते हैं। सारांश में अनुकूलन समावेशी शिक्षा में विशेष बालकों को समायोजित करने के प्रयासों को कहा जाता है |

विशेष बालकों हेतु पाठ्यक्रम अनुकूलन का अर्थ समझने के पूर्व पाठ्यक्रम की संकल्पना को समझना होगा। रॉबर्ट एम.डब्ल्यू ट्रेवर्स ने पाठ्यक्रम की संकल्पना इन शब्दों में व्यक्त की है-“एक शताब्दी पूर्व पाठ्यक्रम की संकल्पना उस पाठ्य सामग्री का बोध कराती थी जो छात्रों के लिए निर्धारित की जाती थी, परन्तु वर्तमान समय में पाठ्यक्रम की संकल्पना में परिवर्तन आ गया है । यद्यपि प्राचीन संकल्पना अभी भी पूर्णरूपेण लुप्त नहीं हुई है, लेकिन अब माना जाने लगा है कि पाठ्यक्रम की संकल्पना में छात्रों को ज्ञान वृद्धि के लिए नियोजित सभी स्थितियाँ, घटनाएं तथा उन्हें उचित रूप में क्रमबद्ध करने वाले सैद्धान्तिक आधार समाहित रहते हैं।” वाल्टर एस. मनरो के अनुसार, “पाठ्यक्रम को किसी विद्यार्थी द्वारा लिये जाने वाले विषयों के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम की कार्यात्मक संकल्पना के अनुसार इसके अंतर्गत वह सब अनुभव आ जाते हैं जो विद्यालय में शिक्षा के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।” माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने भी लगभग इन्हीं अर्थ में पाठ्यक्रम को इन शब्दों से बतलाया है, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल उन सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है जो विद्यालयों में परम्परागत रूप से पढ़ाए जाते हैं, बल्कि इसमें अनुभवों की वह संपूर्णता भी सम्मिलित होती है, जिनको विद्यार्थी विद्यालय, कक्षा, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कार्यशाला, खेल के मैदान तथा शिक्षक एवं छात्रों के अनेक औपचारिक संपर्कों से प्राप्त करता है। इस प्रकार विद्यालय का संपूर्ण जीवन पाठ्यक्रम हो जाता है जो छात्रों के जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है और उनके संतुलित व्यक्तित्व के विकास में सहायता देता है ।”

विशेष बालकों के लिए समावेशी विद्यालय में पाठ्यक्रम के अनुकूलन से अभिप्राय पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन संबंधी समायोजन से है । यह अनुकूलन पाठ्य विषयों को लोचदार या परिवर्तनशील बनाकर, अनुकूलन प्रधान शिक्षण विधियों द्वारा, विशेष विषय/प्रकरण पर अनुकूलन प्रधान संदर्भ पुस्तकें बालकों को उपलब्ध कराकर, विशेष निःशक्तता के विशेषज्ञ व स्रोत शिक्षण के मार्गदर्शन द्वारा, पाठ्यसहगामी क्रियाओं को निःशक्त बालकों के अनुकूल बनाकर, सहपाठी की सहायता से, विशेष सहायक शिक्षण सामग्रियों के प्रयोग से, आवश्यकता पड़ने पर विशेष कक्षाएं लगाकर, समुचित कक्षा प्रबंधन व शाला प्रबंधन आदि विधियों द्वारा संभव है। नीचे क्रमश: इन विधियों का विवरण उदाहरणों सहित दिया जा रहा है-

(1) पाठ्यक्रम को लचीला बनाना- विशेष बालकों की विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं के अनुसार पाठ्यक्रम में पढ़ाते समय, प्रायोगिक कार्य करते समय उनके अनुकूल बनाना विषय शिक्षकों का दायित्व है । उदाहरणार्थ यदि मंदबुद्धि बालक अमूर्त विषयों को नहीं समझ पाए हैं तो उसे विश्लेषण प्रधान, उदाहरण दृष्टांतों से युक्त व सरल बनाकर समझाया जा सकता है । पाठ्यक्रम को अनुकूल बनाने हेतु विषय शिक्षक को निःशक्त व वंचित बालकों के जीवन पर आधारित दृष्टांत व उदाहरणों से व्याख्या करनी चाहिए। विषय/प्रकरण को सरल व बोधगम्य बनाने हेतु उसे छोटी इकाइयों में विभाजित कर पढ़ाना उपयुक्त होता है ताकि धीमे अधिगमकर्ता बालक समझ सकें। पाठ्य विषय को प्रायोगिक रूप से क्रियात्मक या व्यावहारिक रूप देकर पढ़ाना चाहिए जैसे विज्ञान (रसायन शास्त्र, भौतिक शास्त्र) प्रयोगशाला के प्रयोगों द्वारा, नागरिकशास्त्र व सामाजिक विज्ञान के विषयों को क्रियात्मक (कार्यात्मक) रूप देकर जैसे मंत्रिमंडल का गठन कक्षा में बालकों को मंत्री बनाकर दिया जा सकता है । मतदान प्रक्रिया को कक्षा में मतदान केन्द्र बनाकर समझाया जा सकता है। भाषा शिक्षण में नाटक मंचन द्वारा, कविता शासन द्वारा समझाई जा सकती है।

(2) अनुकूल शिक्षण विधियों पर आधारित कक्षा शिक्षण- समावेशी कक्षा में सामान्य व विशेष दोनों प्रकार के बालकों को एक साथ पढ़ाना होता है अतः विषय शिक्षकों को निःशक्त बालकों की पृथक-पृथक शारीरिक व मानसिक समस्याओं के अनुसार कक्षा शिक्षण में कई शिक्षण विधियों, युक्तियों, शिक्षण सूत्रों को सहारा लेना होता है । उदाहरणार्थ श्रवण बाधित बालक कम सुन पाते हैं अतः शिक्षक को जोर से बोलना चाहिए। वे यदि बहुत ही कम सुन पाते हैं तो शिक्षक को उस छात्र के निकट बैठे संगी-साथी को बोली गई बातों की कार्बन कॉपी लिखकर श्रवणबाधित को देने की व्यवस्था करनी चाहिए । टेपरिकॉर्डर पर भी शिक्षक का शिक्षण रिकॉर्ड किया जा सकता है जिसे बाद में बालक जोर से बजाकर सुन समझ सकता है। दृष्टिबाधित बालक को कम दिखाई देता है अतः उसकी बैठने की व्यवस्था सामने ब्लेक बोर्ड के पास करनी चाहिए ताकि बड़े-बड़े अक्षरों में शिक्षक द्वारा लिखी बातों को वह देख व समझ सके। एक अस्थिबाधित बालक यदि पैर से निःशक्त है तो उसे उठने-बैठने में परेशानी न हो इसका ध्यान रखते हुए उसकी बैठक व्यवस्था करनी चाहिए। मंदबुद्धि बालकों के समझने में दृश्य श्रव्य सामग्री द्वारा समझाना उपयुक्त रहता है। कक्षा के सभी बालकों के लिए दृश्य श्रव्य सहायक शिक्षण सामग्री रोचक व बोधगम्य होती है।

(3) नि:शक्त बालकों को सरल संदर्भ पुस्तकें उपलब्ध कराना- विषय शिक्षक को कक्षा शिक्षण में ध्यान रखना चाहिए कि कौनसा बालक पढ़ाए गए विषय/प्रकरण को समझ नहीं पा रहा है । कक्षा शिक्षण में उस बालक पर यदि देर तक ध्यान दे पाना शिक्षक के लिए संभव न हो तो उसे पृथक से सरल भाषा में प्रकरण से संबंधित पुस्तक उपलब्ध करानी चाहिए। कम नजर वाले बालकों हेतु बड़े अक्षरों में लिखी पुस्तकें, मंद बुद्धि बालक हेतु सचित्र रंगीन पुस्तकें दी जानी चाहिए। इससे बालकों में स्वाध्याय की आदत विकसित होगी। पुस्तक देते समय शिक्षक को विशेष छात्र को प्रकरण का संक्षेप व पृष्ठ क्रमांक बता देना चाहिए।

(4) विशेषज्ञ व स्त्रोत शिक्षकों का मार्गदर्शन- यदि बाधित विशेष बालकों की शिक्षण संबंधी विशेष समस्या है तो संस्था के निःशक्त बालकों के विशेषज्ञ या स्रोत शिक्षकों के पास भेजकर उनकी अधिगम संबंधी समस्या का हल निकालना चाहिए।

(5) पाठ्यसहगामी क्रियाओं में अनुकूलन- पाठ्यसहगामी क्रियाएं पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग हैं। इनका क्षेत्र व्यापक है। ये क्रियाएं बालक के सर्वांगीण विकास में उपयोगी होती हैं। इनमें साहित्यिक, सामाजिक, शारीरिक, सांस्कृतिक आदि अनेक गतिविधियाँ सम्मिलित हैं। निःशक्त बालकों को उनके शारीरिक सामर्थ्य के अनुरूप खेलकूद की गतिविधियों में सहभागिता हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए । मंदबुद्धि तथा धीमे अधिगमकर्ता बालक जिन्हें वाचन, वर्तनी (स्पेलिंग), विराम चिन्हों संबंधी कठिनाई है उनके लिए भाषण गतिविधि, वाद विवाद, निबंध लेखन को बढ़ावा देना चाहिए । विज्ञान प्रदर्शनी,बाल मेला, वार्षिकोत्सव,विद्यालय पत्रिका के लिए कविता लेख आदि गतिविधियों में निशक्त बालकों की सहभागिता को प्रोत्साहित व प्रशंसित किया जाना चाहिए। विषय आधारित क्विज प्रतियोगिताएं भी अच्छी पाठ्य सहगामी गतिविधि हैं।

(6) सहपाठी का सहयोग व सहायता- कुछ निःशक्त बालक अपनी सहायता स्वयं करने में असमर्थ रहते हैं। पढ़ते समय कुछ अधिगम छात्र शिक्षण की विषयवस्तु को समझ नहीं पाते हैं। कम सुनने वाले छात्रों के साथ भी कम सुनाई देने के कारण शिक्षक का मंतव्य समझ में नहीं आता। ऐसे ही असमर्थ बालकों के लिए शिक्षकों को उनके निकट बैठने वाले सामान्य छात्र को सहयोग व सहायता करने के निर्देश देना चाहिए । इस व्यवस्था से निःशक्त बालकों को पाठ्यक्रम समझने में अनुकूलन प्राप्त होगा।

(7) सहायक शिक्षण सामग्री से अनुकूलन- पाठ्यक्रम के विषयों को/प्रकरणों को रोचक व बोधगम्य बनाने हेतु आधुनिक डिजिटल साधनों स्मार्ट क्लास (जिसमें बड़ा स्क्रीन लगा रहता है और जो कम्प्यूटर से जुड़ा होकर फिल्म जैसा शिक्षण को रूप देता है), टेलीविजन, ओवरहेड प्रोजेक्टर तथा स्क्रीन, वीडियो फिल्म आदि के माध्यम से विषयवस्तु को समझने का प्रयत्न विषय शिक्षकों को करना चाहिए। इससे निःशक्त विशेष बालकों को विषय/प्रकरण को समझने में आसानी होगी।

पाठ्यक्रम अनुकूलन के सिद्धान्त

जिन सिद्धान्तों के आधार पर विशेषज्ञ समिति द्वारा पाठ्यक्रम की रचना तथा उसमें संशोधन किया जाता है उनका पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में विशेष बालकों के अनुकूलन हेतु भी उपयोग होता है। निम्नलिखित प्रमुख सिद्धान्तों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का अनुकूलन होता है-

(1) लचीलेपन तथा विविधता का सिद्धान्त- विशेष बालकों के हितसाधक के रूप में उनके लिए पाठ्यविषय तथा पाठ्यक्रम उनको विशेष आवश्यकताओं के अनुकूल होना चाहिए। जटिल तथा स्थिर पाठ्यक्रम निःशक्त बालकों के अनुरूप नहीं होते अतः उसे लोचदार तथा बदलाव युक्त बनाया जाना आवश्यक है। निःशक्त बालकों में भी निःशक्तता की विविधता पाई जाती है अतः पाठ्य विषयों के पाठ्यक्रम में इन विविधताओं का ध्यान रखते हुए प्रकरण होने चाहिए। दूसरे शिक्षण संस्थाओं (समावेशी विद्यालयों) तथा उनके शिक्षकों को यह अधिकार होना चाहिए कि वे पाठ्यक्रम में आवश्यकता के अनुरूप संशोधन या परिवर्तन कर सके। माध्यमिक शिक्षा आयोग का भी मत है, “व्यक्तिगत भिन्नताओं की दृष्टि से तथा व्यक्तिगत आवश्यकताओं और रुचियों के अनुकूलन के लिए पाठ्यक्रम में पर्याप्त विविधता एवं लचीलापन होना चाहिए।”

(2) उपयोगिता का सिद्धान्त- विभिन्न विषयों के पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिक बातों के अतिरिक्त विशेष बालक के भावी जीवन के अनुकूल बनाने हेतु अर्थात् जीवनोपयोगी बनाने के लिए प्रकरण सम्मिलित किये जाने चाहिए । उदाहरण के लिए भाषा शिक्षण के पाठ्यक्रम में निःशक्त जनों के विभिन्न व्यवसायों को करने में सफलता की कहानियों, जन्मांध सूरदास के काव्य रचना में महानता प्राप्त करने की सफलता, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट के पोलियोग्रस्त होने पर भी प्रशासन के सफलता, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति स्व. कैनेडी की मंदबुद्धि बहन के उदाहरण देकर निःशक्त बालकों में प्रेरणा जागृत की जा सकती है तथा जीवन में सफल होने के सूत्र बताए जा सकते हैं । प्राथमिक स्तर पर किस प्रकार पैरों से लाचार व्यक्ति अंधे व्यक्ति के कंधे पर बैठकर मेले में जाते समय अंधे व्यक्ति को मार्ग बताता चलता है यह कहानी उपयोगी निहितार्थ के साथ बताई जा सकती है।

(3) शैक्षिक उद्देश्यों से अनुरूपता का सिद्धान्त- समावेशी तथा विशेष विद्यालयों हेतु शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण के उपरांत ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए तथा पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में भी शैक्षिक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए परिवर्तन किये जाने चाहिए । निःशक्त बालकों को समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित करना, समावेशन के सिद्धान्तों का पालन,निःशक्त जनों का कल्याण, समानता व भेदभाव रहित शैक्षिक वातावरण, सामान्यीकरण आदि के उद्देश्यों के अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्माण तथा क्रियान्वयन होना चाहिए।

(4) बाल केन्द्रीयता का सिद्धान्त- मनोविज्ञान शिक्षा के पाठ्यक्रम को बालकेन्द्रित अर्थात् बालक की रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं, योग्यताओं बुद्धि तथा आयु के अनुकूल बनाने पर बल देता है। ऐसा पाठ्यक्रम रोचक व बोधगम्य होता है। विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं वाले बालकों की शारीरिक, मानसिक क्षमताओं के अनुरूप शिक्षा के विषय तथा अनरूप प्रकरण पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने चाहिए।

(5) जीवन से संबंधित होने का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम में ऐसे विषय,प्रकरण तथा क्रियाएं सम्मिलित होनी चाहिए जिनका बालक के वर्तमान पर्यावरण तथा भविष्य के जीवन से गहरा नाता हो। पाठ्यक्रम में मात्र सेद्धान्तिक ज्ञान न होकर जीवन में उसके व्यावहारिक ठपयोग को भी शामिल किया जाना चाहिए । निःशक्त बालकों को कोरे सैद्धान्तिक विषय अरुचिकर होते हैं जब तक कि उनमें व्यावहारिक जीवन का पुट न दिया जाए । पाठ्यक्रम को प्रायोगिक, व्यावहारिक व क्रियात्मक बनाकर उसे जीवन से संबंधित किया जा सकता है । पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में पाठ्यसहगामी, सामूहिक जीवन की गतिविधियों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

(6) समानता का सिद्धान्त- समावेशी शिक्षा द्वारा वंचित निःशक्त वालकों को शिक्षा के अवसरों की समानता दी जाती है । उनके लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में भी भेदभाव रहित, निःशक्त जन को अपमानित प्रताडित या अशुभ मानने के दृष्टिकोण के विरुद्ध सामान्य व विशेष बालकों की समानता के सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम को अनुकूलता प्रदान की जानी चाहिए।

(7) सहसंबंध का सिद्धान्त- पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जिसमें विभिन्न विषयों में अन्तर्सम्बन्ध और सहसंबंध को बढ़ावा दिया जाए। प्रत्येक विषय दूसरे विषयों से संबंध स्थापित कर पढ़ाया जाना चाहिए। निःशक्त बालकों हेतु जो अनिवार्य व वैकल्पिक विषय पाठ्यक्रम में निर्धारित हों उनमें भी सहसंबंध का ध्यान रखने से विषय अधिक प्रभावशाली तथा अधिगम के स्थानांतर के सिद्धान्त के अनुरूप हो जाते हैं।

(8) अनुभवों से परिपूर्णता का सिद्धान्त- माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, “पाठ्यक्रम का अर्थ केवल सैद्धान्तिक विषयों से नहीं है, बल्कि इसमें अनुभवों की संपूर्णता निहित होती है ।” निःशक्त वालकों हेतु पाठ्यक्रम में उन सभी अनुभवों को भी स्थान दिया जाना चाहिए जिन्हें बालक शाला में विभिन्न क्रियाओं द्वारा प्राप्त करता है । ये क्रियाएं खेल के मैदान, कक्षा कक्ष, प्रयोगशाला, पुस्तकालय, पाठ्य सहगामी क्रियाओं में प्राप्त अनुभवों से संबंधित हो सकती है।

(9) जीविकोपार्जन का सिद्धान्त- निःशक्तजनों के सम्मुख विद्यालय अध्ययन के पश्चात् जीविकोपार्जन हेतु नौकरी या व्यवसाय स्थापना की समस्या आती है। कुछ मंदबुद्धि बालकों को विद्यालय में पढ़ाई जाने वाली बातें समझ में नहीं आती हैं, कुछ पैरों से निःशक्त बालक हाथों से कार्य अधिक कुशलता से कर लेते हैं, कुछ दृष्टिहीन बालक अच्छे गायम वादक सावित होते हैं कुछ श्रवण बाधित कम्प्यूटर चलाना, कुर्सी बुनाई, पाककला में प्रवीण होते हैं इसे दृष्टिगत रखते हुए तथा शिक्षारत बालकों के सामर्थ्य व रुचि की पहचान कर उन्हें उपर्युक्त व्यावसायिक शिक्षा या शिल्प की शिक्षा दी जाने हेतु व्यावसायिक जीविका उपार्जन हेतु उपयुक्त पाठ्यक्रम तैयार किया जाना चाहिए।

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