विशेष योग्यता वाले बालकों की शिक्षा हेतु किस प्रकार के पाठ्यक्रम का चुनाव किया जाये ? विस्तृत व्याख्या करें ।

Estimated reading: 1 minute 100 views

वर्तमान युग में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ है कि शिक्षा विषय केन्द्रित या शिक्षक केन्द्रित न होकर बाल–केन्द्रित हो गयी है । इसमें शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यचर्या का संगठन बालक की प्रवृत्तियों, रुचियों, योग्यताओं व अवस्थाओं आदि का ध्यान रखकर किया जाता है। इसमें पाठ्यचर्या का आयोजन बालक को केन्द्र मानकर किया जाता है । इस प्रकार पाठ्यक्रम में विशेष आवश्यकता वाले बालकों की आवश्यकता, अभिप्रायों, संवेगों को भी ध्यान में रखा जाता है ।

1. पाठ्यक्रम का आधार–दर्शन– इस क्षेत्र में अनेक अनुसन्धान हुए हैं । मानसिक रूप से पिछड़े बालकों के पाठ्यक्रम का वर्तमान स्वरूप बहुत कुछ शैक्षिक तथा मनोवैज्ञानिक अनुसन्धान का फल है । इन अनुसन्धानों से पता चलता है कि बालकों का पाठ्यक्रम भिन्न होना चाहिए तथा पाठ्यक्रम निर्माण की विधियों में सुधार भी होना चाहिए। उसे पूर्णतया बालकों के विकास में भी सहायक होना चाहिए। इससे पाठ्यक्रम की उन्नति का दर्शन निकल सकता है।

जब विद्यार्थी विशेष कक्षाओं में होते हैं तो वह वर्ष जबकि वे ब्रश बनाने, चटाई बनाने, कुर्सी, बनाने आदि ऐसे कार्यों में रहते हैं, विषय–वस्तु–काल कहलाता है। इसमें आपसी सामाजिक व्यवहार तथा सहयोग की आवश्यकता नहीं होती। ये कार्य अनुशासन की दृष्टि से अच्छे माने जाते हैं। अनुशासन का यह दृष्टिकोण तीन R’s सीखने में भी था । परन्तु इनसे मानसिक अक्षम बालकों की बौद्धिक निष्पत्ति का विशेष विकास नहीं हुआ।

अतः अब पाठ्यक्रम अनुभव पाठ्यक्रम तथा कोर पाठयक्रम है। ये एक ऐसे दर्शन पर आधारित है जो ऐसा पाठ्यक्रम चाहता है जिससे बालकों का अनुभव विकसित हो सके। वे पूर्ण विकास कर सकें । अनुभव पाठ्यक्रम बालकों की रुचि,उनकी आवश्यकताओं तथा मुख्य कार्यों पर आधारित है । कोर पाठ्यक्रम अनुभव की इकाइयों से प्रबन्धित है। यह मुख्य दशाओं, जीवन के विभिन्न भागों तथा समस्याओं जिनको विद्यार्थी सहते हैं या अनुभव करेंगे, पर आधारित है। अतः अनुभव पाठ्यक्रम मानसिक रूप से पिछड़े बालकों की पढ़ाई की भूमिका तैयार करता है जबकि कोर पाठ्यक्रम अधिक अग्रवर्ती योजना को दिखाता है । अनुभव पाठ्यक्रम इन बालकों के लिए सीखने का आधार है । इसमें बालकों को समस्या से परिचित करवाया जाता है । इसकी भूमिका ठोस प्रमाणों पर आधारित होती है। यह पाठ्यक्रम हर नयी विषय–वस्तु को पढ़ाने में उपयुक्त है। इनके द्वारा न केवल वातावरण सम्बन्धी विज्ञान ही पढ़ाया जा सकता है बल्कि इतिहास, भूगोल आदि भी पढ़ाये जा सकते हैं। अनुभव की इकाइयाँ, जो कि कोर पाठ्यक्रम के अन्तर्गत होती है, इन बातों पर जोर देती है।

(i) घर का महत्त्व, परिवार का सदस्य, इन सदस्यों का आपसी सम्बन्ध ।

(ii) समुदाय से प्राप्त सुविधाओं का लाभ उठाने का मूल्य मनुष्य का एक सामाजिक तथा व्यावसायिक समुदाय के सदस्य के रूप में अध्ययन ।

(iii) नगरों का विकास, राज्य तथा देश के विकास में मनुष्यों के कार्यों का फल। औद्योगिक तथा कृषि सम्बन्धी अनुसन्धानों का देश की उन्नति पर प्रभाव पर जोर दिया जाता है। इसके द्वारा मानसिक रूप से पिछड़े विद्यार्थी शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं।

2. पाठ्यक्रम के उद्देश्य– सामान्य शैक्षिक उद्देश्य मानसिक रूप से पिछड़े बालकों के लिए भी वही है जो सामान्य बालकों के लिए है। उदाहरणार्थ, आत्म अनुभव प्राप्त करना, उचित मानव व्यवहार तथा सम्बन्ध, आर्थिक कुशलता, नागरिक उत्तरदायित्व । इनके भी अनेक उद्देश्य हैं।

3. पाठ्यक्रम निर्माण में समस्याएं– ऐसे बालकों के लिए पाठ्यक्रम बनाना अत्यन्त कठिन कार्य है क्योंकि इसमें सामान्य पाठ्यक्रम की मुख्य बातें तो रखनी ही पड़ती हैं, साथ ही वे विधियाँ भी लेनी पड़ती हैं जो ऐसे बालकों की आवश्यकता के अनुरूप होती हैं। पाठयक्रम बनाने में निम्नलिखित कठिनाइयाँ आती हैं–

(i) पाठ्यक्रम में चतुरतापूर्वक चुने हुए अनुभव होने चाहिए जिनसे ऐसे बालकों को लाभ हो सके। ये अनुभव बालक की सामाजिक आयु के अनुरूप होने चाहिए। साथ ही उसे यह पाठ्यक्रम समझ में भी आना चाहिए।

(ii) दूसरी समस्या पाठ्यक्रम के समायोजन से सम्बन्धित हैं। पाठ्यक्रम को बालक के स्कूल जीवन की अवधि तथा बालक की क्षमता के आधार पर होना चाहिए। इस समस्या के तीन भाग हैं (a) बालक की स्कूल में दाखिले की आय, (b) बालक की मानसिक क्षमता, (c) वह प्रोग्राम, जो कि बालक को स्कूल की अवधि में दिया जाता है।

(iii) स्कलों में बालक 5 से 12 वर्ष की आयु तक प्रवेश पाते हैं। अतः एक विस्तृत पाठ्यक्रम की आवश्यकता पड़ती है।

(iv) ‘पाठ्यक्रम कितना विस्तृत हो?’ यह निश्चित करना कठिन होता है। पढ़ाई की सीमित अवधि एवं मानसिक अक्षमता एक ओर तो पाठ्यक्रम को सीमित करती है परन्तु दूसरी ओर पाठ्यक्रम में उन सभी बातों का होना आवश्यक है जो कि सामान्य बालकों के लिए आवश्यक हैं।

(v) पाँचवीं समस्या पाठ्यक्रम के लिए तथ्य प्राप्त करने की है। वैसे आजकल काफी संख्या में इस विषय में पुस्तकें, जर्नल्स आदि निकलते हैं, तथापि तथ्य संग्रह अनिवार्य हैं।

मन्दितमना बालकों की शिक्षा

सभी स्तर एवं प्रकृति के मन्दितमना बालक शिक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं होते हैं। केवल न्यून मन्दिता वाले कुछ प्राथमिक कक्षाओं को पास करने की योग्यता रखते हैं। सीमित मन्दिता वाले कठिन परिश्रम के पश्चात् केवल पढ़ना व लिखना सीख पाते हैं अन्यथा उन्हें कुछ बिना कौशल वाले कार्यों का प्रशिक्षण देना ही सम्भव होता है। जड़ बुद्धि पूरी तरह निर्भर होते हैं तथा स्वयं के कार्य भी नहीं कर पाते हैं। अतः केवल प्रथम दो समूहों के बालकों को शिक्षा प्रदान की जा सकती है।

शिक्षा पाने योग्य मन्दितमना बालक और शिक्षा

शिक्षा पाने योग्य मन्दितमना बालकों की मानसिक आयु औसत बालकों की मानसिक आयु से सार्थक रूप से कम होती है। इनके लिए शिक्षा के उद्देश्य तथा पाठ्यक्रम का निर्धारण उनकी शिक्षा का प्रथम व सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है।

उद्देश्य एवं लक्ष्य– शिक्षा के उद्देश्य एवं लक्ष्य की दृष्टि से मन्दितमना एवं सामान्य बालकों में कोई अन्तर नहीं होता है। दोनों की शिक्षा के मुख्य व विस्तृत उद्देश्य बालक में (1) सामाजिक कौशलों, (2) व्यक्तिगत योग्यता, (3) व्यावसायिक कौशलों का विकास करना है। यहाँ सामाजिक कौशल से तात्पर्य व्यक्ति/बालक विशेष का अपने साथियों, परिवार, विद्यालय व पड़ोसियों के साथ समायोजन से है । व्यक्तिगत योग्यता का अर्थ बालक में स्वयं सन्तुलित अवस्था में स्वतन्त्रतापूर्वक जीवन व्यतीत कर सकने की योग्यता है । व्यावसायिक कौशल से तात्पर्य बालक की उस योग्यता से है जिसके द्वारा वह अपने को पूर्ण या आंशिक रूप से उत्पादक क्रिया द्वारा सहारा दे सके।

इसके अतिरिक्त किर्क एवं जॉनसन ने शिक्षा पाने योग्य मन्दितमना बालकों के लिए शिक्षा के मुख्य 8 उद्देश्य बताये हैं–

1. सामाजिक कौशल का विकास करना ।

2. बालक में व्यावसायिक कौशलों का विकास करना।

3. उत्तम मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों के द्वारा बालक में स्वतन्त्र व्यवहार व संवेगात्मक सुरक्षा का विकास करना।

4. उत्तम स्वास्थ्य–शिक्षा कार्यक्रमों के द्वारा स्वास्थ्य एवं आरोग्यता की आदतों का विकास करना।

5. निम्नतम शैक्षिक योग्यता का विकास करना ।

6. खाली समय में अपने आपको मनोरंजन एवं अन्य क्रिया–कलापों में व्यस्त रखने की समर्थता का विकास।

7. पाठ्यक्रम के द्वारा उनमें परिवार में अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करने की योग्यता का विकास करना तथा।

8. सामुदायिक गतिविधियों के द्वारा उन्हें समुदाय का एक क्रियाशील सदस्य बनाना।

पाठ्यक्रम– अवसामान्य मानसिक विकास होने के कारण शिक्षा पाने योग्य मन्दितमना बालक सामान्य बालकों के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम से किसी भी प्रकार कोई लाभ नहीं उठा सकते है | अतः इनके मन्दिता के स्तर, आवश्यकताओं तथा शिक्षा के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हए इनके लिए पाठयक्रम का निर्धारण करना चाहिए। इस प्रकार इसमें केवल शेक्षिक विषया का समावेश ही नहीं किया जाये वरन विभिन्न पाठय–सहगामी तथा पाठ्यान्तर क्रियाओं और व्यावसायिक विषयों को भी उचित स्थान दिया जाये । इसके अतिरिक्त इनका पाठ्यक्रम अत्यधिक सरल एवं इनकी योग्यता स्तर के क्रम में व्यवस्थित किया जाना चाहिए। ये स्तर निम्न प्रकार से हो सकते हैं–

1. प्राथमिक स्तर पाठ्यक्रम– 3 से 8 वर्ष आयु तक इस स्तर के पाठ्यक्रम के मुख्य उद्देश्य बालकों मं (i) अपनी देखभाल स्वयं करना, (ii) समन्वय, (ii) हस्तादि का प्रयोग, (iv) दूसरों को सम्मान व सहयोग देना तथा (v) वाक शक्ति का विकास करना आदि है । इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इन बालकों को वस्त्र पहनना,स्वच्छता शोच की आदतों आदि का प्रशिक्षण, सामूहिक गान तथा स्पष्ट उच्चारण अभ्यास के द्वारा वाक शक्ति का विकास तथा अच्छी आदतों का प्रशिक्षण दिया जाता है।

2. माध्यमिक स्तर पाठ्यक्रम – 6 से 18 वर्ष आयु तक इस स्तर के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पठन, लेखन, गणित से लेकर सामान्य कक्षाओं के कक्षा 8 या 9 तक के पाठ्यक्रम के विषयों को कठिनता क्रम से रखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अर्द्ध–कौशल व बिना कौशल के कार्यों का प्रशिक्षण भी इस स्तर पर दिया जा सकता है। खाली समय का सदुपयोग करना सिखाने के उद्देश्य के विभिन्न खेलकूद, नाटक,कला, हस्तकला, गायन तथा सामाजिक सदस्यता वाले क्रियाकलापों का प्रशिक्षण दिया जाता है।

3. वयस्क स्तर पाठ्यक्रम– 15 वर्ष आयु से अधिक इस स्तर की शिक्षा केवल उन बालकों/व्यक्तियों को दी जाती है जिनमें मन्दिता का स्तर बहुत कम होता है जैसे–मन्द बुद्धि व न्यून बुद्धि बालकों में । इनके पाठ्यक्रम में व्यावसायिक कुशलता तथा नागरिकता से सम्बन्धित विषय भी सम्मिलित रहते हैं।

शिक्षक एवं शिक्षण पद्धति – प्रशिक्षण योग्य मन्दितमना बालकों को शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित एवं दक्ष शिक्षकों की आवश्यकता होती है क्योंकि इन बालकों की अपनी एक विशेष प्रकार की आवश्यकतायें होती हैं तथा विकास की गति अत्यन्त मन्द होती है । अतः इनके शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि उसे बाल मनोविज्ञान तथा विभिन्न शिक्षण विधियों एवं तकनीकियों का ज्ञान हो । इसके साथ ही उसके व्यक्तित्व में सहनशीलता एवं धैर्य जैसे गुणों का समावेश हो जिससे कि वह कक्षा में उत्पन्न किसी प्रकार की समस्या को सरलता से हल कर सके। इसके अतिरिक्त विभिन्न शिक्षण विधियों का प्रयोग पाठ्यक्रम स्तर के अनुरूप किया जाना चाहिए तथा विधि का चुनाव करते समय बालक की कठिनाइयों, अन्य अक्षमताओं, आवश्यकताओं आदि को ध्यान में रखना चाहिए अर्थात् शिक्षण बाल केन्द्रित होना चाहिए। विषय को उदाहरणों, रंगीन चित्रों, कहानियों, कविताओं आदि के माध्यम से रुचिकर ढंग से पढ़ाना चाहिए। विषय–वस्तु को सूक्ष्म इकाइयों में विभक्त करके सामूहिक एवं व्यक्तिगत रूप से पढ़ाना शिक्षण को अधिक प्रभावी बना सकता है।

प्रशिक्षण योग्य मन्दितमना बालक और शिक्षा

प्रशिक्षण योग्य मन्दितमना बालक शिक्षा पाने योग्य मन्दितमना, बालकों से बौद्धिक रूप से और भी निम्न होते हैं अतः उनके समान शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते । इनके लिए शिक्षा की व्यवस्था पृथक कक्षाओं या विद्यालय में करनी पड़ती है तथा अथक परिश्रम के पश्चात ये केवल पढ़ना व साधारण गणित ही सीख पाते हैं । इनकी शिक्षा मुख्य रूप से विभिन्न आदतों तथा कौशलों के प्रशिक्षण पर केन्द्रित रहती है । इनकी शिक्षा का प्रावधान करते समय निम्न बातें विशेष तौर पर ध्यान रखने योग्य हैं–

1. इन बालकों की सही पहचान व निदान इनकी शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है। इसके लिए विशेषणों व वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाना ही सर्वोत्तम रहता है।

2. इन बालकों की कक्षा का आकार सूक्ष्म रखा जाए।

3. इनको विद्यालय ले जाने तथा विद्यालय से घर लाने के लिए उचित आवागमन के साधन उपलब्ध कराये जायें।

4. जहाँ तक सम्भव हो एक कक्षा में लगभग एक ही वर्षायु वर्ग के बालक रखे जायें।

5. उनके लिए पृथक शिक्षा–उद्देश्य निर्धारित किये जायें जो कि उनकी आवश्यकताओं व क्षमताओं के अनुरूप हों।

6. विशेष रूप से परिमार्जित पाठ्यक्रम का अनुकरण किया जाये।

7. इनकी कक्षा अथवा विद्यालयों में विशेष रूप से प्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त किये जायें।

8. इन बालकों के माता–पिता को इनकी विभिन्न क्षमताओं व आवश्यकताओं के पूर्ण रूप से सत्यता के साथ परिचित करा दिया जाए ताकि इनको प्रशिक्षित करने में उनका पूर्ण सहयोग रहे।

शिक्षा का उद्देश्य– प्रशिक्षण योग्य मन्दितमना बालकों को शिक्षित करने के लिए निर्मित पाठ्यक्रम के तीन सामान्य उद्देश्य होने चाहिए–

1. स्व–सहायता की योग्यता का विकास।

2. घर व समाज में समायोजित होने की क्षमता का विकास, तथा

3. आर्थिक उपयोगिता का विकास।

पाठ्यक्रम– निम्न मानसिक स्तर के कारण इन बालकों में किसी भी प्रकार के शैक्षिक व व्यावसायिक कौशलों का विकास असम्भव होता है । स्व–सहायता की योग्यता का विकास करना इनकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण का मुख्य भाग है। इसके लिए सर्वप्रथम सांवेदिक प्रशिक्षण दिया जाता है जिससे यह छूकर, देखकर, सूंघकर, चखकर तथा सुनकर स्थितियों एवं वस्तुओं में भिन्नता का अनुमान कर सकें । ये स्वयं अपनी देखभाल कर सके इसके लिए इनको वस्त्र पहनना, उतारना, ठीक प्रकार भोजन ग्रहण करना, गुसल करना, शौच जाना, स्वच्छ रहना तथा विभिन्न दैनिक कार्यों को नियमित दिनचर्या के साथ पूरा करना सिखाया जाता है । सामाजिक कौशल के नाम पर ये अभिनन्दन करना, उचित समय पर हँसना, बोलना, किसी वस्तु की माँग करना सीख जाते हैं। इसके अतिरिक्त निरन्तर अभ्यास व अथक परिश्रम के द्वारा इनको अपने साथियों, परिवारीजनों तथा सहपाठियों के साथ समायोजित करना भी सिखाया जा सकता है |

इन बालकों में आर्थिक– उपयोगिता का विकास करने के उद्देश्य से किसी प्रकार के व्यावसायिक कौशलों का प्रशिक्षण देना असम्भव होता है। लेकिन घर के कार्यों में प्रशिक्षित कर दिए जाने पर यह अपने समय व शक्ति का प्रयोग उपयोगी रूप में कर सकते हैं। इसके लिए इनको कक्षाओं में विभिन्न बिना कौशल के कार्यों जैसे–चीजों को व्यवस्थित करना, कपड़े व बर्तन धोना, सफाई करना, पौधों में पानी देना, सब्जियाँ व फूल चुनना, सरल कटिंग के कार्य करना तथा बाजार से कुछ आसान खरीदारी करना आदि का प्रशिक्षण दिया जा सकता है। मानसिक न्यूनतम के कारण इनमें लिखने, पढ़ने व गणित की योग्यता नाममात्र को तथा बहुत विलम्ब से विकसित हो पाती है । अतः पाठ्यक्रम के उच्चतम स्तर पर इनको विभिन्न संक्रेतों जैसे– ठहरो, खतरा है, सड़क बन्द है, पीछे हटो, बचाओ, विभिन्न वस्तुओं का नाम आदि, को पढ़ना तथा अत्यन्त साधारण स्तर के जोड़, घंटाने व गिनती करने का अभ्यास कराया जा सकता हैं।

शिक्षक इन बालकों की शिक्षा केवल विभिन्न योग्यताओं के प्रशिक्षण को ही अपने में समाहित करता है अतः इनके लिए शिक्षक का विशेष योग्यता वाला होना आवश्यक नहा ह किन्तु वह मन्दितमना बालकों को शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने की विधियों में पूर्ण रूप से कुशल होना चाहिए। इसके अतिरिक्त उसे इन बालकों के मनोविज्ञान को विस्तृत ज्ञान,सामान्य चिकित्सीय ज्ञान तथा निरन्तर परिश्रम की क्षमता व धैर्य शिक्षक के मुख्य लक्षण होने चाहिए।

बालक में मन्दिता का स्तर कुछ भी हो तथा उसको शिक्षित एवं प्रशिक्षित करने के कोई भी उपाय किए जायें, सम्पूर्ण शिक्षा की प्रभावात्मकता बालक के स्वयं के अन्तरण पर निर्भर करती है। अतः इनको मिलने वाला वातावरण व व्यवहार स्वस्थ एवं मनोरंजक होना अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा अपनी बहिर्मुखी ऋणात्मक विशेषताओं के कारण ये अपने आपको पृथक इकाई समझने लगते हैं तथा इनकी अवशोषित योग्यताएं भी कुंठित हो जाती हैं और ये समाज पर भार बन जाते हैं ।

पिछड़े बालकों की शिक्षा– पिछड़े बालकों के पिछड़ेपन के कारणों का सम्बन्ध उनके परिवार, विद्यालय तथा समाज व उनके अपने शारीरिक, मानसिक एवं संवेगात्मक विकास के स्वरूप से होता है। इस संदर्भ में एक शिक्षाशास्त्री का विचार है–”समाज सेवकों और विद्यालय चिकित्सकों को मिलकर कार्य करना चाहिए ताकि पिछड़ेपन के कारणों की खोज की जा सके और उन बालकों के लिए उचित आधारों का प्रयोग किया जा सके।”

विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था – पिछड़े बालकों का मन पढ़ने में लगे व उसमें सफलता मिले इसके लिए आवश्यक है कि विशेष पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाये । पाठ्यक्रम में सरल विषयों को ध्यान दें जो उनकी मानसिक योग्यता, रुचि, आवश्यकता के अनुकूल हो तथा वह उनके जीवन के लिए उपयोगी,जीवन से सम्बन्धित और व्यावसायिक उद्देश्य की पूर्ति करने वाला हो। इसके लिए ‘बुनियादी शिक्षा’ बहुत उपयुक्त हो सकती है क्योंकि व्यावसायिक पाठ्यक्रम ही ऐसे बच्चों के भविष्य को बना सकता है।

हस्तशिल्पों की शिक्षा– पिछड़े बालकों में तर्क और चिन्तन की शक्तियों का अभाव होता है। अतः उनके लिए मूर्त विषयों के रूप में हस्तशिल्पों की शिक्षा का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। बालकों की कताई–बुनाई, जिल्दसाजी व टोकरी बनाने के अतिरिक्त अगर तकनीकी कार्यों में रुचि है तो प्लम्बर, लकड़ी का काम व बिजली का कार्य सिखाया जाये साथ ही धातु, लकड़ी, बेंत व चमड़े का काम और लड़कियों को काढ़ना, बुनना, सिलाई, भोजन बनाना आदि । इसके अतिरिक्त उनकी रुचि के विषयों पर कला, मेंहदी, नृत्य व संगीत की शिक्षा देकर उनकी बौद्धिक अभिक्षमता कम होने पर भी कलात्मक अभिक्षमता से निखारा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त छोटे समूहों में शिक्षा संस्कृति की शिक्षा आदि दी जानी चाहिए ताकि पिछड़े बालकों को कक्षा के योग्य व्यावहारिक शिक्षा दी जाए और उनके पिछड़ेपन को दूसरे गुणों व शिक्षा से उभारकर नवीनता लायी जा सके।

विशिष्ट पाठ्यक्रम– सामान्य रूप से पाठ्यक्रम का निर्धारण औसत क्षमता वाले बालकों को आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है। पिछड़े बालक इस पाठ्यक्रम को कुशलता के साथ पूर्ण करने में असफल रहते हैं अतः उनके लिए सरल एवं छोटे पाठ्यक्रम का जो उनकी अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं, क्षमताओं व रुचियों के अनुकूल हो, निर्धारण करना उपयोगी रहता है। इन बालकों को विद्वान बनाने के स्थान पर उपयोगी नागरिक व कुशल कार्यकर्ता बनाना इस पाठ्यक्रम का उद्देश्य होना चाहिए तथा काष्ठ शिल्प, गृह शिल्प, पुस्तक शिल्प आदि को इनके पाठ्यक्रम में समावेशित किया जाना चाहिए ।

पाठ्यक्रम– विकलांग तथा रोगी बालकों हेतु पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन लाना अति अनिवार्य है। वह पाठ्यक्रम जो सामान्य बालक के लिए है, एक विकलांग बालक के लिए भी उपयुक्त होगा ऐसा नहीं है। चूंकि इन विशिष्ट बालकों के कुछ ढंग से कार्य नहीं करते हैं, वे इनका प्रयोग नहीं करते हैं। अतः पाठ्यक्रम में उन अंशों का समावेश नहीं होना चाहिए जिनके अध्ययन हेतु उन अंगों की आवश्यकता है । बालक का हाथ यदि नहीं है,वह लिख नहीं सकता है तो उसे पैर से लिखने की शिक्षा दी जा सकती है । पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाना चाहिए जो बालक को स्वावलम्बी बनाये, उसे भविष्य में रोजगार प्राप्त करवाने में सहायता करे।

संबंधित पाठ्यक्रम – प्रतिभाशाली बालकों में किसी नवीन तथ्य को ग्रहण करने के लिए सामान्य बालक से कम अभ्यास की आवश्यकता होती है अतः इनको अन्य बालकों की तुलना में थोड़ा कठिन और अधिक मात्रा में कार्य दिया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक हो जाता है कि इनके लिए पाठ्यक्रम को पुनर्गठित किया जाये तथा इनको दिये जाने वाला गृह कार्य व कक्षा कार्य उच्च कठिनता का हो ।

अतिरिक्त एवं संबंधित पाठ्यक्रम का प्रावधान निम्न रूप से किया जा सकता है–

1. व्यक्तिगत संबंधिता– अतिरिक्त पाठ्यवस्तु को इस प्रकार नियोजित करें कि कोई भी प्रतिभाशाली छात्र उसे व्यक्तिगत रूप से लगभग आत्मनिर्भर होकर पूर्ण कर सके।

2. सामूहिक संबंधिता– बालकों को इकाइयों अथवा समूहों के रूप में संगठित करके उन्हें निर्धारित कार्य–सामग्री दी जाए जिसे वह समूह प्रक्रिया के माध्यम से पूर्ण करने में सक्षम हो।

3. नियमित कक्षाओं में ही अध्यापक इन बालकों को अतिरिक्त पठन एवं लेखन कार्य करने के लिए दें।

4. अतिरिक्त कौशल एवं कलाओं को सीखने के लिए प्रोत्साहित करें।

5. ऐसे विशिष्ट परिभ्रामी शिक्षक नियुक्त किये जाएं जो प्रतिभाशाली बालकों को पहचानने एवं प्रतिभा के क्षेत्र तथा आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त करने का कार्य कर सकें। साथ ही समय–समय पर उनकी प्रगति के लिए की जा सकने वाली व्यवस्था के विषय में शिक्षक, व्यवस्थापक एवं अभिभावकों को सुझाव दे सकें।

6. प्रतिभाशाली बालकों के लिए अपेक्षाकृत उच्च लक्ष्य निर्धारित किये जाएं।

7. सघन एवं नवीन अनुभव प्रदान की दृष्टि से बालकों के लिए नई–नई योजनाएं प्रस्तुत की जायें।

8. शिक्षण पद्धतियों में विविधता एवं नवीनता लाई जाए।

9. बालकों को उनकी अतिरिक्त क्षमताओं के विषय में पूर्णत: अवगत कराया जाए तथा उसके अनुरूप पाठ्यवस्तु के प्रावधान की योजना बालक से वार्तालाप करके बनायी जाए।

10. महाविद्यालयीय स्तर पर इनके लिए विशिष्ट एवं ऑनर्स पाठ्यक्रम की व्यवस्था की जाए।

Leave a Comment

CONTENTS