विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं वाले बालकों के आकलन (असेसमेंट) के अनुदेशनात्मक नियोजन और पाठ्यक्रम पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव का विवेचन कीजिए।

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विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं वाले बालकों का आकलन या मूल्यांकन करना एक ऐसा उपकरण है जिसके द्वारा बालक का अनुदेशनात्मक तथा पाठ्यक्रम संबंधी गतिविधियों के पुनर्निर्धारण करने में सहायता मिलती है। शिक्षक जब यह जाँच करता है कि उसके शिक्षण से विशेष बालक किस प्रकार और कितना लाभान्वित हुए हैं तो उसे उस विशेष बालक के संबंध में अपनी अनुदेशनात्मक नियोजन की क्रिया तथा पाठ्यक्रम संबंधी गतिविधियों को सुधारने में प्रयत्नशील होना पड़ता है ताकि विशेष बालक अगले आकलन में अधिकाधिक प्रगति ला सकें। शिक्षक को विशेष बालक की प्रगति की तुलना उसकी पिछली स्थिति से करनी चाहिए न कि दूसरे बालकों की प्रगति से। यह इसलिए कि विशेष बालक के सीखने की गति तथा समझ अन्य सामान्य बालकों जैसी विकसित नहीं होती।

मूल्यांकन या आकलन की नई धारणा यह है कि आकलन सतत और समग्र (कंटिन्यूअस, कम्प्रिहेंसिव) होना चाहिए। सतत आकलन को निरंतर आकलन भी कहा जाता है । इसका अर्थ यह है कि एक बार आकलन कर लेने से बालक का सही आकलन नहीं हो पाता। उसे निरंतर नए विषय का ज्ञान देते हैं अत: कक्षा में ही शिक्षक को बार-बार आकलन कर बालक के अधिगम को ज्ञात करना चाहिए । समग्र मूल्यांकन या आकलन का अर्थ एक पक्ष के आकलन से न होकर बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक सभी पक्षों के आकलन से है। समग्र मूल्यांकन की अवधारणा बालक के व्यक्तित्व के समग्र विकास के शिक्षा के उद्देश्य से उपजी है । इस प्रकार आकलन की परिधि (दायरे) में ज्ञान, अवबोध,सूचनाएं,कुशलताएं,प्रवृत्तियाँ, अभिवृत्तियाँ, मूल्य, बुद्धि, योग्यताएं, रुचियाँ, शारीरिक व सामाजिक स्वास्थ्य व क्रियाशीलताएं आती हैं। ऐसे आकलन का सुधारात्मक प्रभाव शिक्षक के अनुदेशात्मक नियोजन (इंस्ट्रक्शनल प्लानिंग) तथा पाठ्यक्रम (करिकुलम) पर पड़ता है । इन संभावित प्रभावों की विवेचना के पूर्व अनुदेशात्मक नियोजन तथा पाठ्यक्रम के संप्रत्यय को समझना होगा।

अनुदेशात्मक नियोजन में विशेष बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं को आधार बनाकर शिक्षण को विभिन्न शिक्षण पद्धतियों, विभिन्न विषय पढ़ाने की विशेष शिक्षण विधियों, सहायक शिक्षण सामग्री, नई डिजिटल टेक्नोलॉजी, पाठ योजनाओं के निर्माण, शिक्षण कौशलों के उपयोग, क्रियात्मक शिक्षण श्यामपट का उपयोग, शिक्षक में प्रबलन का प्रयोग, पाठ गति बालकों के पूर्व ज्ञान का उपयोग तथा कक्षा प्रबंधन की योजनाएं बनाकर उनका क्रियान्वयन सम्मिलित है।

पाठ्यक्रम को परिभाषित करते हुए कनिंघम ने लिखा है, “पाठ्यक्रम एक कलाकार (शिक्षक) के हाथों में वह यंत्र (साधन) है जिससे वह अपनी सामग्री (विद्यार्थी) को अपने कलाकक्ष (शाला) में अपने आदर्शों (उद्देश्यों) के अनुसार बनाता है । माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-53) ने पाठ्यक्रम की अवधारणा को इन शब्दों द्वारा व्यक्त किया है-पाठ्यचर्या से आशय रूढ़िवादी ढंग से स्कूल में पढ़ाने वाले बौद्धिक विषयों से नहीं है वरण उसमें वे सभी अनुभव सम्मिलित हैं जो बालक स्कूल में प्राप्त करता है । जो वह कक्षा पुस्तकालय, प्रयोगशाला, कर्मशाला, खेल के मैदान तथा शिक्षक छात्र संबंधों से प्राप्त करता है। इस अर्थ में शाला का संपूर्ण जीवन पाठ्यचर्या बन जाता है जो उसके संतुलित विकास में सहायक है।” मोनटो ने भी इसे इन शब्दों से व्यक्त किया है,“पाठ्यक्रम में शाला द्वारा उपयोग की जाने वाली वे सभी गतिविधियाँ सम्मिलित हैं जो शिक्षा के लक्ष्य प्राप्ति हेतु की जाती है।”

अनुदेशात्मक नियोजन तथा पाठ्यक्रम को विशेष बालकों के आकलन के परिणामों के आधार पर पुनर्नियोजित तथा पुनर्निर्धारण कर अनुकूल बनाने हेतु निम्नानुसार तथ्यों को विचार में लेना अपेक्षित है।

(अ) अनुदेशात्मक नियोजन

(1) विशेष बालकों के वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनुसार पुनर्नियोजन- विषय शिक्षक अपने शिक्षण तथा अनुदेशों की प्लानिंग कर ही सामान्य तथा विशेप बालकों को पढ़ाते हैं । परन्तु जब विशेष बालकों के मूल्यांकन/आकलन के परिणाम यह बताते हैं कि प्रगति का ग्राफ अपेक्षा के अनुकूल नहीं है तथा बालकों के अधिगम में कुछ कमियाँ रह गई हैं तो उन्हें अपने अनुदेशन की रणनीति से परिवर्तन करना चाहिए। प्रथम तो शिक्षक को गहराई से उन कारणे की तह में जाना चाहिए कि विभिन्न विशेष छात्र क्यों आकलन में पिछड़े हुए हैं। फिर शिक्षक को इन छात्रों को पढ़ाते समय इनकी रुचि, क्षमता, बुद्धि, सीखने की भिन्नता, शारीरिक विकास की विभिन्नता, संवेगात्मक विभिन्नता, विषय विशेष में उनकी कमजोरी, सीखने की गति की भिन्नता का ध्यान रखते हुए अपने अनुदेशनात्मक नियोजन को पुनर्नियोजित करना चाहिए ।

(2) अनुदेशन में डिजिटल तकनीक, दृश्य श्रव्य उपकरणों तथा त्रिआयामी सामग्रियों का उपयोग- निःशक्तताग्रस्त बालकों की शारीरिक व मानसिक असमर्थताओं के कारण उनकी अधिगम क्षमता सामान्य बालकों की अपेक्षा कमतर होती है अत: अनुदेशन को दोनों प्रकार के छात्रों के अनुकूल बनाने तथा प्रकरण में रुचि उत्पन्न करने हेतु स्मार्ट क्लास, वीडियो द्वारा शिक्षण, प्रोजेक्टर तथा स्क्रीन द्वारा शिक्षण, टेलीविजन, कम्प्यूटर, फिल्म, ग्लोब, नक्शे, चित्र, चार्ट तथा त्रिआयामी (थ्री डायमेंशन वाली) मॉडल, वस्तु आदि का उपयोग कर विभिन्न विषयों का शिक्षण दिया जाए तो आगामी परीक्षण तथा जाँचों में विद्यार्थियों के आकलन में प्रगति परिलक्षित होगी।

(3) अनुदेशन विधियों में क्रियाशीलता- विशेषकर मंदबुद्धि बालक, धीमे अधिगमकर्ता, मानसिक रूप से शिथिल बालकों को खेल द्वारा शिक्षा देना, क्रिया प्रधान शिक्षण देना उनकी अधिगम क्षमता के अनुकूल रहता है। अन्य बालकों हेतु भी शिक्षण की परम्परागत व्याख्यान विधि या प्रश्न विधि के साथ योजना विधि, अधिक्रमित अनुदेश तथा व्यक्तिगत शिक्षण की डाल्टन विधि व विनेटका विधि आदि का प्रयोग करना चाहिए। विशेष बालकों की विभिन्न विषयों की परीक्षा के प्राप्तांकों के आधार पर उन छात्रों की विषयगत कमजोरियों की समझते हुए शिक्षण विधियों को अपनाया जाना चाहिए।

(4) पाठ योजनाओं में परिवर्तन- आकलन में कमजोर पाए गए विशेष छात्रों के उन विषय के अंशों जिन्हें वे पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं को पुनः पुनः पढ़ाने हेतु विशेष कक्षाओं का आयोजन किया जाना चाहिए तथा शिक्षक को उस प्रकरण की पाठ योजनाओं में ऐसे बदलाव विकास प्रश्न, बोध प्रश्न, कहीं किस रूप में सहायक सामग्री का उपयोग होना है, बनकर शिक्षण करना चाहिए तथा पुनरावृत्ति के प्रश्नों या अभ्यास कार्य से यह समझना चाहिए कि छात्र कितना ग्रहण कर पाए हैं।

(5) अनुदेशन में शिक्षण कौशलों का उपयोग – मूल्यांकन या आकलन में C, D, E ग्रेड प्राप्त विशेष बालकों के शिक्षण में प्रशंसा करने का कौशल का प्रयोग करना चाहिए, जिसके अच्छे परिणाम आते हैं। पढ़ाने की पाठ की गति को मंद बुद्धि बालकों तथा धीमे अधिगमकर्ताओं हेतु धीमी गति द्वारा अनुदेशन देना चाहिए विशेषकर अमूर्त विषयों प्रकरणों में। पढ़ाते समय विशेष बालकों की सहभागिता का उपयोग भी करना चाहिए। ब्लेक बोर्ड का शिक्षण में उपयोग अवधान केन्द्रीकरण में सहायक होता है जिसका उपयोग अनुदेशन में होना चाहिए । उद्दीपन परिवर्तन गतिविधियों के कौशल का उपयोग भी विशेष छात्रों के अधिगम विकास में विशेष सहायक है।

(6) आकलन का विशेष छात्रों के निर्देशन व मार्गदर्शन में उपयोग – विशेष बालक के मूल्यांकन या आकलन के पश्चात् ऐसे बालकों की विषयगत बाधा का पता लगाकर उसे उपयुक्त निर्देशन दिया जाना चाहिए। अभिक्रमित अधिगम का व्यावहारिक उपयोग स्वाध्याय में करने हेतु भी मार्गदर्शन दिया जाना चाहिए। खेलकूद तथा शारीरिक शिक्षण, सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों में उसकी भागीदारी में कमियों पर भी विशेष बालक को सामने बैठाकर निर्देशन व परामर्श दिया जाना चाहिए।

(7) निदानात्मक व उपचारात्मक अनदेशन – विशेष बालक की विषयगत निष्पत्ति की जाँच तथा सर्वांगीण विकास से संबंधित शारीरिक, मानसिक, सांस्कृतिक, सामाजिक कमियों को पहचानकर उसके अनुसार निदानात्मक व उपचारात्मक शिक्षण दिया जाना चाहिए। निदानात्मक शिक्षण से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा शिक्षक विशेष बालक की सीखने की कठिनाइयों का विश्लेषण कर कारणों का अनुसंधान करता है । फिर उसके हित में आमने-सामने विशेष सधारात्मक शिक्षण, छात्र की शिक्षण अधिगम से सक्रिय भागीदारी, कठिन अनुभूत किये जाने वाले प्रकरणों पर विशेष ध्यान तथा निर्दिष्ट गृहकार्य आदि सहायत शिक्षक द्वारा की जाती है । उदाहरण बालक की वर्तनी (सेलिंग) की अशुद्धियाँ, वाचन में अशुद्धि, विराम चिन्हों की अशुद्धि या गणित में गणा भाग करने की अशुद्धियों को दूर करने हेतु उपचारात्मक अनुदेशन दिये जा सकते हैं। इसके लिए विशेष कक्षा का समायोजन होना चाहिए क्योंकि सामान्य बालकों के साथ शिक्षण से सामान्य बालकों का समय नष्ट होता है।

(8) विशेष बालकों के लिए शिक्षण में अनुकूलन (एडॉप्शन) – सामान्य बालकों के साथ-साथ विशेष तथा निःशक्त बालकों को शिक्षण या अनुदेशन देते समय शिक्षण की योजना ऐसी होनी चाहिए जिसमें विशेष बालक सामान्य कक्षा के शिक्षण के सभी प्रत्ययों व स्वरूप को पूर्णतः समझ जाए। इस हेतु शिक्षण को विशेष बालकों के अनुकूल बनाने हेतु अनुदेशनात्मक विधियों को अनुकूलित करना होता है। यह भी ध्यान रखना होता है कि सामान्य बालकों के शिक्षण में अवरोध उत्पन्न नहीं होना चाहिए।

(ब) पाठ्यक्रम

(1) विशेष शैक्षणिक आवश्यकताओं वाले बालकों के हितार्थ लोचदार पाठ्यक्रम- पाठ्यक्रम सामान्य तथा विशेष दोनों बालकों हेतु उपयोगी हो इस हेतु उसमें लचीलापन होना चाहिए। अर्थात् विशेष आवश्यकता वाले बालकों का शिक्षण करते समय उसमें किंचित बदलाव या परिवर्तन किया जा सके। यह परिवर्तन मूलभूत स्वरूप का न होकर अंतरिम तथा तत्कालीन हो ताकि आवश्यकतानुसार शिक्षक बदलाव कर सके । इसके लिए आवश्यक हो तो समावेशी विद्यालय में विशेष कक्षाएं विशेष बालकों हेतु लगाई जाएं । इससे आकलन में कमजोर पाए गए छात्रों का लाभ होगा।

(2) व्यवसाय या शिल्प केन्द्रित पाठ्यक्रम लागू करना- विशेष आवश्यकता वाले बालकों के समक्ष पढ़ लिख जाने के बाद जीवन-यापन के साधन की आवश्यकता पड़ती है । इस हेतु अध्ययन काल में ही ऐसे व्यवसाय या शिल्प में शिक्षा दी जानी चाहिए जो निःशक्त बालक के शारीरिक तथा मानसिक सामर्थ्य के अनुरूप हो । ठदाहरण के लिए पेशे से निःशक्त बालक बैठे-बैठे लिपिक का कार्य, लाइब्रेरियन का कार्य, विक्रेता का काम, बढ़ईगिरी, घड़ीसाजी, टेलीफोन ऑपरेटर का काम कर सकते हैं। इसी प्रकार मानसिक रूप से थोड़ी मंद बालिकाएं पाक कला ,गाना बजाना, लिफाफे बनाने का काम कर सकती है । मक-बधिर व्यक्ति सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, फोटोग्राफी आदि कार्य करने में सक्षम हैं । अत: व्यावसायिक पाठ्यक्रम के रूप में अथवा कार्यानुभव के रूप में उनके पाठ्यक्रम के शिल्प केन्द्रित/व्यवसाय केन्द्रित बनाया जाना उनके लिए लाभप्रद है। धीमे अधिगमका या मंदबुद्धि बालकों हेतु भी इनके अनुकूल विजली के काम कम्प्यूटर ऑपरेटर के काम की शिक्षा दी जा सकती है। आकलन या मूल्यांकन में जिन निराक, बालकों का निष्पादन कम है उन्हें व्यावसायिक शिक्षा में अधिक सफलता मिलने की संभावना है।

(3) पाट्य विषयों से जुड़ी पाट्यमहगामी क्रियाओं की शिक्षा- निःशक्त बालकों हेतु चित्रकला, मूर्तिकला, भाषण प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता, नाटक मंचन, विषय ज्ञान आधारित क्विज प्रतियोगिता आदि का आयोजन होना चाहिए तथा ठनमें निशक्त बालक की सहभागिता भी होनी चाहिए। इससे बालकों की अनेक भाषागत, कला संबंधी, सामान्य ज्ञान संबंधी जानकारी में वृद्धि होगी। मूल्यांकन में पाई गई अनेक कमियों का निराकरण इनसे संभव है |

(4) शैक्षिक उद्देश्यों के अनुसार पाठ्यक्रम के विषयों का शिक्षण- मूल्यांकन में निम्न निष्पत्ति प्राप्त शारीरिक तथा मानसिक रूप से नि:शक्त बालकों के लिए पाठयक्रम में निर्धारित विभिन्न विषयों के मामान्य रीति से शिक्षण के स्थान पर ठमे विषयों व प्रकरणों के उद्देश्यों को आधार बनाकर पढ़ाने से ऐसे बालकों की शैक्षिक प्रगति में सुधार संभव है । पाठ्यक्रम के उद्देश्य विशेषज्ञों द्वारा समावेशी शिक्षा के अनुरूप निर्धारित किये जाते हैं अतः इनका शिक्षण भी तदनुसार होना चाहिए।

(5) विभिन्न विषयों से सहसंबंध स्थापित करना – प्रायः आकलन के दौरान यह अनुभूत किया गया है कि कुछ विषयों में निःशक्त छात्र अधिक अंक अर्जित करते हैं तथा कुछ विषयों में कम । सभी विषय शिक्षकों को चाहिए कि इस समस्या के हल के लिए पाठ्यक्रम के विषय पढाते समय वे अन्य विषयों से सहसंबंध स्थापित करें। इससे जहाँ बालकों में विभिन्न विषयों के प्रति बोधगम्यता से वृद्धि होगी वहीं कठिन व दुष्कर लगने वाले विषयों का अध्ययन उनके लिए सरल हो जाएगा।

(6) विषय शिक्षण में व्यापक अधिगम अनुभवों का निवेश- सीखने से संबंधित नए-नए प्रयोग, नई गतिविधियाँ, नई समस्याओं का क्रियात्मक हल खोजने के प्रयास, तथा विषय के प्रायोगिक पक्ष से संबंधित विभिन्न अधिगम अनुभव बाधित विशेष बालकों को व्यापक फलक पर सीखने का अवसर प्रदान करते हैं। आकलन के निम्न श्रेणी ग्रेड अर्जित करने वाले छात्रों के लिए संगी साथी शिक्षण, सामूहिक शिक्षण, क्विज प्रतियोगिता, प्रोजेक्ट कार्य आदि अधिगम के अनुभव उनकी उपलब्धि में सुधार लाते है |

(7) पुस्तकालय तथा वाचनालाय का निरंतर उपयोग – अधिगम को स्थाई करने. अधिगम के स्थानांतर को बढ़ावा देने, स्वाध्याय की प्रवृत्ति छात्रों में उत्पन्न करने तथा विभिन्न लेखकों के विषय या प्रकरण पर लिखे विभिन्न विचारों को आत्मसात करने हेतु निःशक्त छात्रों को पुस्तकालय से नियमित पुस्तकें निर्गमित कराने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना चाहिए । लाइब्रेरी में बैठकर संदर्भ पुस्तकें व अन्य पुस्तकों का अध्ययन करने हेतु लाइब्रेरी में ओपन बुक सिस्टम लागू करना चाहिए। विशेषकर साप्ताहिक लाइब्रेरी व वाचनालय के कालखंडों में छात्रों के अन्य कार्य करने के स्थान पर वाचनालय व पुस्तकालय के उपयोग को बढ़ावा देने का प्रयास शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए। लाइब्रेरी में बात करना प्रतिबंधित होना चाहिए । केवल शिक्षक या निःशक्त बालक की सहायता हेतु नियुक्त संगी साथी से वह अध्ययन के मामलों में धीमे-धीमे स्वरों में चर्चा कर सकता है । पुस्तकालय के उपयोग की प्रवृत्ति से कम ग्रेडिंग परीक्षाओं में लाने वाले छात्रों को लाभ प्राप्त होगा।

(8) व्यक्तित्व विकास की अन्य गतिविधियों में सहभागिता हेतु प्रोत्साहित करना – ऐसा भी पाया गया है कि कुछ विशेष आवश्यकताओं वाले छात्र विषय के अध्ययन तथा उसकी परीक्षाओं में अधिकाधिक अंक/ग्रेड लाने में तो सफल हो जाते हैं किन्तु सर्वांगीण विकास के अन्य पहलुओं-शारीरिक व्यायाम तथा खेलकूद, पाठ्यसहगामी क्रियाएं, सामाजिकता को बढ़ावा देने वाले वार्षिकोत्सव, प्रदर्शनी आदि से जी चुराते हैं। जबकि पाठ्यक्रम का उद्देश्य बालक का सर्वांगीण विकास है । सहभागिता के अभाव में वे अन्य अनेक गुणों से वंचित हो जाते हैं । सतत समग्र मूल्यांकन की अवधारणा से उन्हें विषय आकलन के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों में कम अंक/ग्रेड प्राप्त होता है । अतः उनके कक्षा शिक्षकों को चाहिए कि वे अन्य साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व शारीरिक गतिविधियों में सामर्थ्य अनुसार छात्रों की सहभागिता को प्रोत्साहित करते रहें।

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