समावेशी शिक्षा की संकल्पना पर प्रकाश डालते हुए इसकी आवश्यकता व महत्त्व पर प्रकाश डालें।

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आज भारत की विद्यालय शिक्षा व्यवस्था चीन के पश्चात् विश्व की दूसरी सबसे बड़ी व्यवस्था है यहाँ तकरीबन 10 लाख स्कूलों में 2025 लाख बच्चों को पढ़ाने का काम लगभग 55 लाख शिक्षक कर रहे हैं। 82% रिहाइशी इलाकों में एक किलोमीटर की परिधि के अंदर प्राथमिक तथा 75% रिहाइशी इलाकों में तीन किलोमीटर के अन्दर उच्च प्राथमिक पाठशाला है। इन सबके बावजूद वर्तमान में लाखों बालक शिक्षा की मुख्य धारा से वंचित हैं। आज भी हमारे विद्यालय ऐसे बालक जिनका विभिन्न ज्ञानेन्द्रियाँ,शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों के कारण कुछ विशिष्ट शारीरिक या शैक्षिक आवश्यकताएं हैं,के लिए साधनहीन नजर आते हैं।

वर्तमान में विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों के लिए शिक्षा की दो प्रकार की व्यवस्थाएं हैं–

(1) विशेष विद्यालय– पहले विशेष विद्यालय है जो कि अधिकतर शहरों में स्थित है जिनका उद्देश्य केवल एक प्रकार के विशिष्ट बालकों की विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है।

(2) सामान्य विद्यालय– दूसरे हैं– सामान्य विद्यालय,ये वे सामान्य विद्यालय हैं जो कि बालक की पहँच में है तथा उनकी विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति करने की व्यवस्था की जाती है। इस प्रकार वह बालक अपने भाई– बहन या अपनी कक्षा के दूसरे साथियों से मिलजुल कर सीख सकता है जिससे बालक को समाज में समायोजन करने में सहायता मिलती है।

अर्थात आरम्भ से ही बालक को मुख्य धारा वाले विद्यालयों में भेजा जाये ताकि वह सामान्य बालकों के साथ समायोजित हो सके। इसी अवधारणा के साथ समावेशित शिक्षा व्यवस्था का आरम्भ हुआ। समावेशी शिक्षा से तात्पर्य ऐसी शिक्षा प्रणाली से है जिसमें प्रत्येक बालक चाहे वह विशिष्ट हो या सामान्य बिना किसी भेदभाव के, एक साथ एक ही विद्यालय में सभी आवश्यक तकनीकों व सामग्रियों के साथ, उनकी सीखने सिखाने की जरूरतों को पूरा किया जाये।

समावेशी शिक्षा का अर्थ

समावेशी शिक्षा कक्षा में विविधताओं को स्वीकारने की एक मनोवृत्ति है जिसके अन्तर्गत विविध क्षमताओं वाले बालक सामान्य शिक्षा प्रणाली में एक साथ अध्ययन करते हैं। इसके अन्तर्गत यह माना जाता है कि प्रत्येक बालक अद्वितीय है। उसे अपने सहपाठियों की भाँति विकसित करने के लिए कक्षा में विविध प्रकार के शिक्षण की आवश्यकता होती है जिस प्रकार हमारा संविधान किसी भी आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को निषेध करता है उसी प्रकार समावेशित शिक्षा विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय,शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक आदि कारणों से उत्पन्न किसी बालकों की, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं के बावजूद उन बालकों को भिन्न देखे जाने के बजाय स्वतंत्र अधिगमकर्ता के रूप में देखती है।

शिक्षा में समावेशन के आधार

(1) समावेशन की सहायता से प्रत्येक बालक चाहे वह सामान्य हो या विशेष आवश्यकता वाले प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप में सीखने हेतु प्रेरित होता है |

(2) बालकों के सीखने के तौर तरीकों में विविधता होती है। निम्न तरीकों से बालक को सीखने में मदद की जाती है:

(i) अनुभवों द्वारा,

(ii). अनुकरण के माध्यम से,

(iii) चर्चा करना,

(iv) प्रश्न पूछना,

(v) सुनना,

(vi) चिंतन, मनन,

(vii) खेल क्रियाकलापों,

(viii) समूह गतिविधियाँ आदि तरीकों में बालकों को सीखने सिखाने का अवसर प्रदान किया जाता है।

(3) बालकों को सीखने के पूर्व सीखने– सिखाने के लिये तैयार करना आवश्यक होता है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्मित करने की आवश्यकता होती है |

समावेशित शिक्षा को महत्त्व एवं आवश्यकता

(1) समावेशित शिक्षा प्रत्येक बालक के लिये उच्च और उचित उम्मीदों के साथ, उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।

(2) प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने हेतु अभिप्रेरित होता है।

(3) समावेशी शिक्षा अन्य बालकों के समान कक्षा गतिविधियों में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिये अभिप्रेरित करती है।

(4) समावेशी शिक्षा बालकों की शिक्षा से संबंधित गतिविधियों में उनके माता– पिता को भी सम्मिलित करने पर जोर देती है।

(5) समावेशी शिक्षा सम्मान और अपनेपन की स्कूल संस्कृति के साथ– साथ व्यक्तिगत मतभेदों को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है।

(6) समावेशी शिक्षा बालकों में अपने स्वयं के व्यक्तिगत आवश्यकताओं और क्षमताओं के साथ प्रत्येक का व्यापक रूप में विविधता के साथ आपसी सहसंबंध का विकास करने की क्षमता विकसित करती है।

समावेशी शिक्षा सही रूप से शिक्षा का अधिकार जैसे शब्दों का रूपान्तरित रूप है जिसके कई उद्देश्यों में से एक उद्देश्य, विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकता वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रेदान करना है । यह शिक्षा समाज के सभी बालकों को मुख्य धारा से जोड़ने का समर्थन करती है।

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