समावेशी शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं? समावेशी शिक्षा की शिक्षा प्रक्रिया की व्याख्या करें।

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समावेशी शिक्षा से अभिप्राय है कि छात्रों को सार्थक शिक्षा अनुकूलतम पर्यावरण में उपलब्ध कराई जाए जिससे वे जीवन को सफल बना सकें। यह एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था है जो यह तय करती है कि प्रत्येक छात्र को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिले और इसमें योग्यता, शारीरिक अक्षमता, भाषा, संस्कृति, पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा उम्र किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न कर सके। समावेशी शिक्षा तथा सामान्य शिक्षा के उद्देश्य लगभग समान होते हैं जैसे बालकों को उपयुक्त शिक्षा द्वारा मानवीय संस्थानों का विकास, नागरिक विकास, समाज का पुनर्गठन, व्यावसायिक कार्यकुशलता आदि प्रदान किया जाना। इन उद्देश्यों के अतिरिक्त समावेशी शिक्षा के अन्य उद्देश्य निम्न हैं–

(1) शारीरिक अक्षमता वाले बालकों के माता– पिता को निपुणता तथा कार्यकुशलताओं के बारे में समझना तथा बालकों के समक्ष आने वाली समस्याओं एवं कमियों का समाधान करना।

(2) शारीरिक विकृत बालकों की विशेष आवश्यकताओं की सर्वप्रथम पहचान करना तथा उनका निर्धारण करना।

(3) शारीरिक दोष की स्थिति के बढ़ने से पूर्व ही उसे रोकने के उपाय करना तथा बालकों के सीखने की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करने की नवीन विधियों द्वारा प्रशिक्षण देना।

(4) शारीरिक रूप से अक्षमता वाले बालकों का पुनर्वासन किया जाना चाहिए।

(5) शारीरिक रूप से विकृत बालकों की शिक्षण समस्याओं की जानकारी एकत्रित कर सुधार हेतु सामूहिक संगठन की तैयारी करना चाहिये।

समावेशी बालकों की शिक्षा प्रक्रिया

समावेशी बालक विभिन्न प्रकार के होते हैं समावेशी बालकों के लिये उनकी श्रेणी के अनुसार शिक्षा कार्यक्रम बनाने चाहिये जो कि निम्न हैं–

(1) समावेशी बालकों की पहचान तथा आकलन– अधिकांश बाधित बालक विद्यालय तथा समाज में बिना पहचाने रह जाते हैं । इसके परिणामस्वरूप वे अपनी कार्यक्षमताओं तथा प्रतिभाओं का पूर्णरूप से विकास नहीं कर पाते हैं, अतः ऐसे बालकों के लिए ऐसे अध्यापकों की आवश्यकता होती है कि वे बाधित बालकों की पहचान कर सकें, बालकों के व्यवहार द्वारा ये शिक्षक उन्हें आसानी से पहचान लेते हैं। इन बालकों को चिकित्सकीय व मनोवैज्ञानिक सहायता देने का प्रयास करना चाहिये । शिक्षक क्रियात्मक, सृजनात्मक निर्धारण के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि बालक क्या कर सकता है व क्या नहीं? यदि कार्यक्रमों को प्रभावशाली तथा सफल बनाना है तो प्रत्येक स्थिति में चिकित्सकीय व मनोवैज्ञानिक निर्धारण को प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए।

(2) सेवाओं का स्थापन– मनोवैज्ञानिक व चिकित्सकीय निर्धारण के पश्चात् समावेशी बालकों को उपयुक्त श्रेणी तथा उपयुक्त शिक्षण संस्था में प्रवेश दिया जाना चाहिए। किसी भी शिक्षण संस्था में समावेशी बालकों के स्तर का निर्धारण उनके अतिक्रम तथा पिछले अनुभव के आधार पर किया जा सकता है। शारीरिक तथा मानसिक बालकों के लिये भारत में निम्न स्थापन कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं–

(i) सामान्य कक्षाओं में पूर्णकालिक स्थापन

(ii) आवासीय शिक्षा संस्थानों में पूर्णकालिक स्थापन

(iii) सामान्य कक्षा तथा विशेष कक्षा में बारी– बारी से अंशकालिक स्थापन

(iv) समावेशी कक्षाओं में पूर्णकालिक स्थापन, समावेशी शिक्षण संस्थाओं में पूर्णकालिक स्थापन आदि।

(3) वैयक्तिकता पर बल– समावेशी बालक एक विषमांगी समूह बनाते हैं अर्थात् समावेशी बालक विभिन्न प्रकार के होते हैं जिनका विभाजन विभिन्न श्रेणियों में किया जाता है। प्रत्येक श्रेणी के बालकों की अपनी विशेषताएं होती हैं। बालकों के विशिष्ट गुणों के परिणाम को विचार करते हुए विभिन्न समूहों में विभाजित किया जा सकता है। इस प्रकार समावेशी बालकों की शिक्षा उनकी विशेषता वैयक्तिक विशेषताओं से मिलती– जुलती होनी चाहिए।

(4) अधिगम पर बल– वर्तमान समय में शिक्षा की अपेक्षा अधिगम पर अधिक बल दिया जा रहा है। अध्यापकों को बालकों को इस प्रकार शिक्षा देनी चाहिए कि बालक सबसे अच्छा अधिगम कर सके। समावेशी बालकों के लिये शिक्षा कार्यक्रम की योजना बनाते समय शिक्षा की अपेक्षा अधिगम की पुष्टि करता है।

(5) भत्तों का प्रावधान– भारत सरकार ने शारीरिक रूप से विकृत बालकों की शिक्षा के लिये कुछ भत्तों का भी प्रावधान किया है जैसे– छात्रवृत्ति यात्रा भत्ता. पुस्तक खरीदना, यूनिफॉर्म भत्ता उपस्थिति भत्ता आदि । विकृत बालकों को इन भत्तों से लाभ उठाने के लिए प्रेरित करना चाहिये।

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