समावेशी शिक्षा के क्रियान्वयन के लिए (1) विद्यालय प्रबंधन तथा (2) कक्षा प्रबंधन – कैसा होना चाहिए?

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समावेशी शिक्षा का अर्थ है–सामान्य बालकों तथा विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों के मध्य ऐसा तालमेल कायम करना जिससे दोनों प्रकार के बालकों को एक साथ पढ़ाया जा सके। इसी भेदभाव रहित, एकीकरण करने और तालमेल को समावेशन की संज्ञा दी गई है । इसका उद्देश्य निःशक्त बालकों को समाज की मुख्य धारा से जोड़ता है। समावेशन में विस्तृत अर्थ में अभिभावक, समुदाय, शिक्षा प्रशासक आदि भी समाविष्ट हो जाते हैं। प्रो. एसके. दुबे के शब्दों में “समावेशी शिक्षा का आशय उस शिक्षा व्यवस्था से है जिसमें सामान्य एवं अक्षम छात्रों को एक साथ शिक्षण प्रदान करते हुए उच्च अधिगम स्तर से संबंधित क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है तथा समुदाय, अभिभावक, शिक्षक एवं प्रशासन का सक्रिय सहयोग प्राप्त किया जाता है।”

समावेशी शिक्षा के सफल क्रियान्वयन के लिए विद्यालय प्रबंधन तथा कक्षा प्रबंधन का समावेशन की अवधारणा के अनुरूप होना आवश्यक है।

(1) विद्यालय प्रबंधन और समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन

विद्यालय प्रबंधन ऐसा संगठनात्मक रूप है, जिसमें विद्यालय की विभिन्न शैक्षिक, सामाजिक, संसाधनात्मक, अधोसंरचनात्मक तथा मानव संसाधनात्मक व्यवस्थाएं सम्मिलित रहती हैं परन्तु विद्यालय प्रबंधन के उक्त रूप में ‘समावेशन’ के सिद्धान्तों का क्रियात्मक समावेश हो जाए तो वह विद्यालय समावेशी शिक्षा क्रियान्वयन की संस्था बन जाएगा। विद्यालय तत्परता तथा परिवर्तन (स्कूल रेडीनेस एंड स्कूल ट्रांजिसन) का आशय भी यही है कि विद्यालय जहाँ समावेशी शिक्षा प्रदान की जा रही है वह इसके लिए तत्पर है भी या नहीं। अर्थात् इसमें क्या वे सभी परिवर्तन समाहित हो गए हैं जो समावेशन हेतु आवश्यक हैं?

समावेशी शिक्षा के क्रियान्वयन के लिए विद्यालय प्रबंधन में निम्नलिखित तथ्य आवश्यक हैं–

(1) विद्यालय में समावेशी संसाधनों की व्यवस्था– समावेशी विद्यालय में निःशक्त बालकों हेतु आवश्यक सामग्री सहायक शिक्षण सामग्री, दृश्य श्रव्य उपकरण, चित्र–चार्ट, पोस्टर, ग्लोब, मानचित्र, श्रवण यंत्र, वैशाखी, चश्मे, विकलांग अस्थि बाधित बालकों हेतु ट्राइसिकल के आने हेतु रेप की व्यवस्था, संसाधन कक्षों की व्यवस्था, उपयुक्त फर्नीचर, सुव्यवस्थित कक्षा–कक्ष, शौचालय, पुस्तकालय, चिकित्सा कक्ष, खेल का मैदान व सामग्री, आडिटोरियम या हाल, शुद्ध पेयजल व्यवस्था, मनोवैज्ञानिक परीक्षण, संगीत व वाद्य यंत्र, इत्यादि वह संभी अधोसंरचनात्मक व संसाधनात्मक सामग्रियाँ उपलब्ध रहनी चाहिए जिनका इस्तेमाल सामान्य व निःशक्त बालकों हेतु हो सके । प्रकाश तथा वायु की भी समुचित व्यवस्था विद्यालय में आवश्यक है।

(2) समावेशित पर्यावरण– विद्यालय का वातावरण समावेशी शिक्षा के अनुकूल संधारित किया जाना चाहिए । शाला प्रबंधकों का दायित्व है कि वे निःशक्त बालकों तथा सामान्य बालकों के मध्य अलगाव का भेदभाव न आने दें। छात्रों में ऐसे संस्कार निर्मित किये जाने चाहिए कि वे निःशक्त बालकों की सहायता करें। यदि कोई पैरों से निःशक्त व्यक्ति चलने या खड़े होने में कठिनाई का अनुभव कर रहा है तो सामान्य बालक द्वारा तत्काल सहायता प्रदान करनी चाहिए। न केवल छात्र विद्यालयीन शिक्षकीय व गैर शिक्षकीय स्टाफ को भी श्रवणबाधित, दृष्टिबाधित, मंदबुद्धि बालकों की सहायता कर छात्रों के सामने आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए । निशक्त बालकों के प्रति संवेदनशीलता विद्यालय में समावेशित वातावरण के निर्माण हेतु आवश्यक है।

विद्यालय का वातावरण निःशक्त बालकों के हितार्थ बाधारहित होना चाहिए। जैसे एक अपंग छात्र को अपनी ट्रायसिकल कक्षा–कक्ष के निकट तक ले जाने हेतु उपयुक्त रेप की व्यवस्था होनी चाहिए। विद्यालय में पर्यावरण का सामान्यीकरण होना चाहिए । सामान्यीकरण से अभिप्राय ऐसी प्रक्रिया और प्रयत्नों से है जिनके द्वारा विशेष तथा अपंग बालकों की शिक्षा और जीवन जीने के लिए प्रयोग में आने वाले पर्यावरण को सामान्य शिक्षा एवं सामान्य पर्यावरण के तुल्य बनाना है। चाहे बालक की निःशक्तता का रूप और स्तर किसी भी प्रकार का हो, सामान्यीकरण का उद्देश्य यह है कि बालक अपनी शिक्षा और पर्यावरण में एक सामान्य बालक जैसा अनुभव करे। समावेशन में न्यूनतम प्रतिबंधित पर्यावरण तथा मुख्य धारा में सम्मिलित करने वाले वातावरण की आवश्यकता होती है।

(3) समावेशी पाठ्यक्रम– समावेशी पाठ्यक्रम में एक विषय की विषयवस्तु के साथ–साथ अन्य विषयों की विषयवस्तु को औचित्य का ध्यान रखते हुए समावेशित किया जाता है ताकि विभिन्न विषयों में अन्तर्सम्बन्ध स्थापित हो । निसंदेह सभी प्रकार के विद्यालयों हेतु ऐसा पाठ्यक्रम उपयोगी होता है परन्तु समावेशी विद्यालय में समावेशी पाठ्यक्रम का विशेष अर्थ यह है कि इसमें विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए उपयुक्त विशेष विषय सभी विषयों के पाठ्यक्रम में रखे जाएं । ऐसा प्रयास निःशक्त बालकों के साथ सामान्य बालकों हेतु भी उपयोगी होगा। विद्यालय प्रबंधकों को ऐसे समावेशित पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षण की व्यवस्था अपने विद्यालयों में करनी चाहिए।

(4) समावेशी शिक्षण– विद्यालय प्रबंधन का अतिमहत्त्वपूर्ण पक्ष शिक्षण व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। समावेशी विद्यालय में समावेशी शिक्षण हेतु शिक्षकों को विशेष आवश्यकता वाले बालकों को प्रदान की जाने वाली सभी शिक्षण सुविधाओं का ध्यान रखना चाहिए जिससे उनकी अक्षमता शिक्षण में बाधा न बन सके। शिक्षक को बाधित बालकों के प्रति विशेष संवेदनशील होकर शिक्षण करना चाहिए तथा उन्हें प्रताड़ित या अपमानित करने के स्थान पर उन्हें पग–पग पर प्रोत्साहित करते रहना चाहिए। शिक्षण में गतिविधि आधारित बालकेन्द्रित शिक्षण विधियों का. सहायक शिक्षण सामग्री का, शिक्षण तकनीक का सहारा शिक्षण में लेना चाहिए। शिक्षण में अपंग व सामान्य दोनों प्रकार के छात्रों की सहभागिता का ध्यान रखना चाहिए।

विद्यालय प्रबंधन का दायित्व है कि संवेदनशील प्रशिक्षित शिक्षकों की नियक्ति करे तथा ऐसे कर्मठ योग्य शिक्षकों को प्रोत्साहित करता रहे।

(5) स्रोत कक्ष, चिकित्सा कक्ष निदेशन व परामर्श कक्ष, व्यावसायिक शिक्षा कक्ष (कार्यानभव कक्ष) की व्यवस्था– समावेशी विद्यालयों में सामान्य छात्रों के साथ–साथ विशेष आवश्यकता वाले निःशक्त बालक भी शिक्षा प्राप्त करते हैं अतः विद्यालय में सभी छात्रों के हितार्थ संसाधन कक्ष. चिकित्सा कक्ष और चिकित्सक, निदशन व परामर्श कक्ष तथा कार्यानभव कक्ष की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि अपंग छात्रों की शिक्षा, चिकित्सा, शैक्षिक व व्यावसायिक परामर्श तथा हस्तशिल्प की जीवनोपयोगी शिक्षा दी जा सके । सभी कक्षों की साजसज्जा तथा अनिवार्य सामग्रियों की व्यवस्था शाला–प्रबंधन का दायित्व है।

(6) शासकीय योजनाओं से समय पर छात्रों को लाभान्वित करने की व्यवस्था– अपंग छात्रों के हितार्थ समाज कल्याण विभाग द्वारा अस्थि विकलांग छात्र हेतु वैशाखी, ट्रायसिकल, श्रवण बाधित छात्रों के लिए श्रवण यंत्र, अंध बालकों हेतु चश्मे यातायात हेतु निःशुल्क टिकट, परीक्षा में दृष्टि विकलांग हेतु सहायक की सुविधा, छात्रवृत्ति, छात्रावास सुविधा, शिक्षा विभाग द्वारा निःशुल्क पाठ्य पुस्तकों व स्टेशनरी, गणवेश प्रदाय, दोपहर का भोजन आदि सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है। इसी प्रकार सामान्य बालकों हेतु भी छात्रवृत्ति, मेरिट स्कॉलरशिप आदि की योजनाएं हैं। निर्धन वंचित वर्ग के बालक–बालिकाओं के लिए साइकिल प्रदाय योजना, प्रोत्साहन सहायता योजनाएं संचालित हैं । इन सभी योजनाओं के लिए आवश्यक औपचारिकताएं पूर्ण करने तथा समय पर लाभ छात्रों को दिलाने की जिम्मेदारी शाला प्रबंधक की है। इस हेतु विशेष प्रभारी अधिकारी तथा लिपिक की व्यवस्था की जाना भी विद्यालय प्रबंधन हेतु आवश्यक है। समावेशी विद्यालय में इन सुविधाओं के अभाव में निर्धन निःशक्त छात्र शाला जाना भी छोड़ देते हैं या अनुपस्थित रहते हैं। अतः समय से पूर्व इन लाभों से छात्रों को लाभान्वित करना विद्यालय प्रशासन का दायित्व है।

(7) समय प्रबंधन– शाला में समय सारणी (टाइम टेबल) का विशेष महत्त्व है । समावेशी विद्यालय की समय सारणी इस प्रकार निर्मित की जानी चाहिए कि उसमें समावेशित विषयों के लिए पूर्ण समय की व्यवस्था हो । समय सारणी में कालखंड (पीरियड) का समय प्राथमिक स्तर पर छात्रों की योग्यता व स्तर के अनुसार होना चाहिए क्योंकि इस स्तर के छात्रों को शारीरिक व मानसिक थकान शीघ्र घेर लेती है। अन्य उच्च कक्षाओं में भी गतिविधियों को स्थान छात्रों की स्थिति के अनुसार देना चाहिए जैसे प्रारंभ में छात्रों को कुछ कठिन गतिविधियाँ दी जाएं तथा थकान होने पर मनोरंजनात्मक गतिविधियाँ प्रदान की जा सकती हैं।

शाला हेतु समय सारणी के अतिरिक्त वार्षिक कार्य योजना भी बना ली जानी चाहिए जिसमें पाठ्य सहगामी क्रियाएं कब आयोजित होंगी इसका औचित्य के आधार पर उल्लेख हो। शाला की वार्षिक कार्य योजना में राष्ट्रीय दिवस आयोजन,जन्म तिथि या पुण्य तिथि पर आयोजन, छात्रों के अभिभावकों की बैठक, वार्षिकोत्सव विश्व विकलांग दिवस आदि के आयोजन की तिथियाँ निर्धारित हों।

(8) शालेय गतिविधियाँ– शिक्षण के अतिरिक्त पाठ्य सहगामी क्रियाएं भी प्रत्येक पाठशाला हेतु आवश्यक होती है। पाठ्य सहगामी क्रियाओं से बालकों का सर्वांगीण विकास–शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास संभव होता है। विशेष उल्लेखनीय यह है कि समावेशी शालाओं में विभिन्न प्रकार की निःशक्तता से ग्रसित बालकों की क्षमता व सामर्थ्य का ध्यान रखते हुए उन्हें भी इन गतिविधियों हेतु प्रोत्साहित किया जाता है। विभिन्न शालेय गतिविधियाँ निम्न स्वरूप की होती हैं–

(1) शारीरिक विकास संबंधी गतिविधियाँ जैसे–खेल (इनडोर तथा आउटडोर), शारीरिक व्यायाम, सामूहिक ड्रिल,व्यायाम । इस वात का ध्यान रखना चाहिए कि जो बालक शारीरिक निःशक्तता के कारण इन शारीरिक गतिविधियों में असमर्थ हो उन्हें ये नहीं कराई जानी चाहिए।

(2) साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियाँ यथा–भाषण,वाद–विवाद, निबंध लेखन,कविता पाठ,शालेय पत्रिका प्रकाशन, संगीत, वादन, लोकनृत्य, चित्रकला, मूर्तिकला आदि।

(3) सामाजिक गतिविधियाँ जैसे पालकों/ अभिभावकों की बैठक, शालेय उत्सव, प्रदर्शनी, श्रमदान, स्वच्छता अभियान, पर्यटन या शैक्षणिक यात्राएं आदि ।

(9) शाला–समुदाय संपर्क– एक समावेशी विद्यालय हेतु सामाजिक या सामुदायिक संपर्क छात्रों के सामाजिक विकास के साथ स्वयं विद्यालय हेतु लाभप्रद होता है। विद्यालय को समुदाय के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को शाला के कार्यक्रमों में नियंत्रित करना चाहिए । निःशक्त बालकों की शाला में नामांकन की स्थिति कम है अत: समुदाय में प्रचार प्रसार कर तथा सर्वेक्षण कर ऐसे वालकों को शाला में प्रवेश दिलाना चाहिए। अध्ययनरत छात्रों के पालकों को ‘पालक बैठक (पेरेंट्स मीट) में बुलाकर उनसे उनके पाल्यों के संबंध में शिक्षकों व स्कूल प्रशासकों के साथ चर्चा करनी चाहिए। शिक्षक–पालक संघ में भी छात्रों की प्रगति, छात्र की समस्याओं आदि पर उनके पालकों को विश्वास में लेकर विमर्श करना चाहिए । इससे निःशक्त बालकों की समस्याओं को दूर करने में भी सहायता मिलेगी।

(10) मूल्यांकन प्रक्रिया में समावेशन– विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों का मूल्यांकन भी शिक्षण व्यवस्था के समान ही महत्त्वपूर्ण घटक है । समावेशी विद्यालयों में निःशक्त बालकों का मूल्यांकन एक पक्षीय न होकर प्रत्येक पक्ष से संबंधित होना चाहिए । शैक्षिक मूल्यांकन में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए क्योंकि अनुत्तीर्ण छात्र अत्यन्त निराशा का अनुभव करते हैं–इसके स्थान पर A, B, C, D, E जैसी ग्रेडिंग व्यवस्था लागू की जानी चाहिए तथा ग्रेड सुधारने हेतु विद्यार्थियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। मूल्यांकन प्रक्रिया सतत व व्यापक होनी चाहिए अर्थात् प्रत्येक गतिविधि के बाद प्रश्न पूछकर या चर्चा कर बालक का अधिगम स्तर जानना चाहिए। वार्षिक परीक्षा के प्राप्तांकों को कक्षोन्नति का आधार न बनाकर वर्ष भर की समग्र उपलब्धियों के आधार पर छात्र को कक्षोन्नति दी जानी चाहिए। निःशक्त बालकों की उपलब्धि की तुलना सामान्य बालकों की उपलब्धि से न कर निःशक्त बालक की विगत उपलब्धि से की जानी चाहिए । यथासंभव निःशक्त छात्रों को औसत प्रगति के आधार पर कक्षोन्नति दी जानी चाहिए।

(2) कक्षा प्रबंधन और समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन

जे. जोन (1970) ने अपने शोध अध्ययन से स्पष्ट किया है कि कक्षा प्रबंधन उन तथ्यों अथवा तत्त्वों पर आधारित है जिन्हें अध्यापक कक्षा में उनके अधिगम वातावरण के निर्माण हेतु तथा समस्याओं के समाधान करने हेतु प्रयुक्त करता है।

समावेशी शिक्षा के क्रियान्वयन में कक्षा प्रबंधन का बहुत महत्त्व है। कक्षा प्रबंधन में दो प्रमुख घटक हैं शिक्षक तथा छात्र । शिक्षक शिक्षण करता है और छात्र अधिगम करते हैं। इस प्रक्रिया से शिक्षा का क्रियान्वयन पूर्ण होता है। कक्षा प्रबंधन में शिक्षक तथा छात्रों के बीच संबंध विभिन्न तथ्यों पर निर्भर है। शिक्षक अपने व्यवहार तथा शारीरिक भाषा व हाव भाव से शिक्षण देता है। वह शाब्दिक अन्तक्रिया तथा शाब्दिक संप्रेषण कौशल तथा शिक्षण विधियों से अपना कार्य करता है तथा उसका लक्ष्य छात्रों के अधिगम में वृद्धि है। अधिगम व शिक्षण में यदि कोई समस्याएं आती हैं तो उनका निराकरण कक्षा प्रबंधन से संभव है। समावेशी शिक्षा में विशेष तथा सामान्य छात्र साथ–साथ अध्ययन करते हैं जिनमें वैयक्तिक विविधता अत्यधिक होने से कुछ समस्याएं भी सामने आती हैं। शिक्षक का उत्तम कक्षा प्रबंधन अनेक समस्याओं का उत्तम हल है।

समावेशी शिक्षा के क्रियान्वयन में कक्षा प्रबंधन के निम्नलिखित तथ्य प्रमुख रूप से प्रभावकारी हैं–

(1) कक्षा में अनुकूल बैठक व्यवस्था– निःशक्त छात्रों के लिए कक्षा में बैठने का उपयुक्त स्थान होना चाहिए ताकि वे निर्विन शिक्षा प्राप्त कर सकें । कमजोर दृष्टि तथा कमजोर सुनने की क्षमता वाले छात्रों को कक्षा में सामने की बेंचों पर बैठाना चाहिए ताकि वे शिक्षक तथा श्यामपट (ब्लेकबोर्ड) के नजदीक हों । पैरों से बाधित बालक के लिए सुविधाजनक टेबल कुर्सी की व्यवस्था होनी चाहिए । पैरों से बाधित बालक की वैशाखी तथा ट्रायसिकल की कक्षा तक आने के लिए तथा सुरक्षित रखने की व्यवस्था की जानी चाहिए । कक्षा में हवा तथा प्रकाश की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।

(2) कक्षा में अनुशासन तथा नियम पालन– कक्षा प्रबंधक के रूप में शिक्षक का दायित्व है कि कक्षा के छात्र शाला व कक्षा के नियमों का पालन करें। नियम भंग या अनुशासन भंग करने वाले छात्र को मारने या सजा (शारीरिक या मानसिक दंड) देने के स्थान पर छात्रों में स्वानुशासन की प्रवृत्ति उत्पन्न हो इसका प्रयास शिक्षक को करना चाहिए । कक्षा में निःशक्त बालकों से छेड़छाड़ मजाक या भेदभाव न हो इसका ध्यान शिक्षक को रखना होगा। अनुशासनहीनता की स्थिति में कक्षा शिक्षण पर कुप्रभाव पड़ता है। अतः कक्षा प्रबंधन में अनुशासन व नियमपालन महत्त्वपूर्ण है।

(3) नि:शक्त बालकों की समस्याओं का हल – समावेशी शिक्षा में सामान्य तथा निःशक्त बालक एक साथ पढ़ते हैं। कभी–कभी विशेष बालकों के व्यवहार संबंधी समस्याएं कक्षा–शिक्षण के समय सामने आती हैं। जैसे संस्कारविहीन बस्तियों से आने वाले छात्रों का चोरी करना, झगड़ा करना, शरारत करना, शिक्षक के प्रश्नों का उत्तर न देना, कक्षा से गोल मारना, अनुपस्थित रहना, झूठ बोलना, पढ़ाई में ध्यान न देना इत्यादि (हालांकि सामान्य छात्र भी ऐसी समस्या कक्षा में करते पाए जाते हैं) ऐसी स्थिति में शिक्षक को सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार कर समस्या की पुनरावृत्ति न हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए । जब ऐसा बालक अच्छा व्यवहार करे तब उसकी प्रशंसा कर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए।

(4) कक्षा में समावेशी वातावरण का निर्माण– कक्षा में सामान्य व विशेष छात्रों में भेदभाव न हो । निःशक्त छात्रों की सहायता उनके समीप बैठने वाले संगी साथी करें। अधिगम प्रक्रिया में दोनों प्रकार के छात्र सहभागी हों। निःशक्त बालक के प्रति शिक्षक व सामान्य छात्रों की संवेदनशीलता हो । यदि धीमी गति से सीखने वाले या अधिगम बाधित छात्र को कोई बात समझ में न आई हो तो शिक्षक उसे बार–बार बताएं । कक्षा के प्रतिभाशाली छात्र को भी ऐसे बालकों की सहायता हेतु तैयार करें। शिक्षक निःशक्त छात्रों को अभिप्रेरणा दें। निःशक्त बालकों के मानसिक स्तर के अनुरूप कक्षा शिक्षण हो । ये सब बातें कक्षा में समावेशी वातावरण का निर्माण करती हैं।

(5) विशेष बालकों पर विशेष ध्यान – वैसे तो समावेशी शिक्षा सामान्य तथा विशेष दोनों प्रकार के बालकों की शिक्षा से संबंधित होती है, परन्तु विशेष बालक अपनी विशेष आवश्यकताओं के कारण अतिरिक्त विशेष ध्यान की अपेक्षा करते हैं अतः कक्षा शिक्षण में शिक्षकों को इन विशेष बालकों की विशेष आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए उन्हें शिक्षित करना चाहिए । जैसे मंदबुद्धि या धीमे अधिगमकर्ता बालकों को विषयवस्तु की पुनरावृत्ति से पढ़ाना या कम दृष्टि वाले बालक के निकट बैठने वाले संगी साथी को उसकी सहायता करने हेत् तैयार करना । कक्षा प्रबंधन में विशेष बालकों के हितार्थ ये कार्य भी अपेक्षित हैं–

(i) श्रवण बाधित बालक को चित्र, आकृति, शब्द, इशारे के द्वारा समझाना उसकी सहायता के लिए एक नोट करने वाले छात्र को बैठाना, शिक्षण में कंप्यूटर का उपयोग करवाना।

(ii) कम दृष्टि वाले बालक हेतु 18 से 24 पाइंट टाइप पुस्तक की व्यवस्था करना, उसके लिए पर्याप्त प्रकाश की व्यवस्था करना

(iii) अस्थिबाधित छात्र को उठने खड़े होने में होने वाली परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए उसके लिए एक सामान्य संगी साथी की सहायता हेतु व्यवस्था करना,

(iv) धीमी गति से सीखने वाले छात्रों हेतु विषयवस्तु को छोटी–छोटी इकाइयों में विभाजित कर पढ़ाना, विशिष्ट कक्षा व विशिष्ट शिक्षण विधियों का प्रयोग करना।

(6) शिक्षण–अधिगम सामग्री में समावेशन– शिक्षण हेतु सहायक सामग्री चित्र, चार्ट, ग्राफ के निर्माण एवं प्रयोग में शिक्षक को विशेष आवश्यकता वाले बालकों पर अधिक ध्यान केन्द्रित करना चाहिए । सामान्य छात्र सहायक शिक्षण सामग्री को स्वयं देख–सुनकर आसानी से समझते हैं। शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रबंधन में शिक्षक को उपयोगिता का ध्यान रखना चाहिए | शिक्षण सामग्री का निर्माण छात्र की कक्षा के स्तर तथा छात्र की योग्यता के अनुसार होना चाहिए। दृष्टिबाधित छात्रों के हितार्थ सहायक शिक्षण सामग्री का बड़े आकार का होना आवश्यक है।

(7) शिक्षण पद्धतियों, शिक्षण सूत्रों का प्रयोग– कक्षा प्रबंधन में शिक्षण महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। शिक्षक को विषयवस्तु की पाठ योजना पूर्व से तैयार कर लेनी चाहिए तथा कहाँ–कहाँ शिक्षण पद्धतियों का कैसा प्रयोग करना है इसकी तैयारी करनी चाहिए । यद्यपि पढ़ाते समय परिस्थिति अनुसार लचीले तरीके से शिक्षण विधियों का प्रयोग होना चाहिए। प्रमुख शिक्षण सूत्र सरल से कठिन की ओर ज्ञात से अज्ञात की ओर, पूर्व ज्ञान से नए ज्ञान की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर आदि का प्रयोग सामान्य व विशेष दोनों प्रकार के बालकों हेतु उपयुक्त होता है।

(8) सतत समग्र मूल्यांकन– मासिक, त्रैमासिक, अर्द्धवार्षिक तथा वार्षिक परीक्षाओं के स्थान पर शिक्षक को प्रत्येक शिक्षण गतिविधि के साथ–साथ छात्रों के अधिगम की स्थिति का पता लगाने के लिए प्रश्न पूछकर, अभ्यास कार्य देकर मूल्यांकन करते रहना चाहिए। इससे शिक्षक को यह ज्ञात हो जाता है कि किन छात्रों नेशिक्षण से कितना लाभ अर्जित किया है। समग्र मूल्यांकन का आशय यह है कि छात्र के केवल बौद्धिक या शैक्षिक मूल्यांकन न होकर अन्य सभी संवेगात्मक, शारीरिक, क्रियात्मक सामाजिक आदि पक्षों का भी मूल्यांकन होना चाहिए।

(9) छात्रों के पोर्टफोलियो का संधारण– पोर्टफोलियो संधारण का साधारण अर्थ छात्र । की प्रथम दिवस से लेकर अंतिम दिवस तक की उसकी गतिविधियों, प्रोजेक्ट उपलब्धि, चरित्र, दृष्टिकोण, बुद्धिलब्धि, व्यक्तित्व आदि की जानकारी को फोल्डर में या कंप्यूटर फोल्डर में या सीड़ी. कैसेट आदि में सुरक्षित रखना है । पोर्टफोलियो रखने से कक्षा व शाला का हित तो होता ही है बालक व उनके अभिभावकों को भी छात्र के संबंध में जानकारी मिलती है । पोर्टफोलियो का संधारण वैसे तो सभी छात्रों के लिए होता है परन्तु निःशक्त छात्रों हेतु पोर्टफोलियो संधारण विशेष महत्त्व रखता है क्योंकि इससे उसकी पिछली प्रगति तथा वर्तमान की प्रगति का तुलनात्मक अध्ययन किया जा सकता है । कक्षा प्रबंधन में प्रायः पोर्टफोलियो संधारण का कार्य कक्षा शिक्षक के प्रभार में होता है।

(10) समय प्रबंधन – प्रत्येक शिक्षक के लिए निर्धारित कालखंड के समय में अपना पाठ पुनरावृत्ति सहित पूर्ण करना चाहिए। निर्धारित समय सारणी के अनुसार कक्षा शिक्षण होना चाहिए। किसी शिक्षक की अनुपस्थिति में उस कालखंड हेतु एंगेजमेंट किसी अन्य शिक्षक को दिया जाना चाहिए। छात्रों को आवंटित गृह कार्य, असाइन्मेंट, प्रोजेक्ट समय सीमा में पूरा करने के लिए शिक्षक को छात्र को अभिप्रेरित किया जाना चाहिए ताकि बाद में किये जाने वाले अध्ययन में अवरोध न हो । निर्धारित पाठ्यक्रम का इकाइयों में विभाजन तथा समय पर उसका पूरा किया जाना भी समय प्रबंधन हेतु आवश्यक है।

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