समावेशी शिक्षा के लिए आवश्यक शिक्षण क्षमताओं का वर्णन कीजिए। समावेशी शिक्षा में इनका क्या महत्त्व है ? बताइए।

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समावेशी विद्यालय का शिक्षक ऐसा होना चाहिए जिसमें विशेष आवश्यकताओं वाले निःशक्त बालकों के प्रति संवेदनशीलता तथा सहानुभूति हो। बिना इस मानवीय गुण के वह समावेशी विद्यालय हेतु अनुपयुक्त कहा जाएगा। शिक्षक में निःशक्त बालकों की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता की कमी हो तो वह उनकी समस्याओं के हल की दिशा में सार्थक प्रयास करने में असमर्थ होगा। निसंदेह शिक्षक की सामान्य बालकों के प्रति भी रुचि तथा हमदर्दी होनी चाहिए क्योंकि समावेशी विद्यालय में सामान्य तथा विशेष दोनों प्रकार के बालक शिक्षारत रहते हैं। शिक्षक को विशेषज्ञ प्राथमिकता निःशक्त बालकों को देनी होगी क्योंकि वे अन्य सामान्य बालकों से शैक्षिक दृष्टि से निम्न श्रेणी के पाए जाते हैं। विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की विशेष आवश्यकताओं की पहचान शिक्षक के लिए आवश्यक है जिसके लिए उसे प्रशिक्षण भी दिया जाना चाहिए। जो शिक्षक पूर्व से ही प्रशिक्षित हों उनके लिए सेवाकालीन रिफेशर कोर्स आयोजित होने चाहिए। इन सब बातों के साथ ही समावेशी विद्यालय के शिक्षक में कुछ आवश्यक शिक्षण क्षमताएं भी होनी चाहिए ताकि वह अपनी इन क्षमताओं का उपयोग कक्षा शिक्षण में कर विशेष छात्रों को ज्ञान देने में समर्थ हो सके । इन विशेष शिक्षण क्षमताओं का वर्णन इस प्रकार है–

(1) समावेशी शिक्षण का प्रयोग– समावेशी कक्षा में विशेष तथा सामान्य छात्र साथ–साथ अध्ययन करते हैं। शिक्षक को बालकों की वैयक्तिक विशेषताओं के ज्ञान के साथ विशेष आवश्यकता वाले बालकों के पहचान तथा उसके अनुसार कक्षा शिक्षण की व्यवस्था करनी चाहिए। समावेशी शिक्षा की अवधारणा के अनुरूप समावेशी शिक्षण कक्षा में होना चाहिये । यदि विषय शिक्षण के निर्धारित कालखंड में विशेष तथा सामान्य बालकों को साथ–साथ शिक्षा देने में विशेष बालकों की अधिगम में कमी प्रतीत हो इसके लिए इन छात्रों के लिए विशेष कक्षा पृथक से आयोजित की जानी चाहिए। उदाहरणार्थ धीमी गति से सीखने वाले विशेष छात्र यदि कक्षा शिक्षण में पूर्णतः सीखने में पिछड़ गए हों तो इनके लिए विशेष कक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए।

समावेशी शिक्षण में जिन रणनीतियों का प्रयोग आवश्यक होता है उनका कहाँ, कब, कैसे, कितना प्रयोग किया जाए इसकी समझ शिक्षक में होनी चाहिए। शिक्षक को कक्षा के छात्रों के मानसिक स्तर के अनुरूप उपयुक्त शिक्षोपकरण, सहायक शिक्षण सामग्री तथा शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिए। कक्षा में शिक्षक का प्रस्तुतीकरण विशेष महत्त्व रखता है यदि प्रभावशाली, रोचक, विषयानुकूल, छात्रानुकूल प्रस्तुतिकरण होगा तो वह प्रभावशाली कहा जायेगा।

(2) शिक्षण में लचीलापन– शिक्षण क्षमताओं में लोच का गुण होना चाहिए। कक्षा के स्तर, बालकों की रुचि, विषयवस्तु की जटिलता, बालकों की वैयक्तिक विभिन्नता, विशेष समस्या को दृष्टि में रखते हुए लोचदार शिक्षण होना चाहिए। जब शिक्षक को छात्रों से प्रश्न करने आदि के दौरान ऐसा लगे कि छात्र समझ नहीं पाए हैं तो उसे अपनी शिक्षण विधि में बदलाव कर देना चाहिए। विशेष बालकों से अन्तक्रिया कर शिक्षक को पता लगाना चाहिए कि छात्र कितना सीखे हैं । यदि छात्र नहीं सीख पाए हैं तो उनके अनुकूल दृश्य–श्रव्य साधन, सहायक सामग्री आदि का प्रयोग कर विषय उनके लिए सहज बोधगम्य किया जा सकता है।

(3) क्रियात्मक शिक्षण– कक्षा शिक्षण में मौखिक, व्याख्यान प्रणाली, प्रश्नोत्तर कला, आदि के असफल हो जाने पर क्रियात्मक शिक्षण प्रभावशाली शिक्षण सिद्ध होता है। क्रियात्मक शिक्षण में छात्र हाथ से कार्य करते हैं अतः श्रवणेन्द्रिय दृश्येन्द्रिय के साथ कर्मेन्द्रिय भी सम्मिलित, हो जाने से पाठ्य सामग्री सहज बोधगम्य हो जाती है। यह उसी प्रकार है कि तैरना या स्कूटर चलाना हम पुस्तकों में पढ़कर नहीं समझ पाते परन्तु वस्तुतः तालाब में तैरने या वस्तुतः स्कूटर चलाने से हम अधिक तथा प्रभावी ढंग से सीखते हैं । प्रयोगशालाओं में विज्ञान के प्रयोग उस विषयक ज्ञान प्राप्त करने में अधिक प्रभावी होते हैं क्योंकि इसमें क्रियाशीलता सम्मिलित है। शुद्ध सैद्धान्तिक शिक्षण विषय को बोझिल अगम्य बनाता है जबकि सक्रियता उसे सुबोध बनाती है |

(4) सहायक शिक्षण सामग्री का उपयोग– चित्र, चार्ट, दृश्य श्रव्य साधन, टेलीविजन, वीडियो, फिल्म प्रोजेक्टर, आदि का शिक्षण में उपयोग इस मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त पर आधारित है कि जिस शिक्षण में ज्ञानेन्द्रियों का जितना अधिक उपयोग होगा वह उतना बोधगम्य होगा। उक्त उल्लेखित दृश्य श्रव्य सामग्री मंज कान के अतिरिक्त आंख तथा मस्तिष्क भी सीखने में सम्मिलित है अतः विषय सामग्री रोचक तथा सुबोध हो जाती है परन्तु कम दृष्टि वाले तथा कम सुनने वाले विशेष बालकों के लिए बड़े आकार की सहायक शिक्षण सामग्री तथा बुलंद आवाज़ वाले शिक्षोपकरण उपयुक्त रखते हैं। त्रिआयामी (थ्री डायमेंशन) वस्तुएं मंदबुद्धि वाले बालकों हेतु भी शिक्षण में प्रयुक्त करना प्रभावशाली रहता है। समावेशी शिक्षण में शिक्षण सामग्रियों का उपयोग विशेष तथा सामान्य दोनों प्रकार के छात्रों के लिए उपयुक्त है।

(5) विभिन्न शिक्षण व्यूहों का उपयोग– समावेशी शिक्षा में शिक्षण व्यवस्था हेतु पूर्व तैयारी कर यह उसी प्रकार निश्चित करना होता है कि कब, कहाँ कैसी शिक्षण विधियों की रणनीति अपनाई जाएगी जैसी युद्ध के समय सेना द्वारा योजना बनाकर की जाती है। शिक्षाविद् डॉ. के.पी. पांडेय के शब्दों में, “शिक्षण से पूर्व की अवस्था में की गई तैयारी का स्वाभाविक एवं प्रत्यक्ष परिणाम यह होता है कि शिक्षक के सामने एक सुनिश्चित योजना प्रस्तुत हो जाती है । इससे वह शिक्षण की वास्तविक परिस्थिति में प्रभावी क्रियान्वयन के लिए अपने को सक्षम एवं संबद्ध पा सकता है । शिक्षक की यह तैयारी उतना ही महत्त्व रखती है जितना युद्धभूमि में प्रविष्ट होने से पहले सेनानायक की सूझ–बूझ, रणनीति, आवश्यक एवं उपयोगी आयुधों का चयन तथा कल्पित एवं अकल्पित स्थितियों का सामना कर सकने की योजना को माना जाता है।”

इस प्रकार विभिन्न प्रकार की शिक्षण विधियों के प्रसंगानुकूल प्रयोग से समावेशी शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । प्रमुख शिक्षण विधियाँ हैं–योजना विधि (प्रोजेक्ट मैथड) समस्या समाधान विधि, पर्यटन अथवा भ्रमणात्मक शिक्षण,डाल्टन पद्धति, ह्यूरिस्टिक विधि, आगमन व निगमन विधि आदि।

(6) वैयक्तिक शैक्षिक कार्यक्रम (I.E.P)– निःशक्त बालकों हेतु I.E.P. अर्थात् इन्डिविजअल एजुकेशन प्रोग्राम एक उपकरण है जो बालकों की शैक्षिक आवश्यकताओं, बालक के वार्षिक लक्ष्यों प्रदान की गई सेवाओं तथा कार्यक्रमों की प्रभावशीलता को विशिष्ट बनाता है। LE.P की मान्यता है कि विभिन्न निःशक्त वर्गों के बालकों की शैक्षिक आवश्यकताओं की अपेक्षा व्यक्तिगत शैक्षिक आवश्यकताओं का निर्धारण किया जाना चाहिए।

समावेशी शिक्षा में नियमित कक्षा–कक्ष में विशिष्ट बालकों के शिक्षण में पाठ्यक्रम के स्तर को धीमा करने के स्थान पर दृश्य तथा मौखिक दोनों स्तर पर शिक्षण प्रदान किया जाना चाहिए विभिन्न ज्ञानेन्द्रिय (आंख, कान, नाक, मुंह व त्वचा) को एक साथ प्रयुक्त कर दृश्य श्रव्य साधनों से सामान्य व विशिष्ट बालकों को शिक्षित किया जाना चाहिए। टेपरिकॉर्डर, प्रत्युत्तर. . मॉडल, चित्र आदि सहायक सामग्रियों का प्रयोग करना चाहिए। भेदभाव रहित इस शिक्षण व्यवस्था से विशेष व सामान्य दोनों प्रकार के बालक एक साथ लाभान्वित होते हैं।

(7) अंतक्रियात्मक शिक्षण– समावेशी शिक्षण क्षमताओं में कक्षा शिक्षण के दौरान शिक्षक एवं बालकों के मध्य अंतःक्रिया के माध्यम से शिक्षण का विशेष महत्त्व है। शिक्षक को केवल व्याख्यान या भाषण देकर ही अपने शिक्षण को पूर्ण समझना एकतरफा मार्ग कहा जाएगा जबकि शिक्षण दो तरफा मार्ग है–अर्थात् शिक्षक जितना सक्रिय है बालकों को भी उतना ही सक्रिय होना चाहिए । प्रश्नोत्तर अन्तक्रिया शिक्षण का प्रभावी उपागम है । प्रश्न एक ही विद्यार्थी से न पूछकर समान रूप से सभी छात्रों से पूछे जाने चाहिए । अन्तक्रिया शिक्षण को स्पष्ट करते हुए पीडब्ल्यू. जैक्सन ने लिखा है, “शिक्षक विद्यार्थियों को अनेक प्रकार की शाब्दिक तथा अशाब्दिक प्रेरणा प्रदान करता है, व्याख्या करता है, प्रश्न पूछता है, विद्यार्थियों के उत्तर सुनता है और उनका पथ प्रदर्शन करता है।” इस द्विमुखी (शिक्षक तथा छात्र) अन्तक्रिया में विशेष तथा सामान्य दोनों प्रकार के बालकों को सम्मिलित कर प्रभावी शिक्षण किया जा सकता है।

कक्षा शिक्षण में अन्तक्रिया के दो विशिष्ट रूपों को देखा जा सकता है प्रथम शाब्दिक अंतक्रिया जिसमें शिक्षक बोलकर, प्रश्न पूछकर, वार्तालाप कर अंतक्रिया करता है और दूसरा अशाब्दिक अंतक्रिया जैसे शिक्षक की भाव भंगिमाएं, मुखाकृति, नेत्र, ओष्ठ आदि से बोलते समय या संभाषण करते समय आवाज के उतार चढ़ाव तथा भावानुकूल तरीके से व्यक्त करना आदि । दोनों अंतक्रियाएं शिक्षक में महत्त्वपूर्ण हैं।

(8) प्रबलन या पुनर्बलन (रीइंफोर्समेंट) – कक्षा शिक्षण में शिक्षण पुनर्बलन का प्रयोग शिक्षण में सफलता प्राप्त करने के लिए शिक्षक द्वारा किया जाता है। यदि उत्तर सही है तो शिक्षक सही उत्तर देने वाले छात्र पर प्रसन्न होकर उसे शाबाशी देता है । यदि उत्तर कुछ–कुछ सही है अत: कुछ सही नहीं है तो शिक्षक छात्र को प्रोत्साहित करता है । इस तरह कक्षा शिक्षण में पुनर्बलन द्वारा छात्रों को उत्साहित करने का प्रयास किया जाता है। शिक्षक हाँ, अच्छा,शाबाश आदि कहकर या उत्तर ठीक होने पर प्रसन्नता से सिर हिलाकर, मुस्कराकर या हाथ के संकेत से छात्रों को पुनर्बलित करता है। समावेशी शिक्षा में सामान्य व विशेष दोनों प्रकार के छात्रों के लिए पुनर्बलन उनके सीखने में सहायता करता है। विशेष बालक इससे प्रायः अधिक उत्साहित व प्रेरणास्पद होते हैं।

(9) शिक्षण कौशलों, शिक्षण सूत्रों का प्रयोग– शिक्षण को क्षमताओं से युक्त करने के लिए शिक्षक को इन शिक्षण कौशलों तथा शिक्षण सूत्रों को आवश्यकतानुसार उपयोग में लाना चाहिए । प्रमुख शिक्षण कौशल हैं–पाठ प्रस्तावना कौशल, उद्देश्य कथन कौशल, अनुशीलन कौशल; व्याख्या कौशल, दृष्टांत कौशल, पुनर्बलन कौशल, उद्दीपन कौशल, छात्र सहभागिता कौशल, श्यामपट कार्य कौशल, पाठ समापन कौशल आदि । प्रमुख शिक्षण सूत्र हैं– सरल से कठिन की ओर, ज्ञात से अज्ञात की ओर, संश्लेषण से विश्लेषण तथा विश्लेषण से संश्लेषण की ओर, मूर्त से अमूर्त की ओर, पूर्व ज्ञान से नवीन ज्ञान की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर इत्यादि । समावेशी शिक्षा में शिक्षण में इनका उपयोग विषय सामग्री को अबोध न बनाकर सुबोध बनाता है |

(10) पाठ योजना तैयार कर शिक्षण– किसी भी कार्य को करने के पूर्व यदि उसकी योजना बना ली जाए तो कार्य निर्विन हो जाता है तथा उसमें सफलता की संभावना बढ़ जाती है। शिक्षण को क्षमतायुक्त बनाने हेतु शिक्षक को विषयवस्तु को छोटी–छोटी इकाइयों में विभाजित कर योजना में सम्मिलित करना चाहिए। पाठ योजना में कौनसे उद्देश्यों को प्राप्त किया जाए इसे पूर्व निश्चित कर लिया जाना चाहिए। कौनसी सामग्री शिक्षण में सहायक सामग्री के रूप में कब प्रदर्शित की जाएगी इसका पाठ योजना में प्रावधान होना चाहिए। छात्रों ने पूर्व ज्ञान को पाठ की प्रस्तावना से जोड़कर पढ़ाया जाना चाहिए। प्रस्तुतीकरण को सम्यक रूप से प्रभावशाली बनाकर उसमें पूछे जाने वाले विकास प्रश्न, बोध प्रश्न का उल्लेख कर देना चाहिए । पाठ के अंत मंब पुनरावृत्ति के प्रश्न तथा कक्षा अभ्यास व गृह कार्य का उल्लेख भी कर दिया जाना चाहिए। पाठ योजना सहायक भर है शिक्षण के समय उसे लोचदार बनाकर शिक्षण किया जाना चाहिए । पाठ योजना बनाकर शिक्षण सामान्य तथा विशिष्ट दोनों प्रकर के बालकों के अधिगम तथा शिक्षक के सीखने हेतु उत्तम उपागम है।

समावेशी शिक्षा में शिक्षण क्षमताओं के उपयोग का महत्त्व

शिक्षक क्षमताओं का स्वरूप व्यापक है। इसमें शिक्षक की योग्यताएं, ज्ञान, कौशल, दृष्टिकोण तथा अनुभव सम्मिलित होते हैं। समावेशी शिक्षा में भी इन सभी शिक्षण क्षमताओं के उपयोग की आवश्यकता होती है । समावेशी शिक्षा में विशेष आवश्यकता रखने वाले अधिक निःशक्त छात्र तथा सामान्य छात्र दोनों सम्मिलित रूप से शिक्षा प्राप्त करते हैं। अतः शिक्षण क्षमताओं का दोनों प्रकार के छात्रों के अनुकूल होना आवश्यक है। इन शिक्षण क्षमताओं का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों से सुस्पष्ट है–

(1) समावेशी शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति– समावेशी शिक्षा का उद्देश्य विविधता व असमानता का अंत, निःशक्त बालकों को मुख्य धारा में लाना, विशेष आवश्यकता वाले बालकों की प्रमुख बाधाओं को दूर करते हुए विशेष के साथ सामान्य बालकों को शिक्षित करना तथा दोनों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना है। गुणवत्तापूर्ण समावेशी शिक्षा देने में विशेष शिक्षण क्षमताएं ही उपयोगी होती हैं क्योंकि जब तक दोनों प्रकार के बालकों का विषयवस्तु का सीखना पूर्ण नहीं होगा तब तक अध्यापन सफल नहीं होगा। गुणवत्ता पूर्ण समावेशी शिक्षा में उत्तम व अनुकूल शिक्षण विधियों, शिक्षण सूत्रों, शिक्षण तकनीकी, सहायक शिक्षण सामग्री, वैयक्तिक शिक्षण, क्रियाप्रधान शिक्षण, कक्षा अन्तक्रिया एवं विशेष शिक्षण रणनीतियों का उपयोग आवश्यक होता है । ये सभी शिक्षण क्षमताएं इस प्रकार समावेशी शिक्षा के सभी बालकों के शैक्षिक विकास के उद्देश्यों की पूर्ति करती है।

(2) विशेष बालकों की आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षण – निःशक्त बालकों की शारीरिक तथा मानसिक कमियों के कारण उनकी पूर्ति शिक्षा के द्वारा किये जाने के उद्देश्य से इन बालकों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्रभावी शिक्षण आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ जिस बालक की दृष्टि कमजोर है उसे ब्लेक बोर्ड के समीप बैठाकर पढ़ाना ताकि वह ब्लेक बोर्ड पर लिखी बातों को पढ़ सके। एक श्रवण बाधित बालक को सामने तथा ऐसे सामान्य साथी के साथ बैठाना जो श्रवण बाधित को न सुने अंश पर संकेत दे सके अथवा मंदबुद्धि बालक से उसकी मानसिक क्षमता के अनुसार दृश्य श्रव्य सामग्री के साथ शिक्षण देना आदि। ये कुछ उदाहरणार्थ मात्र हैं परन्तु शिक्षण क्षमताओं से मुक्त शिक्षक अपने अवलोकन, अनभव तथा विशेष छात्र की प्रतिक्रिया को देखकर भली–भाँति अपनी शिक्षण क्षमताओं का उपयोग विशेष छात्रों की आवश्यकताओं के अनुरूप करते हैं।

(3) सामान्य बालकों की शिक्षा में महत्त्व– समावेशित शिक्षा केवल विशेष बालकों के हितार्थ ही नहीं होती. इसमें सामान्य बालकों की शिक्षा (जो साथ–साथ होती है) भी होती है । प्रभावशाली शिक्षण क्षमताओं के उपयोग का लाभ सामान्य बालकों को सहज ही मिल जाता है। वे शिक्षण क्षमताओं से लाभान्वित होकर अधिगम प्राप्त करने में सफल होते हैं।

(4) शिक्षक के लिए महत्त्व– शिक्षक का कार्य छात्रों को शिक्षित करने में योगदान देना होता है । शिक्षक तब तक अपने इस प्रयोजन में सफल नहीं हो पाता जब तक वह शिक्षण क्षमताओं का प्रसंगानुकूल,छात्रानुकूल विषयवस्तु के अनुकूल उपयोग नहीं करता। आदर्श शिक्षक समावेशी शिक्षा में सभी विशेष तथा सामान्य छात्रों को साथ लेकर अध्यापन कराता है तथा विभिन्न लोचदार शिक्षण विधियों, शिक्षण सूत्रों, सहायक शिक्षण सामग्री का उपयोगी इस्तेमाल उसे अपने शिक्षण में सफल बनाता है।

(5) विषय सामग्री को सुबोध बनाना– विद्यालयों में 7–8 विषयों के निर्धारित पाठ्यक्रम का पढ़ाना होता है। इनमें से कुछ विद्यार्थियों के लिए कुछ विषय बोधगम्य तथा कुछ विषय अबोधगम्य होते हैं । प्रभावशाली तथा अनुकूल शिक्षण क्षमताओं के कक्षा शिक्षण में उपयोग से दुरूह विषय भी बोधगम्य हो जाते हैं । शिक्षण क्षमताएं विषय को शिक्षण तकनीकी के उपयोग द्वारा रोचक व मनोरंजक भी बना देती हैं जिससे छात्र विषय के प्रति उत्साहित होकर उसे शीघ्र समझते हैं।

(6) कक्षा प्रबंधन हेतु महत्त्व – कक्षा प्रबंधन वह प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक तथा छात्र के संबंधों–अंतर्सम्बन्धों के द्वारा शिक्षण–अधिगम की प्रक्रिया सफल होती है। साथ ही इससे कक्षा में कार्य तथा गतिविधियों से अधिगम परिस्थितियाँ विकसित की जाती हैं। कक्षा प्रबंधन के इस कार्य में शिक्षक की शिक्षण क्षमताएं योगदान देती हैं। कक्षा में अनुशासन, नियमबद्धता, नियंत्रण, व्यवस्थापन, अनुकूलन स्थापित किया जा सकता है। बाधित बालकों तथा सामान्य बालकों दोनों के लिए अच्छा कक्षा प्रबंधन अधिगम में सहायक होता है। शिक्षक की नेतृत्व क्षमता उसके अच्छे कक्षा प्रबंधन तथा शिक्षण क्षमताओं से आंकी जा सकती है।

(7) पाठ्यसहगामी क्रियाओं के आयोजन में सहायक– उत्तम शिक्षण क्षमताएं शिक्षक को अध्ययनरत विशेष व सामान्य छात्रों के स्तर, रुचि, अधिगम स्थिति के अनुरूप विभिन्न पाठ्यसहगामी क्रियाओं–भाषण, वाद–विवाद,नाटक मंचन, परिचर्चा आयोजन क्विज प्रतियोगिता, लेख रचना, विद्यालयीन वार्षिक पत्रिका के प्रकाशन इत्यादि में सहायता प्रदान करती है ।

(8) निदेशन व परामर्श में सहायक– शिक्षक का अपने छात्रों को शैक्षिक व व्यावसायिक मार्गदर्शन देना निदेशन है। निदेशन व्यक्तिगत, स्वास्थ्य संबंधी, सामाजिक भी होता है। परामर्श निःशक्त बालकों के उपचार, व्यावसायिक शिक्षा तथा रोजगार के परामर्श,व्यवसाय स्थापन इत्यादि हेतु बहुउपयोगी है। शिक्षक की शिक्षण क्षमताएं उन्हें बालकों की कमियों व विशेषताओं का सहज ज्ञान करा सकती है । इस प्रकार शिक्षण क्षमताएं कक्षाशिक्षण के साथ शिक्षण में निदशन व परामर्श की क्षमता भी उत्पन्न करती है। छात्रों के मूल्यांकन के पश्चात् शिक्षक छात्रों के मार्गदर्शन में सहायक होता है।

(9) छात्रों के शैक्षिक मूल्यांकन में सहायक– शिक्षक का कार्य शिक्षण तथा सीखे हुए ज्ञान के आधार पर अपने सामान्य व विशिष्ट छात्रों का शैक्षिक मूल्यांकन करना भी होता है। सतत समग्र मूल्यांकन की अवधारणा के अनुसार शिक्षक केवल वर्ष में एक बार अपने विषय की परीक्षा लेकर छात्र के उत्तीर्ण–अनुत्तीर्ण होने तक सीमित न होकर इकाई मूल्यांकन, मासिक मूल्यांकन तथा मूल्यांकन की विभिन्न विधियों द्वारा छात्रों को आंकलित करता है । शिक्षण क्षमताएं शिक्षक में वह अनुभव व कौशल उत्पन्न करती है जिससे शिक्षण प्रत्येक छात्र के सतत मूल्यांकन में, कक्षा मूल्यांकन तथा निष्पादन मूल्यांकन में सफल होता है।

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