जल संरक्षण एवं संग्रहण
- मानव ही नहीं अपितु समस्त जीव-जगत का अस्तित्व जल पर ही निर्भर है।
- आज विश्व के अधिकांश देश भीषण जल संकट से जूझ रहे हैं।
- राजस्थान के लिए जल का महत्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि इसका आधे से अधिक भू-भाग शुष्क एवं अर्द्धशुष्क है।
- राजस्थान क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का सबसे बड़ा प्रदेश है तथा भारत के कुल क्षेत्रफल का 10.43 प्रतिशत भाग धारण करता है जबकि जल का मात्र 1 प्रतिशत जल उपलब्ध है।
- राज्य में वर्षा की नियमितता, असमान वितरण एवं जनसंख्या के बढ़ते दबाव के साथ ही नगरीकरण, औद्योगीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति से जल संकट की समस्या गंभीर हो गई है।
- यह उक्ति की जल ही जीवन है, जल है तो कल है आज सार्थक प्रतीत होती है।
- इससे न केवल वर्तमान की आवश्यकता पूरी होगी अपितु भविष्य के लिए भी जल बचा रहेगा। यह कार्य जल के उचित प्रबंधन एवं संरक्षण द्वारा ही संभव है।
- जल संरक्षण हेतु संचालित योजनाओं की सफलता के लिए जनसहयोग तथा तकनीकी तंत्र का सुदृढ़ीकरण आवश्यक है।
- सरकारी की जनकल्याणकारी योजनाओं में जनता को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाना प्राथमिक कार्य है। इसके लिए 1986 में राष्ट्रीय पेयजल मिशन स्थापित किया गया।
- राज्य के सीमित जल संसाधनों का उचित उपयोग जल संरक्षण के माध्यम से ही संभव है। जल संरक्षण हेतु निम्न उपाय आवश्यक हैं-
जल के दुरुपयोग पर नियंत्रण
- प्रायः देखा गया है कि जहाँ जल उपलब्ध है वहाँ लोग उसका दुरुपयोग कर रहे हैं।
- कई लोग नहाने, बरतन साफ करने, कपड़े धोने, पौधों को पानी देने, वाहन साफ करने आदि में आवश्यकता से अधिक जल का उपयोग करते हैं।
- सार्वजनिक स्थलों की सफाई एवं सिंचाई में भी जल का दुरुपयोग होता है, इस पर नियंत्रण करना आवश्यक है।
- जल दुरुपयोग को रोकने के लिए सामाजिक चेतना जागृत करनी आवश्यक है।
सिंचाई हेतु नवीन पद्धतियों को अपनाना
- पानी बचाने के लिए आवश्यक है कि सिंचाई की आधुनिक तकनीक को अपनाया जाए।
- इसके लिए फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई विधियाँ सर्वोत्तम हैं। इससे 50 प्रतिशत तक पानी बचाया जा सकता है।
- एक अन्य उपाय सिंचाई के लिए रबर के पाइप का उपयोग करना है इससे भूमि द्वारा सोखे जाने वाले तथा वाष्पीकरण से समाप्त होने वाले जल की भी बचत होती है।
भूमिगत जल का विवेकपूर्ण उपयोग
- राजस्थान में भूमिगत जल का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है।
- एक अनुमान के अनुसार राज्य के तीन-चौथाई क्षेत्र में भूमिगत जल का स्तर अत्यधिक नीचे चला गया है।
- भूमिगत जल का नियोजित उपयोग करना आवश्यक है।
कृषि पद्धति एवं फसलों में परिवर्तन
- राज्य में कम पानी के उपयोग वाली शुष्क कृषि को अपनाया जाना चाहिए।
- इस विधि में शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में वर्षा के जल एवं नमी को संरक्षित कर ऐसी फसलों का चयन किया जाता है जो कम पानी से पैदा हो सके।
- जर्जर नहरों की मरम्मत, वितरिकाओं एवं नालों को पक्का करके रिसाव द्वारा व्यर्थ किए जा रहे पानी को रोका जा सकता है।
जल संग्रहण
- जल संग्रहण अर्थात् वर्षा का जल जो सामान्यतया व्यर्थ बह जाता है उसको एकत्रित कर सुरक्षित रखना।
- इसके अन्तर्गत परम्परागत जल संग्रहण विधियाँ और रेन वाटर हार्वेस्टिंग विधि प्रमुख है।
परम्परागत जल संग्रहण की विधियाँ
- जल प्रबंधन की परम्परा प्राचीनकाल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबंधन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबंधन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल संरक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बांधों, कुओं और झीलों का विवरण मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबंधन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील के निर्माण का विवरण प्राप्त है।
- राजस्थान में पानी के लगभग सभी स्रोतों की उत्पत्ति से संबंधित लोक कथाएँ प्रचलित हैं। बांणगंगा की उत्पत्ति अर्जुन के तीर मारने से जोड़ते हैं।
- राजस्थान में जल संरक्षण की परम्परागत प्रणालियाँ स्तरीय है। यहाँ जल संचय की परम्परा सामाजिक ढाँचे से जुड़ी हुई हैं। जल स्रोतों को पूजा जाता है।
- राजस्थान में जल संरक्षण की सदियों से चली आ रही परम्परागत विधियों को पुनः उपयोग में लाने की आवश्यकता है।
- कुँओं, बावड़ियों, तालाबों, झीलों के पुनरूद्धार के साथ-साथ पश्चिमी राजस्थान में प्रचलित जल संरक्षण की विधियों जैसे नाड़ी, टाबा, खड़ीन, टांका या कुण्डी, कुँई आदि को प्रचलित करना आवश्यक है।
- वर्षा कम होने के कारण जितनी वर्षा होती है उसके जल को संग्रहीत कर वर्षपर्यन्त उसका उपयोग किया जाता रहा है।
जल संग्रहण की परम्परागत विधियाँ दो प्रकार की होती हैं-
I. वर्षा जल आधारित
II. भू-जल आधारित
I. वर्षा जल आधारित –
1. नाड़ी – यह एक प्रकार का पोखर है। जिसमें वर्षा का जल संचित किया जाता है।
- नाड़ी 3 से 12 मीटर गहरी होती है।
- पश्चिमी राजस्थान में सामान्यतया नाड़ी का निर्माण किया जाता है।
- कच्ची नाड़ी के विकास से भूमिगत जल स्तर में वृद्धि होती है।
- यह विशेषकर जोधपुर की तरफ होती है। 1520 ई. में राव जोधाजी ने सर्वप्रथम एक नाड़ी का निर्माण करवाया था।
- नागौर, बाड़मेर व जैसलमेर में पानी की कुछ आवश्यकता का 38 प्रतिशत पानी नाड़ी द्वारा पूरा किया जाता है।
- मदार -: नाडी या तालाब में जल आने के लिए निर्धारित की गई धरती की सीमा को मदार कहते हैं।
2. खड़ीन – यह जल संग्रहण की प्राचीन विधि है। खड़ीन मिट्टी का बांधनुमा अस्थायी तालाब होता है जिसे ढाल वाली भूमि के नीचे दो तरफ पाल उठाकर और तीसरी ओर पत्थर की दीवार बनाकर पानी रोका जाता है।
- 15 वी सदी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा शुरुआत।
- मरु क्षेत्र में इन्हीं परिस्थितियों में गेहूँ की फसल उगाई जाती है। खड़ीन तकनीकी द्वारा बंजर भूमि को भी कृषि योग्य बनाया जाता है।
- खड़ीनों में बहकर आने वाला जल अपने साथ उर्वरक मिट्टी बहाकर लाता है। 15 वीं सदी की तकनीक। जिससे उपज अच्छी होती है। खड़ीन पायतान क्षेत्र में पशु चरते हैं जिससे पशुओं द्वारा विसरित गोबर मृदा (भूमि) को उपजाऊ बनाता है। खड़ीनों के नीचे ढलान में कुआँ भी बनाया जाता है जिसमें खड़ीन में रिस कर पानी आता रहता है, जो पीने के उपयोग में आता है।
3. टाँका – यह वर्षा के जल संग्रहण की प्रचलित विधि है जिसका निर्माण घरों अथवा सार्वजनिक स्थलों पर किया जाता है।
- इसका प्रचलन शुष्क एवं अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों में किया जाता है। इसमें संग्रहीत जल का उपयोग मुख्यतः पेय जल के रूप में किया जाता है।
- टांका राजस्थान के रेतीले क्षेत्र में वर्षा जल को संग्रहित करने की महत्वपूर्ण परम्परागत प्रणाली है। इसे कुंड भी कहते हैं।
- यह सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढक दिया जाता है।
- ढांका किलों में, तलहटी में, घर की छत पर, आंगन में और खेत आदि में बनाया जाता है।
- कुंडी या टांके का निर्माण जमीन या चबूतरे के ढलान के हिसाब से बनाये जाते हैं जिस आंगन में वर्षा का जल संग्रहित किया जाता है, उसे आगोर या पायतान कहते हैं। जिसका अर्थ बटोरना है। पायतान को साफ रखा जरता है, क्योंकि उसी से बहकर पानी टांके में जाता है। टांके के मुहाने पर इंडु (सुराख) होता है जिसके ऊपर जाली लगी रहती है, ताकि कचरा नहीं जा सके। टांका चाहे छोटा हो या बड़ी उसको ढंककर रखते हैं। पायतान का तल पानी के साथ कटकर नहीं जाए इस हेतु उसको राख, बजरी व मोरम से लीप कर रखते हैं।
- पानी निकालने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग किया जाता है। ऊपर मीनारनुमा ढ़ेकली बनाई जाती है जिससे पानी खींचकर निकाला जाता है। खेतों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर टांकें या कुड़िया बनाई जाती है।
- वर्तमान में रेन वाटर हार्वेस्टिंग इसी का परिष्कृत रूप है।
4. टोबा/टाबा –
- टोबा का महत्वपूर्ण पारस्परिक जल प्रबंधन है, यह नाडी के समान आकृतिवाला होता है। यह नाड़ी से अधिक गहरा होता है। सघन संरचना वाली भूमि, जिसमें पानी का रिसाव कम होता है, टोबा निर्माण के लिए यह उपयुक्त स्थान माना जाता है।
5. झालरा –
- झालरा, अपने से ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका स्वयं का कोई आगोर (पायतान) नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने हेतु नहीं, बल्कि धार्मिक रिवाजों तथा सामूहिक स्नान आदि कार्य़ों के उपयोग में आता था। इनका आकार आयताकार होता है। इनके तीन ओर सीढ़ियाँ बनी होती थी। 1660 ई. में निर्मित जोधपुर का महामंदिर झालरा प्रसिद्ध है।
6. जोहड़
- जोहड़ को जोहड़ी या ताल भी कहा जाता है। ये नाडी की अपेक्षा बड़ा कलेवर लिए होती हैं। इनकी पाल पत्थरों की होती है। इनमें एक छोटा-सा घाट एवं सीढ़ियाँ होती हैं। इनमें पानी 7-8 माह तक टिकता है। इनको सामूहिक रूप से पशुओं के पानी पीने हेतु काम में लेने पर ‘टोपा’ कहा जाता है।
II. भू-जल आधारित –
1. तालाब
- पानी का आवक क्षेत्र विशाल हो तथा पानी रोक लेने की जगह भी अधिक मिल जाए, तो ऐसी संरचना को तालाब या सरोवर कहते हैं। तालाब नाडी की अपेक्षा और अधिक क्षेत्र में फैला हुआ रहता है तथा कम गहराई वाला होता है। तालाब प्रायः पहाड़ियों के जल का संरक्षण करके ऐसे स्थल पर बनाया जाता है, जहाँ जल भंडारण की संभावना हो और बंधा सुरक्षित रहे। राजस्थान में सर्वाधिक तालाब भीलवाड़ा में है।
2. बावड़ी – यह एक सीढ़ीदार वृहद् कुँआ होता है इसमें वर्षा जल के संग्रहण के साथ भूमिगत जल का संग्रहण भी होता है।
- शेखावाटी एवं बूंदी की बावड़ियाँ जहाँ अपने स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है वहीं जल संग्रहण का प्रमुख माध्यम है। चॉदबावड़ी आभानेरी (दौसा)
3. कुई या बेरी
- कुई या बेरी सामान्यत तालाब के पास बनाई जाती है। जिसमें तालाबा का पानी रिसता हुआ जमा होता है।
- पश्चिमी राजस्थान में इनकी अधिक संख्या है।
परम्परागत जल स्रोतों की उपयोगिता –
- पारम्परिक जल प्रबंधन का पुनरुद्धार कर राज्य में कृषि अर्थ व्यवस्था को बढ़ाया जा सकता है।
- प्राकृतिक आपदा के समय इस प्रकार के जल प्रबंधन से समस्या का सामना किया जा सकता है।
- पारम्परिक जल स्रोतों के माध्यम से सूखे व बाढ़ जैसी विपदा के खिलाफ लड़ने के लिए सक्षम बन सकते हैं।
- परम्परागत जल प्रबंधन की प्रणाली कृषि का एक स्तम्भ बन सकती है।
- परम्परागत जल स्रोतों की पुर्नस्थापना से नयी पीढ़ी के लिए रोजगार के अवसर मिलेंगे।
रेन वाटर हार्वेस्टिंग (वर्षा जल संग्रहण)
रेन वाटर हार्वेस्टिंग अर्थात वर्षा जल का संग्रहण इसके अन्तर्गत वर्षा के जल का संग्रहण निम्न प्रकार से किया जा सकता है –
- इसमें पानी को हैण्डपम्प, बोरवेल व कुएँ के माध्यम से भूगर्भ में डाला जाता है।
- इसमें छत के पानी को किसी टैंक में एकत्र कर उसका सीधा उपयोग किया जाता है।
- सीधे जमीन में एक गढ्ढा बनाकर पानी को गढ्ढे के माध्यम से जल भंडार में उतारा जाता है।
- बड़े परिसरों की चार दीवारी के पास नाली बनाकर पानी जमीन में उतारा जा सकता है।
- छत के पानी को पाईप द्वारा घर के पास स्थित कुएँ में उतारा जाता है इससे कुआँ रिचार्ज होता है तथा जल स्तर में वृद्धि होती है।
- छत के पानी को ट्यूबवेल में उतारने के लिए पाईप के बीच फिल्टर लगाना आवश्यक है।
- राजस्थान के लिए यह जल संग्रहण ही उत्तम विधि है।
- इसी कारण राजस्थान सरकार ने “हरित राजस्थान” राज्य में 300 मीटर से अधिक क्षेत्रफल वाले भवनों, प्रतिष्ठानों, होटलों आदि के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य कर दिया है।
उचित जल प्रबंधन
- जल संरक्षण हेतु जल प्रबंधन अति आवश्यक है इसके अन्तर्गत निम्न कार्य किए जा सकते हैं-
- जल संसाधनों का सर्वेक्षण।
- जल स्रोतों का उचित रखरखाव।
- सिंचाई की नवीन तकनीक का प्रयोग।
- पेयजल बचाना अपव्यय को रोकना।
- जल प्रदूषण को रोकना।
- जल वितरण प्रणाली में सुधार।
- जल नीति एवं तात्कालिक तथा दीर्घकालीन योजना तैयार करना।
राजस्थान में जल संग्रहण/संरक्षण के सरकारी उपाय
- Water Institute की स्थापना जयपुर में की गई।
- राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना। इसके अन्तर्गत वर्तमान में 5+11=16 झीलों का संरक्षण व सौन्दर्यकरण किया जा रहा है।
- स्वजल धारा योजना – 25 दिसम्बर, 2000 को प्रारम्भ इस योजना में पेयजल हेतु केन्द्र राज्य के 90 : 10 के अनुपात में पेयजल आपूर्ति की योजनाएं चलायी जा रही है।
- राज्य की नयी जल नीति 17 फरवरी 2010 को लागू की गई। विश्व जल दिवस प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को मनाया जाता है। पहली बार 1993 में मनाया गया।
- जलमणि – भारत सरकार द्वारा शत प्रतिशत स्कूलों में पेयजल व्यवस्था हेतु चलाया जा रहा कार्यक्रम।
- राजीव गांधी जल विकास एवं संरक्षण मिशन – 12 जनवरी 2010 से प्रारम्भ जो सतही और भू-जल संसाधन का समग्र प्रबन्धन करता है।
- बीकानेर में 2011-12 में हाइड्रोलोजी एण्ड वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट की स्थापना की गई।
- राज्य में 164 ब्लॉक अतिदोहित एवं 44 सुरक्षित श्रेणी में।
- 3 ब्लॉक पूर्ण खारे -: तारानगर (चुरु), खाजूवाला (बीकानेर), रावतसर (हनुमानगढ़)
जल संरक्षण
– रानी जी की बावड़ी :- (बूँदी में)
– बावड़ियों का शहर :- बूँदी।
– एंजन बावड़ी :- जोधपुर में।
– चाँद बावड़ी :- आभानेरी, दौसा
– सुगन्धा की बावड़ी :- जोधपुर
– पन्नालाल शाह तालाब :- खेतड़ी (झुंझुनूं)
– गड़सीसर तालाब :- जैसलमेर में महारावल जयशाल द्वारा निर्मित।
– लाखोलाव तालाब :- नागौर
– पालर :- वर्षा का पानी।
– जोहड़ वाले बाबा / जल वाले बाबा :- राजेन्द्र सिंह (अलवर निवासी)
– राजेन्द्र सिंह का सम्बन्ध “तरुण भारत संघ’ संगठन से है।
– चाैतीना कुआँ :- बीकानेर
– हाइड्रोलॉजी एवं जल प्रबंधन संस्थान :- बीकानेर में।
– पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा का सुरक्षित स्तर :- 1.5 PPM
– राष्ट्रीय नदी संरक्षण योजना :- 1985 (31 मार्च, 2000 को समाप्त)
– विश्व जल दिवस :- 22 मार्च।
2019 का विषय :- किसी को पीछे नहीं छोड़ना (Leaving no one behind)
– विश्व जल सप्ताह :- 5 सितम्बर से 11 सितम्बर
– राष्ट्रीय जल नीति :- 2012
– जल संरक्षण वर्ष :- 2015-16
– जल दशक :- 2005-15
– मुख्यमंत्री जल स्वावलम्बन अभियान :- 27 जनवरी, 2016 को गर्दनखेड़ी (झालावाड़) से शुरूआत।
लक्ष्य :- 4 वर्षों में 21 हजार गाँवों काे जल स्वावलम्बी बनाना।
अभियान का चतुर्थ चरण :- 03 अक्टूबर, 2018 को लाँच। इस चरण में 4 हजार गाँवों को शामिल किया गया हैं।
– वर्तमान में राजस्थान में जल की सर्वाधिक चिंताजनक समस्या :- अन्ध व घूसर क्षेत्रों की बढ़ती संख्या।
– तलवाड़ा झील :- हनुमानगढ़। डायला तालाब :- बाँसवाड़ा।
– भारत के जल शक्ति मंत्री :- गजेन्द्रसिंह शेखावत (जोधपुर)