व्याकरण और ध्वनि

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व्याकरण (Grammar) की परिभाषा

व्याकरण- व्याकरण वह विद्या है जिसके द्वारा हमे किसी भाषा का शुद्ध बोलना, लिखना एवं समझना आता है।

भाषा की संरचना के ये नियम सीमित होते हैं और भाषा की अभिव्यक्तियाँ असीमित। एक-एक नियम असंख्य अभिव्यक्तियों को नियंत्रित करता है। भाषा के इन नियमों को एक साथ जिस शास्त्र के अंतर्गत अध्ययन किया जाता है उस शास्त्र को व्याकरण कहते हैं।

व्यक्ति और स्थान-भेद से भाषा में अंतर आ सकता है। इस प्रकार किसी भाषा का रूप निश्चित नहीं रहता। अज्ञान अथवा भ्रम के कारण कुछ लोग शब्दों के उच्चारण अथवा अर्थ-ग्रहण में गलती करते हैं। इस प्रकार भाषा का रूप विकृत हो जाता है। भाषा की शुद्धता और एकरूपता बनाए रखना ही व्याकरण का कार्य है।

वस्तुतः व्याकरण भाषा के नियमों का संकलन और विश्लेषण करता है और इन नियमों को स्थिर करता है। व्याकरण के ये नियम भाषा को मानक एवं परिनिष्ठित बनते हैं। व्याकरण स्वयं भाषा के नियम नहीं बनाता। एक भाषाभाषी समाज के लोग भाषा के जिस रूप का प्रयोग करते हैं, उसी को आधार मानकर वैयाकरण व्याकरणिक नियमों को निर्धारित करता है। अतः यह कहा जा सकता है कि-

व्याकरण उस शास्त्र को कहते हैं जिसमें किसी भाषा के शुद्ध रूप का ज्ञान कराने वाले नियम बताए गए हों।

कुछ उदाहरण देखें-
(1) सीता पेड़ पर चढ़ता है।
(2) हम सभी जाएगा।
पहले वाक्य में यह अशुद्धि है कि सीता स्त्रीलिंग के साथ क्रिया का रूप ‘चढ़ती’ होना चाहिए। वाक्य बनेगा – सीता पेड़ पर चढ़ती है। वाक्य संख्या 2 में कर्ता बहुवचन है, अतः वाक्य बनेगा – हम सभी जाएँगे। ये अशुद्धियाँ क्रिया-संबंधी हैं।

अन्य उदाहरण देखिए-
मार दिया को ने राम श्याम।
इस वाक्य से अर्थ स्पष्ट नहीं होता क्योंकि कर्ता, कर्म तथा कारक निश्चित स्थान पर नहीं हैं। ‘राम ने श्याम को मार दिया।’ वाक्य का अर्थ ‘श्याम ने राम को मार दिया।’ वाक्य के अर्थ से भिन्न है। वक्ता जो बात कहना चाहता है, उसे वाक्य में शब्दों का विन्यास उसके अनुरूप रखना होगा। इनसे संबंधित नियम हिन्दी व्याकरण में उल्लिखित हैं।

व्याकरण के अंग

भाषा के चार मुख्य अंग हैं- वर्ण, शब्द पद और वाक्य। इसलिए व्याकरण के मुख्यतः चार विभाग हैं-
(1) वर्ण-विचार
(2) शब्द-विचार
(3) पद-विचार
(4) वाक्य विचार

(1) वर्ण विचार या अक्षर:- भाषा की उस छोटी ध्वनि (इकाई) को वर्ण कहते है जिसके टुकड़े नही किये सकते है।
जैसे- अ, ब, म, क, ल, प आदि।

इसमें वर्णमाला, वर्णों के भेद, उनके उच्चारण, प्रयोग तथा संधि पर विचार किया जाता है।

(2) शब्द-विचार:- वर्णो के उस मेल को शब्द कहते है जिसका कुछ अर्थ होता है।
जैसे- कमल, राकेश, भोजन, पानी, कानपूर आदि।

इसमें शब्द-रचना, उनके भेद, शब्द-सम्पदा तथा उनके प्रयोग आदि पर विचार किया जाता है।

(3) पद-विचार:- इसमें पद-भेद, पद-रूपान्तर तथा उनके प्रयोग आदि पर विचार किया जाता है।

(4) वाक्य-विचार:- अनेक शब्दों को मिलाकर वाक्य बनता है। ये शब्द मिलकर किसी अर्थ का ज्ञान कराते है।
जैसे- सब घूमने जाते है।
राजू सिनेमा देखता है।

इनमें वाक्य व उसके अंग, पदबंध तथा विराम चिह्न आदि पर विचार किया जाता है।

हिन्दी व्याकरण की विशेषताएँ

हिन्दी-व्याकरण संस्कृत व्याकरण पर आधृत होते हुए भी अपनी कुछ स्वतंत्र विशेषताएँ रखता है। हिन्दी को संस्कृत का उत्तराधिकार मिला है। इसमें संस्कृत व्याकरण की देन भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। पं० किशोरीदास वाजपेयी ने लिखा है कि ”हिन्दी ने अपना व्याकरण प्रायः संस्कृत व्याकरण के आधार पर ही बनाया है- क्रियाप्रवाह एकान्त संस्कृत व्याकरण के आधार पर है, पर कहीं-कहीं मार्गभेद भी है। मार्गभेद वहीं हुआ है, जहाँ हिन्दी ने संस्कृत की अपेक्षा सरलतर मार्ग ग्रहण किया है।”

ध्वनि और लिपि

ध्वनि:- ध्वनियाँ मनुष्य और पशु दोनों की होती हैं। कुत्ते का भूँकना और बिल्ली का म्याऊँ-म्याऊँ करना पशुओं के मुँह से निकली ध्वनियाँ हैं। ध्वनि निर्जीव वस्तुओं की भी होती हैं। जैसे- जल का वेग, वस्तु का कम्पन आदि।

व्याकरण में केवल मनुष्य के मुँह से निकली या उच्चरित ध्वनियों पर विचार किया जाता है। मनुष्यों द्वारा उच्चरित ध्वनियाँ कई प्रकार की होती हैं। एक तो वे, जो मनुष्य के किसी क्रियाविशेष से निकलती हैं। जैसे- चलने की ध्वनि।

दूसरी वे ध्वनियाँ हैं, जो मनुष्य की अनिच्छित क्रियाओं से उत्पत्र होती है; जैसे- खर्राटे लेना या जँभाई लेना। तीसरी वे हैं, जिनका उत्पादन मनुष्य के स्वाभाविक कार्यों द्वारा होता है; जैसे- कराहना। चौथी वे ध्वनियाँ हैं, जिन्हें मनुष्य अपनी इच्छा से अपने मुँह से उच्चरित करता है। इन्हें हम वाणी या आवाज कहते हैं।

पहली तीन प्रकार की ध्वनियाँ निरर्थक हैं। वाणी सार्थक और निरर्थक दोनों हो सकती है। निरर्थक वाणी का प्रयोग सीटी बजाने या निरर्थक गाना गाने में हो सकता है। सार्थक वाणी को भाषा या शैली कहा जाता है। इसके द्वारा हम अपनी इच्छाओं, धारणाओं अथवा अनुभवों को व्यक्त करते हैं। बोली शब्दों से बनती है और शब्द ध्वनियों के संयोग से।

यद्यपि मनुष्य की शरीर-रचना में समानता है, तथापि उनकी बोलियों या भाषाओं में विभित्रता है। इतना ही नहीं, एक भाषा के स्थानीय रूपों में भी अन्तर पाया जाता है। पर पशुओं की बोलियों में इतना अन्तर नहीं पाया जाता। मनुष्य की भाषा की उत्पत्ति मौखिक रूप से हुई। भाषाओं के लिखने की परिपाटी उनके निर्माण के बहुत बाद आरम्भ हुई। यह तब हुआ, जब मनुष्य को अपनी भावनाओं, विचारों और विश्र्वासों को सुरक्षित रखने की प्रबल इच्छा महसूस हुई।

आरम्भ में लिखने के लिए वाक्यसूचक चिह्नों से काम लिया गया और क्रमशः शब्दचिह्न और ध्वनिचिह्न बनने के बाद लिपियों का निर्माण हुआ। चिह्नों में परिवर्तन होते रहे। वर्तमान लिपियाँ चिह्नों के अन्तिम रूप हैं। पर, यह कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, वर्तमान काल में हिन्दी लिपि में कुछ परिवर्तन करने का प्रयत्न किया जा रहा है। हिन्दी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती। है इसके अपने लिपि-चिह्न हैं।

लिपि:- मौखिक या कथित भाषा में ध्वनियाँ होती हैं, लिखित भाषा में उन ध्वनियों को विशेष आकारों या वर्णों द्वारा प्रकट किया जाता है। भाषा को लिखने का यह ढंग ‘लिपि’ है। हिन्दी भाषा की लिपि ‘देवनागरी’ है। अंग्रेजी ‘रोमन लिपि’ में तथा उर्दू ‘पर्शियन’ (फारसी) लिपि में लिखी जाती है।

साहित्य

साहित्य की परिभाषा अनेक प्रकार से दी गई है। सामान्यतः हम कह सकते हैं कि सुन्दर अर्थ वाले सुन्दर शब्दों की रचना, जो मन को आह्रादित करे तथा समाज के लिए भी हितकारी हो, साहित्य कहलाती है।

हिन्दी में कबीर, सूर, तुलसी, जयशंकर प्रसाद, निराला आदि कवियों तथा प्रेमचंद जैसे कहानीकार और उपन्यासकार की रचनाएँ साहित्य के उदाहरण रूप में ली जा सकती हैं।

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