मुगल – राजपूत सम्बन्ध

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भारत में मुगल वंश का शासन 1526 ई. से प्रारम्भ होता है। जब पानीपत के प्रथम युद्ध में मुगल शासक बाबर ने दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराया। भारत में मुगल वंश का शासन 1526 ई. से 1857 ई. तक रहा। इस काल में सभी मुगल शासकों ने राजपूती रियासतों के भिन्न-भिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित किये। बाबर एवं राणा-सांगा के मध्य वर्चस्व की लड़ाई थी तो अकबर सुलह-ए-कुल नीति एवं वैवाहिक सम्बन्धों को स्थापित कर राजपूती शासकों के साथ सम्बन्ध स्थापित किए।

बाबर एवं राणा सांगा :-

– 1526 ई. में खुरासान से आये मुगल आक्रांता बाबर ने भारत पर आक्रमण किया। उस समय दिल्ली पर इब्राहिम लोदी का शासन था किंतु भारत में मेवाड़ एवं मारवाड़ प्रबल राज्यों की श्रेणी में आते थे।

– बाबर के आक्रमण के समय मेवाड़ पर महाराणा सांगा का तथा मारवाड़ पर राव गांगा का शासन था।

– 1526 ई. के युद्ध में बाबर की सहायता के वादे से पीछे हटने के कारण बाबर राणा सांगा से नाराज हो गया एवं दिल्ली पर अधिकार करने के बाद बाबर ने राणा सांगा पर अधिकार जमाने हेतु आक्रमण किया।

– बयाना का युद्ध :- 16 फरवरी, 1527

 यह युद्ध बाबर एवं राणा सांगा के मध्य लड़ा गया।

 बाबर की तरफ से इस युद्ध में मेहंदी ख्वाजा एवं सुल्तान मिर्जा ने नेतृत्व किया।

 इस युद्ध में राणा सांगा ने बाबर की सेना को बुरी तरह परास्त किया।

– खानवा का युद्ध :- यह युद्ध 17 मार्च, 1527 को खानवा (रूपवास, भरतपुर) नामक स्थान पर राणा सांगा एवं मुगल सम्राट जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर के मध्य लड़ा गया।

– बाबर ने अपनी आत्मकथा तुजुक-ए-बाबरी में खानवा के युद्ध का प्रमुख कारण पानीपत युद्ध में राणा सांगा के सहयोग न करने की नीति को माना है।

– राणा सांगा ने इस युद्ध से पहले ‘पाती पेरवन’ की राजपूत परम्परा को पुनर्जीवित किया। पाती पेरवन नामक राजपूती परम्परा के तहत राजस्थान के प्रत्येक सरदार व महाराणा को अपनी ओर से युद्ध में शामिल होने का निमन्त्रण देना होता था।

– मुगल शासक बाबर ने इस युद्ध को ‘जिहाद’ (धर्म-युद्ध) की संज्ञा दी। बाबर ने इस युद्ध में ‘गाजी’ की उपाधि धारण की।

– कर्नल टॉड के अनुसार खानवा युद्ध में राणा सांगा की सेना में 7 उच्च श्रेणी के राजा, 9 राव एवं 104 बड़े सरदार सम्मिलित हुए।

– राणा सांगा अंतिम हिन्दू राजा थे जिनके सेनापतित्व में सभी राजपूत जातियाँ विदेशियों को भारत से निकालने के लिए शामिल हुई थीं।

– राणा सांगा की तरफ से युद्ध में शामिल सरदार :-

 अफगान सुल्तान महमूद लोदी, मेव शासक हसन खाँ मेवाती, मारवाड़ से राव गांगा के पुत्र मालदेव, बीकानेर से कल्याणमल, आमेर से पृथ्वीराज कच्छवाहा, ईडर का भारमल, सिरोही का अखैराज, डूँगरपुर का रावल उदयसिंह, चंदेरी का मेदिनीराय, सलूम्बर का राव रत्नसिंह, वीरमदेव मेड़तिया, मेड़ता का रायमल राठौड़, बागड़ का उदयसिंह, रायसीन का सलहदी तंवर, नागौर का खाना जादा आदि।

– युद्ध के दौरान राणा सांगा के सिर पर एक तीर लगा जिससे वे मूर्च्छित हो गये तब झाला अज्जा को सांगा के राजचिह्न धारण करवाकर रणक्षेत्र में हाथी के ओहदे पर बिठाकर नेतृत्व सौंपा। झाला अज्जा ने युद्ध संचालन के दौरान अपने प्राण त्याग दिये।

– इस युद्ध में मुगल शासक बाबर ने युद्ध की नयी व्यूह रचना ‘तुलुगमा पद्धति’ अपनाई।

– इस युद्ध में बाबर की विजय हुई एवं इस विजय से भारतवर्ष में मुगलों का राज्य स्थायी हो गया।

– राणा की पराजय के कारण :- 1. बाबर के पास तोपखाना होना।

 2. बाबर द्वारा युद्ध की नवीन व्यूह रचना। ‘तुलुगमा पद्धति’ अपनाना।

 3. राजपूत सेना का एक शासक के अधीन न होना।

 4. रायसीन के सलंहदी तंवर व खानजादा (नागौर) के युद्ध के अंतिम दौर में बाबर से मिल जाना। (कर्नल टॉड एवं वीर विनोद के अनुसार)

– ‘एलफिंस्टन’ का मानना है कि यदि राणा सांगा मुसलमानों की पहली घबराहट पर ही आगे बढ़ जाता, तो उसकी विजय निश्चत थी।

– 30 जनवरी, 1528 को कालपी नामक स्थान पर सांगा को विष दे दिया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।

– राणा सांगा का अंतिम संस्कार दौसा जिले के बसवा नामक स्थान पर किया गया।

– मांडलगढ़ में राणा सांगा की समाधि है।

हुमायूँ एवं राजपूत राज्य :-

– मुगल शासक हुमायूँ ने 1530 ई. में जब शासन संभाला तो राज्य विस्तार की महत्वकांक्षा को सीमित रखा।

– 1534 ई. में गुजरात सुल्तान बाहादुरशाह के आक्रमण के समय मेवाड़ शासक विक्रमादित्य की माता रानी कर्मावती ने हुमायूँ को राखी भेजकर सहायता माँगी लेकिन हुमायूँ ने कोई मदद नहीं की।

– 1540 ई. में अफगान शासक शेरशाह सूरी से परास्त होने के बाद मुगल शासक हुमायूँ सिन्ध की ओर भागा तब तत्कालीन मारवाड़ शासक मालदेव ने हुमायूँ को शेरशाह के विरुद्ध सहायता देने का प्रस्ताव भेजा परन्तु हुमायूँ ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। एक वर्ष पश्चात् हुमायूँ का 1542 ई. में ‘जाेगीतीर्थ’ पर मालदेव द्वारा भेजी गयी अशर्फियों तथा रसद से स्वागत किया। हुमायूँ ने मालदेव के संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए मीर समन्दर, रायमल सोनी, अतका खाँ आदि व्यक्तियों को मालदेव के पास भेजा।

अकबर एवं राजपूत राज्य :-

– राजपूत – मुगल सम्बन्धों का वास्तविक प्रारम्भ अकबर के समय से ही माना जाता है।

– अकबर के काल में राजस्थान में 6 राजपूत रियासतें थीं :-

(i) मेवाड़ :- महाराणा उदयसिंह, राणा प्रताप, राणा अमरसिंह

(ii) मारवाड़ :- राव चन्द्रसेन, मोटा राजा उदयसिंह।

(iii) बूँदी :- राव सुर्जन हाड़ा।

(iv) आमेर :- राव भारमल, राव भगवानदास, महाराजा मानसिंह।

(v) जैसलमेर :- राव हरराय भाटी।

(vi) बीकानेर :- राव कल्याणमल, राव रायसिंह।

– अकबर की राजपूत नीति का उद्देश्य अपने दरबार में शक्ति संतुलन की स्थापना तथा राजपूतों के सहयोग से साम्राज्य विस्तार करना था।

– अकबर ने राजपूत रियासतों के साथ ‘सुलह-ए-कुल’ (सभी के साथ शांति एवं सुलह) नीति को अपनाया था।

– अकबर की राजपूत नीति के तीन साधन थे :-

(i) वैवाहिक सम्बन्ध :- आमेर, जोधपुर, बीकानेर एवं जैसलमेर

(ii) मित्रतापूर्ण सम्बन्ध :- बूँदी रियासत के साथ।

(iii) आक्रमण की नीति :- मेवाड़ के साथ।

– आमेर पहली रियासत थी जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार की। आमेर शासक भारमल (बिहारीमल) ने 1562 ई. में अपनी पुत्री ‘हरका बाई’ का विवाह अकबर से किया। अकबर ने हरका बाई को ‘मरियम उज्जमानी’ की उपाधि दी। सलीम (जहाँगीर) हरका बाई का ही पुत्र था।

– मेवाड़ एकमात्र ऐसी रियासत थी जिसने अकबर के जीवनकाल में मुगलों की अधीनता को स्वीकार नहीं किया था।

– अकबर का चित्तौड़ आक्रमण :- राणा उदयसिंह के समय 1567 ई. में किया जिसमें उदयसिंह के सेना नायक जयमल व पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर अकबर ने इनकी मूर्तियों को आगरा दुर्ग के प्रवेशद्वार पर स्थापित करवाया।

– अकबर का रणथम्भौर आक्रमण :- सुर्जन हाड़ा के समय 1569 ई. में।

– अकबर का नागौर दरबार :- 1570 ई. में।

– मुगलों की अधीनता स्वीकार करने वाला प्रथम बीकानेर शासक :- राव कल्याणमल

– मुगलों की अधीनता स्वीकार करने वाला मारवाड़ का प्रथम शासक :- मोटा राजा उदयसिंह।

– अकबर ने आमेर शासक भारमल को ‘राजा’ एवं ‘आमीर-उल-उमरा’ की उपाधि प्रदान की।

– आमेर शासक मानसिंह अकबर का प्रथम पंचहजारी हिन्दू मनसबदार बना। अकबर ने मानसिंह को फर्जन्द (पुत्र) एवं ‘राजा’ की उपाधि प्रदान की। वह काबुल, बंगाल एवं बिहार का गवर्नर भी रहा। अकबर के नवरत्नों में शामिल था।

– अकबर ने सांभर झील से होने वाली आय से 1% आय प्रतिवर्ष अजमेर दरगाह को देना निश्चित किया।

– जोधपुर शासक मोटाराजा उदयसिंह ने अपनी पुत्री मानी बाई (जोधा बाई / जगतगुंसाई) का विवाह सलीम (जहाँगीर) से किया जिसमें शहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) पैदा हुआ।

– आमेर के राजा भगवन्तदास ने अपनी पुत्री मानबाई का विवाह सलीम से किया जिससे शहजादा खुसरो का जन्म हुआ।

– बीकानेर नरेश रायसिंह की पुत्री का सम्बन्ध भी जहाँगीर से हुआ।

– जोधपुर शासक अजीतसिंह ने अपनी पुत्री इन्द्रकुंवरी का विवाह 1714 ई. में मुगल शासक फर्रुखशियर से किया।

– इन्द्रकुंवरी अन्तिम राजपूत राजकुमारी थी जिसका विवाह मुगल शासक के साथ हुआ।

– अकबर ने ‘मनसबदारी’ प्रणाली एवं ‘टीका प्रथा’ की शुरुआत की।

– सभी राजपूत राज्य अजमेर सूबे के अधीन रखे गए।

– अकबर ने प्रान्तों (सूबों) को सरकारों (जिलों) में तथा सरकारों को परगनों (तहसीलों) में बाँटा था।

– मुगलों के समय राजस्थान में परगनों की संख्या 197 थी।

– अकबर द्वारा राणा प्रताप को अधीनता प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए भेजे गए दूत :-

1. जलाल खाँ – नवम्बर 1572 में

2. कुँवर मानसिंह – जून 1573 में

3. राजा भगवन्तदास – सितम्बर 1573 में

4. टोडरमल – दिसम्बर 1573 में

 अकबर द्वारा भेजे गये दूतों के सभी प्रयास असफल रहे।

– हल्दीघाटी का युद्ध :- अकबर (मुगल शासक) के सेनापति कुँवर मानसिंह एवं महाराणा प्रताप के मध्य 21 जून, 1576 काे प्रसिद्ध युद्ध लड़ा गया।

 प्रताप की सेना के हरावल (सबसे आगे का भाग) का नेतृत्व हकीम खाँ सूर ने किया।

– इस युद्ध में इतिहासकार अलबदायूँनी भी उपस्थित था। अलबदायूँनी ने अपनी पुस्तक मुन्तखब-उत-तवारीख में हल्दीघाटी युद्ध का वर्णन किया है। अलबदायूँनी ने इस युद्ध को ‘गोगुन्दा का युद्ध’ की संज्ञा दी।

– अबुल फजल ने इस युद्ध को ‘खमनाैर का युद्ध’ की संज्ञा दी है।

– युद्ध में प्रताप के घायल होने पर उनका स्थान झाला बीदा ने संभाला।

– प्रताप के प्रसिद्ध घोड़े ‘चेतक’ ने बलीचा गाँव में आखिरी साँस ली।

– यह अनिर्णायक युद्ध था जिसमें मुगलों को काफी नुकसान हुआ। लेकिन अधिकतर इतिहासकार इस युद्ध में महाराणा प्रताप को पराजित बताते हैं।

– कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी को ‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली’ एवं दिवेन के मैदान को ‘मेवाड़ का मेराथन’ कहा था।

– बादशाह अकबर ने महाराणा प्रताप को पकड़ने के लिए शाहबाज खाँ के नेतृत्व में तीन बार शाही सेना भेजी लेकिन सभी प्रयास विफल रहे।

– दिवेर का युद्ध अक्टूबर 1582 में महाराणा प्रताप एवं मुगल सेनापति सुल्तान खाँ के मध्य लड़ा गया जिसमें महाराणा प्रताप की विजय हुई।

– मेवाड़ के तीन महाराणा शासक (उदयसिंह, महाराणा प्रताप एवं अमरसिंह) अकबर के समकालीन थे।

– 1615 ई. में शहजादा खुर्रम के प्रयासों से मेवाड़-मुगल सन्धि हुई। इस समय मेवाड़ का शासक अमरसिंह था। इस सन्धि में मेवाड़ की तरफ से राजकुमार कर्णसिंह मुगल दरबार में उपस्थित हुआ था।

संधि की शर्तें :-

1. मेवाड़ का राजा कभी मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होगा व शाही सेना में एक हजार सवार रखेगा।

2. मेवाड़ के राजा का पुत्र मुगल दरबार में उपस्थित नहीं होगा।

3. चित्तौड़गढ़ दुर्ग की किलेबन्दी और निर्माण नहीं करेगा।

4. मेवाड़ मुगलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं कोगा।

– आमेर राजा भावसिंह को जहाँगीर ने 4000 मनसब एवं ‘मिर्जा’ की उपाधि प्रदान की।

– मुगल दरबार में उपस्थित होने वाला मेवाड़ का प्रथम शासक राणा कर्णसिंह था।

– औरंगजेब के समय मेवाड़ का शासक महाराणा राजसिंह था। औरंगजेब के साथ निम्न कारणों से सम्बन्ध अति कटु थे।

 (i) किशनगढ़ शासक रूपसिंह की पुत्री चारुमति से विवाह

 (ii) मारवाड़ शासक अजीतसिंह को आश्रय देना।

 (iii) औरंगजेब द्वारा 1679 ई. में लगाये गये जजिया कर को स्वीकार न करना।

 (iv) औरंगजेब द्वारा मूर्तियाँ तुड़वाना।

– औरंगजेब का काल ‘राजपूत-मुगल सहयोग का अवसान काल’ कहलाता है। इनके समय ही मारवाड़-मुगल संघर्ष (30 वर्षीय युद्ध) चला जिसका नेतृत्व दुर्गादास ने किया। औरंगजेब के काल में सर्वाधिक हिन्दू मनसबदार (33%) थे।

अन्य :-

1. मारवाड़ के शासक राव चन्द्रसेन ने कभी अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की। राव चन्द्रसेन को ‘प्रताप का अग्रगामी’ कहा जाता है।

2. 1573 ई. में कठौली की लड़ाई में मुगल सेना का नेतृत्व रायसिंह (बीकानेर) ने किया था।

3. राव चन्द्रसेन प्रथम राजपूत शासक था जिसने अपनी रणनीति में दुर्ग के स्थान पर जंगल एवं पहाड़ी क्षेत्र को अधिक महत्व दिया था।

4. छत्रपति शिवाजी को पुरन्दर की संधि (1665 ई.) करने हेतु विवश करने वाला शासक मिर्जा राजा जयसिंह था।

5. बीकानेर शासक रायसिंह ने मुगलों की जीवनपर्यन्त सेवा की। (अकबर व जहाँगीर के समय)।

6. खानवा के युद्ध में घायल राणा सांगा को बसवा लाया गया। यह स्थान वर्तमान में दौसा जिले में है।

7. मुगल सम्राटों द्वारा सवाई जयसिंह को कुल तीन बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया।

8. अकबर ने 1570 ई. के नागौर दरबार के बाद जोधपुर दुर्ग रायसिंह को सौंपा।

9. मुगल शासक औरंगजेब की मृत्यु (1707 ई.) के समय मारवाड़ का शासक अजीतसिंह था।

10. बीकानेर महाराजा रायसिंह ने मुगल बादशाह अकबर के कहने पर भद्रकाली मंदिर की स्थापना की।

11. मुगल शासक बहादुरशाह प्रथम (मुअज्जम) ने आमेर का नाम मोमिनाबाद रखा व आमेर का राजा विजयसिंह को बनाया।

12. सवाई जयसिंह को ‘सवाई’ की उपाधि औरंगजेब ने दी।

13. सम्राट फर्रुखशियर ने 1713 में जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया।

14. आमेर शासक मिर्जा राजा जयसिंह तीन मुगल सम्राटों (जहाँगीर, शाहजहाँ व औरंगजेब) की सेवा में रहे।

15. राजा भगवानदास की पुत्री एवं जहाँगीर की बेगम मानबाई (सुल्तान-निस्सा/सुल्तान मस्ताना) को शाह बेगम के नाम से भी जाना जाता था। इतिहास में यह पहली पुत्रहंता माता के नाम से जानी गई।

16. जोधपुर शासक महाराजा जसवंतसिंह ने दाराशिकोह की तरफ से औरंगजेब के विरूद्ध अप्रैल 1658 ई. में हुए धरमत के युद्ध में भाग लिया। इस युद्ध में औरंगजेब की विजय हुई।

17. 1659 ई. में महाराजा जसवंतसिंह को औरंगजेब ने गुजरात का सूबेदार बनाया।

18. महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा ‘आज कुफ्र (धर्मविरोध) का दरवाजा टूट गया है।’

19. महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु 28 नवम्बर, 1678 ई. को जमरूद (अफगानिस्तान) में हुई थी।

20. कर्नल जेम्स टोड के अनुसार राठौड़ों का यूलिसीज वीर दुर्गादास को कहा जाता है। दुर्गादास ने अजीतसिंह को मारवाड़ का शासक बनाने के लिए मुगलों से तीस वर्षीय युद्ध (1679 ई. से 1707 ई.) लड़ा।

21. जयपुर शासक सवाई जयसिंह सात मुगल बादशाहों के समकालीन थे।

22. औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उसके दो बेटों मुअज्जम व आजम के बीच राजगद्दी के लिए 8 जून, 1707 ई. (जाजऊ का युद्ध) को हुए उत्तराधिकार युद्ध में जयसिंह ने आजम का साथ दिया। इस युद्ध में मुअज्जम विजयी हुआ एवं बहादुरशाह प्रथम के नाम से दिल्ली का शासक बना। मुअज्जम ने आमेर का नाम बदलकर मोमीनाबाद रख दिया।

23. जहाँगीर के काल में एशिया का प्रसिद्ध नील बाजार बयाना (भरतपुर) में था।

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