राजस्थान इतिहास के स्त्रोत

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पुरातात्विक स्रोत 

  • राजस्थान के इतिहास की जानकारी हमें ऐतिहासिक ग्रंथों, प्रशस्तियाें, अभिलेखों, यात्रियों के वर्णन तथा पुरातात्विक सामग्री से प्राप्त होती है।
  • पुरातात्विक सामग्री में उत्खनन से प्राप्त शिलालेख, स्मारक, मूर्तियाँ, भित्तिचित्र, ताम्रपत्र आदि को शामिल किया जाता है।
  • ऐतिहासिक सामग्री में समय-समय पर रचित ग्रंथों एवं लेखाें को शामिल किया जाता है।
  • राजस्थान इतिहास की जानकारी प्राप्त करने का सर्वोत्तम साधन शिलालेख है जिनमें ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन मिलता है।
  • पुरातात्विक स्रोतों के उत्खनन का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किया जाता है जिसकी स्थापना 1861 में  की गई थी।
  • राजस्थान में पुरातात्विक सर्वेक्षण का कार्य प्रारम्भ करने का श्रेय ए.सी.एल. कार्लाइल को दिया जाता है।
  • राजस्थान में प्रमुख उत्खननकर्ताओं में एच.डी. सांकलिया, बी.बी. लाल, बी.के. थापर, आर.सी. अग्रवाल, वी.एन. मिश्र, डाॅ. भण्डारकर, दयाराम साहनी, डॉ. हन्नारिड, अक्षयकीर्ति व्यास, डी.पी. अग्रवाल आदि का नाम प्रमुख है।

अभिलेख एवं प्रशस्तियाँ

  • पत्थर या धातु की सतह पर उकेरे गए लेखों को अभिलेख में सम्मिलित किया जाता है।  
  • अभिलेखों में शिलालेख, स्तम्भ लेख, मूर्ति लेख, गुहा लेख आदि को सम्मिलित किया जाता है।
  • तिथियुक्त एवं समसामयिक होने के कारण पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत अभिलेख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • प्रारम्भिक अभिलेखों की भाषा संस्कृत थी जबकि मध्यकाल में इनमें  उर्दू, फारसी व राजस्थानी भाषा का प्रयोग भी हुआ।
  • अभिलेखों के अध्ययन को एपिग्राफी कहा जाता है।
  • भारत में प्राचीनतम अभिलेख सम्राट अशोक मौर्य के हैं जिनकी भाषा प्राकृत एवं मागधी तथा लिपि ब्राह्मी मिलती है।
  • शक शासक रूद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख भारत का पहला संस्कृत अभिलेख है।
  • राजस्थान के अभिलेखों की मुख्य भाषा संस्कृत एवं राजस्थानी है तथा इनकी लिपि महाजनी एवं हर्षलिपि है।
  • फारसी भाषा मेें लिखा सबसे पुराना लेख अजमेर के ढाई दिन के झोंपड़े के गुंबज की दीवार के पीछे लिखा हुआ मिला है। यह लेख लगभग 1200 ई. का है।

अशोक के अभिलेख :-

  • मौर्य सम्राट अशोक के दो अभिलेख भाब्रू अभिलेख तथा बैराठ अभिलेख बैराठ की पहाड़ी से मिले है।
  • भाब्रू अभिलेख की खोज केप्टन बर्ट द्वारा बीजक की पहाड़ी से की गई। इस अभिलेख से अशोक के बौद्ध धर्म के अनुयायी होने तथा राजस्थान में मौर्य शासन हाेने की जानकारी मिलती है।
  • अशोक का भाब्रू अभिलेख वर्तमान में कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है।

बड़ली का अभिलेख :-

  • यह राजस्थान का सबसे प्राचीनतम अभिलेख है। 443 ई. पूर्व का यह अभिलेख अजमेर के बड़ली गाँव के मिलोत माता मंदिर से पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा को प्राप्त हुआ। 
  • वर्तमान में यह अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित है।

बसंतगढ़ अभिलेख (625 ई.) :- 

  • राजा वर्मलात के समय का यह अभिलेख बसंतगढ़ सिरोही से प्राप्त हुआ है।
  • इससे अर्बुदांचल के राजा रज्जिल तथा उसके पुत्र सत्यदेव के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इसका लेखक द्विजन्मा तथा उत्कीर्णकर्ता नागमुण्डी था।
  • दधिमति माता अभिलेख के बाद यह पश्चिमी राजस्थान का सबसे प्राचीन अभिलेख है।
  • इस अभिलेख में सामन्त प्रथा का उल्लेख मिलता है।

मानमोरी का अभिलेख :-

  • 713 ई. का यह अभिलेख मानसरोवर झील (चित्तौड़गढ़) के तट पर उत्कीर्ण है।
  • इस अभिलेख में इसके रचयिता पुष्य तथा उत्कीर्णकर्ता शिवादित्य का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख से चित्तौड़गढ़ दुर्ग का निर्माण करने वाले चित्रांगद के बारे में जानकारी मिलती है।
  • राजा भोज के पुत्र मान द्वारा मानसरोवर झील के निर्माण करवाये जाने का उल्लेख भी इसमें मिलता है।   
  • यह अभिलेख कर्नल जेम्स टॉड ने इंग्लैण्ड ले जाते समय समुद्र में फेंक दिया था।
  • इस अभिलेख में अमृत मंथन का उल्लेख मिलता है।
  • इस अभिलेख में चार मोर्य शासकों (महेश्वर, भीम, भेाज एवं मान) के बारे में जानकारी मिलती है।

मण्डोर अभिलेख :-

  • जोधपुर के मंडोर में स्थित 837 ई. के इस अभिलेख में गुर्जर प्रतिहार शासकों की वंशावली तथा शिव पूजा का उल्लेख किया गया है। इस अभिलेख की रचना गुर्जर शासक बाउक द्वारा करवाई गई थी।

प्रतापगढ़ अभिलेख (946 ई.) :-

  • प्रतापगढ़ में स्थित इस अभिलेख में गुर्जर प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है।

बड़वा अभिलेख :-

  • यह बड़वा (कोटा) में स्तम्भ पर उत्कीर्ण मोखरी वंश के शासकों का सबसे प्राचीन अभिलेख है। संस्कृत भाषा में लिखित इस अभिलेख से मोखरी शासकों बल, सोमदेव, बलसिंह आदि की उपलब्धियों की जानकारी प्राप्त होती है।

कणसवा का अभिलेख :-

  • 738 ई. का यह अभिलेख कोटा के निकट कणसवा गाँव में उत्कीर्ण है जिसमें मौर्य वंश के राजा धवल का उल्लेख मिलता है।

आदिवराह मन्दिर का अभिलेख :-

  • 944 ई. का यह लेख उदयपुर के आदिवराह मन्दिर से प्राप्त हुआ है जो संस्कृत में ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है।
  • यह लेख मेवाड़ के शासक भर्तृहरि द्वितीय के समय का है।
  • इसके अनुसार आहड़ एक धर्म स्थल के रूप में प्रसिद्ध था।

सुण्डा पर्वत अभिलेख (1262 ई.) :-

  • जालौर स्थित सुण्डा पर्वत का यह अभिलेख चौहान शासक चाचिंगदेव के समय का है जिससे इसकी उपलब्धियों तथा शासन के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

अचलेश्वर का अभिलेख (1285 ई.) :-

  • यह अभिलेख संस्कृत भाषा में अचलेश्वर मंदिर के पास दीवार पर उत्कीर्ण है इसके रचयिता शुभचंद्र तथा उत्कीर्णकर्ता कर्मसिंह थे।
  • इस अभिलेख में बापा से महाराणा समरसिंह तक की वंशावली का उल्लेख है।
  • इसमें हारीत ऋषि की तपस्या तथा उनके आशीर्वाद से बापा को राज्य प्राप्ति का उल्लेख है। 

किराडू का लेख :-

  • 1161 ई. का यह लेख किराडू के शिव मन्दिर में उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस लेख में परमारों की उत्पत्ति वशिष्ठ के आबू यज्ञ से बतायी गई है।
  • इस प्रशस्ति में किराडू की परमार शाखा का वंशक्रम दिया गया है।

सांडेराव का लेख :-

  • 1164 ई. का यह लेख देसूरी के पास सांडेराव के महावीर जैन मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • यह लेख कल्हणदेव के समय का है जिसमें उसके परिवार द्वारा मंदिर के लिए दिये गए दान का उल्लेख मिलता है।
  • इस लेख में उस समय के विभिन्न करों के बारे में जानकारी मिलती है।

शृंगी ऋषि का लेख :-

  • 1428 ई. का यह लेख मेवाड़ के एकलिंगजी के पास शृंगी ऋषि नामक स्थान पर काले पत्थर पर उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है। इस लेख के रचनाकार कवि योगेश्वर थे एवं उत्कीर्णकर्त्ता फना थे।
  • यह महाराणा मोकल के समय का है जिसमें राणा हम्मीर से मोकल तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इस लेख में महाराणा मोकल द्वारा एकलिंगजी मंदिर के चारों ओर दीवार बनवाने तथा नागौर शासक फिरोज खाँ एवं गुजरात शासक अहमद खाँ को युद्ध में पराजित करने का उल्लेख है
  • इस लेख में राणा लाखा द्वारा काशी, प्रयाग एवं गया की यात्रा करने का उल्लेख भी मिलता है।

आमेर का लेख :-

  • 1612 ई. में संस्कृत तथा नागरी भाषाओं में उत्कीर्ण इस लेख से कच्छवाहा शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में कच्छवाहा वंश को रघुवंश तिलक कहा गया है।
  • इस लेख में निजाम शब्द को प्रांतीय विभाग के रूप में उल्लेखित किया गया है।
  • इसमें मानसिंह को भगवंतदास का पुत्र बताया गया है।

बरबथ का लेख :-

  • 1613-14 ई. के इस लेख में मुगल शासक अकबर की पत्नी मरियम उज्मानी द्वारा निर्मित बरबथ बाग एवं बयाना बावड़ी का उल्लेख मिलता है।

सांभर का लेख (1634 ई.) :-

  • यह लेख एक सराय के दरवाजे पर हिन्दी भाषा में उत्कीर्ण है।
  • इसमें अकबर द्वारा इस सराय के निर्माण करने तथा शाहजहाँ द्वारा इसका जीर्णोद्वार करने का उल्लेख है।

किणसरिया लेख (999 ई.) :-

  • संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण यह लेख नागौर के किणसरिया गाँव में अंकित है।
  • इस लेख में चौहान वंश के शासक वाक्पतिराज, सिंहराज तथा दुर्लभराज की उपलब्धियाें का वर्णन है।

भ्रमरमाता का लेख :-

  • प्रतापगढ़ जिले के छोटी सादड़ी के भ्रमरमाता मंदिर से प्राप्त 490 ई. का शिलालेख 5वीं सदी की राजनीतिक स्थिति एवं प्रारंभिक कालीन सामन्त प्रथा के सम्बन्ध में जानकारी प्रदान करता है।
  • इस शिलालेख में गौर वंश एवं औलिकर वंश के शासकों का उल्लेख मिलता है।
  • इस लेख का उत्कीर्णक ब्रह्मसोम था।

पाणाहेड़ा का लेख (1059 ई.) :-

  • बाँसवाड़ा के पाणाहेड़ा गाँव से प्राप्त लेख।
  • इस लेख में वागड़ एवं मालवा के परमार राजाओं (मूंज, सिंधुराज एवं भोज) के उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।

शंकरघट्‌टा का लेख (713 ई.) :-

  • यह लेख चित्तौड़ के गंभीरी नदी के तट पर शिवजी के मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण इस लेख में राजा मानभंग का वर्णन मिलता है।

नांदसा यूप स्तम्भ लेख (225 ई.) :-

  • भीलवाड़ा जिले के नांदसा गाँव से प्राप्त स्तम्भ लेख।
  • यह स्तम्भ लेख ‘सोम’ द्वारा स्थापित है।
  • इस स्तम्भ लेख से उत्तरी भारत में प्रचलित पौराणिक यज्ञों के बारे में जानकारी मिलती है।

बर्नाला यूप स्तम्भ लेख (227 ई.) :-

  • बर्नाला (जयपुर) से प्राप्त।
  • वर्तमान में आमेर संग्रहालय में सुरक्षित।

बिचपुरिया यूप स्तम्भ लेख (224 ई.) :-

  • यह जयपुर जिले के उणियारा ठिकाने से प्राप्त।
  • वर्तमान में यह टोंक जिले में है।

तलेटी मस्जिद का लेख (1420 ई.) :-

  • बयाना (भरतपुर) से प्राप्त।
  • इस मस्जिद का निर्माण मलिक मौज्जम ने करवाया था।
  • यह ‘औढ़ खाँ’ के समय का अभिलेख है।

गादीदान की मस्जिद का लेख (1656 ई.) :-

  • मेड़ता (नागौर) से प्राप्त।
  • इस मस्जिद का निर्माण फिरोजशाह द्वारा किया गया।

गुदड़ी बाजार की मस्जिद का लेख (1741 ई.) :-

  • डीडवाना (नागौर) से प्राप्त लेख।

कुंवर पृथ्वीराज का स्मारक लेख :-

  • कुंभलगढ़ में स्थित इस लेख से कुंवर पृथ्वीराज की सती होने वाली सात रानियों एवं उनके घोड़े ‘साहण’ की जानकारी मिलती है।

रसिया की छतरी का लेख (1274 ई.) :-

  • चित्तौड़ दुर्ग में स्थित इस लेख में 13वीं सदी के मेवाड़ की प्रारम्भिक स्थिति के बारे में तथा दास प्रथा व अस्पृश्यता की स्थिति की जानकारी मिलती है।

घटियाला के शिलालेख (861 ई.) :- 

  • यह शिलालेख जोधपुर के पास घटियाला में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है जिसमें प्रतिहार शासक कक्कुक के बारे में उल्लेख किया गया है।   
  • इसमें रोहिलिद्ध से कक्कुक तक प्रतिहार शासकों की वंशावली मिलती है।
  • इस शिलालेख से कक्कुक द्वारा आभीरों को परास्त करने की जानकारी मिलती है।
  • इसमें मग जाति के ब्रह्माणों का उल्लेख मिलता है।
  • कक्कुक द्वारा यह शिलालेख उत्कीर्ण करवाया गया है जिसका रचयिता मग तथा उत्कीर्णकर्ता कृष्णेश्वर था।

सांभोली शिलालेख (646 ई.)  :-

  • उदयपुर से प्राप्त यह शिलालेख गुहिल शासक शिलादित्य के समय का है।
  • इस शिलालेख से मेवाड़ के गुहिल वंश की सामाजिक,धार्मिक, साहित्यिक तथा आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि कुटिल है। वर्तमान में यह शिलालेख अजमेर संग्रहालय में सुरक्षित है।

घोसुण्डी शिलालेख :- 

  • यह शिलालेख चित्तौड़गढ़ जिले के नगरी के निकट घाेसुण्डी गाँव से प्राप्त हुआ।
  • इस शिलालेख को सर्वप्रथम डॉ. भण्डारकर द्वारा खोजा गया।
  • यह राजस्थान में वैष्णव सम्प्रदाय (भागवत सम्प्रदाय) से सम्बन्धित सबसे प्राचीन शिलालेख है।
  • यह शिलालेख लगभग 200 ई. पूर्व के समय का है तथा इससे यह जानकारी मिलती है कि इस समय राजस्थान में वैष्णव सम्प्रदाय लोकप्रिय हो चुका था।
  • घोसुण्डी शिलालेख की लिपि ब्राह्मी एवं भाषा संस्कृत है।
  • घोसुण्डी शिलालेख का महत्व भागवत धर्म के प्रचार, वासुदेव की मान्यता और अश्वमेघ यज्ञ के प्रचलन के कारण अधिक है।
  • घोसुण्डी शिलालेख में गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने का उल्लेख मिलता है।

चित्तौड़ का शिलालेख (1438 ई.) :-

  • 1438 ई. में काले पत्थर पर उत्कीर्ण यह लेख चित्तौड़ के सतबीस देवरी से प्राप्त हुआ है जिसमें 104 श्लोक है।
  • इस लेख में मेवाड़ शासक राणा हम्मीर से महाराणा मोकल तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है तथा हम्मीर को तुर्को को जीतने वाला बताया गया है।
  • इस लेख में गुजरात बादशाह के दरबारी गुणराज द्वारा भीषण अकाल में अपनी सम्पत्ति जनता की सहायता के लिए खर्च करने का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति का रचनाकार चरित्ररत्न गणि तथा उत्कीर्णकर्ता नारद था।

बिजौलिया शिलालेख :-

  • 1170 ई. का यह शिलालेख बिजौलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के पास एक चट्‌टान पर जैन श्रावक लाेलाक द्वारा बनवाया गया। 
  • इस शिलालेख में सांभर तथा अजमेर के चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताया गया है तथा उनके वंशक्रम एवं उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है।
  • इस शिलालेख का रचयिता गुणभद्र था। इसमें 93 संस्कृत पद्य है। इस शिलालेख के लेखक केशव कायस्थ एवं उत्कीर्णकर्त्ता गोविन्द है।
  • इस लेख में मेवाड़ में बहने वाली कुटिला नदी का उल्लेख है।
  • इस अभिलेख में वासुदेव द्वारा शाकंभरी में चौहान वंश की स्थापना करने तथा सांभर झील बनवाने का उल्लेख है। इसके अनुसार वासुदेव ने अहिछत्रपुर को अपनी राजधानी बनाया।
  • इस लेख में कई क्षेत्रों के प्राचीन नाम दिए गये है – जैसे –जाबालिपुर (जालौर), श्रीमाल (भीनमाल), शाकम्भरी (सांभर) आदि।
  • यह मूलत: दिगम्बर लेख है।

बुचकला शिलालेख (815 ई.) :-

  • बुचकला (जोधपुर) के पार्वती मंदिर में स्थित इस शिलालेख से प्रतिहार शासक वत्सराज के पुत्र नागभट्‌ट के बारे में जानकारी मिलती है।

हस्तिकुण्डी शिलालेख (996 ई.) :-

  • सिरोही जिले से प्राप्त इस शिलालेख के रचयिता सूर्याचार्य थे। इस शिलालेख की खोजा कैप्टन बस्ट ने की।
  • इसमें चौहान प्रमुख हरि वर्मा, उसकी पत्नी ‘रची’ तथा विदग्ध मम्मट व धवल की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।

अपराजित का शिलालेख (661 ई.) :-

  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि कुटिल है। यह शिलालेख वर्तमान में उदयपुर में विक्टोरिया हॉल के संग्रहालय में सुरक्षित है।

इंगनौड़ा का शिलालेख (1133 ई.) :-

  • प्रतिहार कालीन शिलालेख। इस शिलालेख में गोहड़ेश्वर मंदिर के लिए आगासीया गाँव को भेंट करने का उल्लेख है।
  • इस शिलालेख का लेखक ‘कायस्थ कलहण’ एवं उत्कीर्णक सूत्रधार ‘साजण’ था।

चीरवा का शिलालेख :-

  • 1273 ई. का यह शिलालेख उदयपुर के चीरवा गाँव में एक मंदिर के बाहरी द्वार पर नागरी लिपि में उत्कीर्ण है।
  • इस लेख में गुहिल वंश के प्रारम्भिक शासकों की उपलब्धियों के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस लेख में जैत्रसिंह, समरसिंह एवं तेजसिंह आदि को प्रतापी शासक बताया गया है।
  • इस शिलालेख का रचयिता रत्नप्रभ सूरी तथा उत्कीर्णकर्ता पार्श्वचंद्र था।

चित्तौड़ का शिलालेख (1278 ई.) :-

  • 1278 ई. के इस लेख में मेवाड़ के गुहिल शासकों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति का उल्लेख मिलता है।
  • इस लेख में राजपरिवार द्वारा जैन मंदिर के निर्माण के लिए दान देने का उल्लेख किया गया है।     

खजूरी गाँव का शिलालेख (1506 ई.) :-

  • कोटा जिले के खजूरी गाँव से प्राप्त यह शिलालेख बूँदी के राजाओं के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

कुंभलगढ़ शिलालेख (1460 ई.) :-

  • 1460 ई. को यह लेख चित्ताैड़गढ़ स्थित कुंभश्याम मंदिर में उत्कीर्ण है जिसका रचयिता महेश था। कुछ इतिहासकार इस शिलालेख का रचयिता कान्हा व्यास को मानते हैं।
  • इस शिलालेख की भाषा संस्कृत एवं लिपि नागरी थी।
  • इस लेख में गुहिल वंश के शासकों के बारे में उल्लेख है।
  • इसमें बापा रावल को विप्रवंशीय ब्राह्मण बताया गया है तथा गुहिल के पुत्र लाट विनोद के नाम उल्लेख है।
  • इस लेख की चाैथी शिला में हम्मीर को विषमघाटी पंचानन कहा गया है।
  • इस लेख में कुंभा की विजयों तथा उनके द्वारा निर्मित मंदिरों, बावड़ियों का उल्लेख है।

प्रशस्ति :- ऐसे अभिलेख जिनमें केवल किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा का वर्णन किया जाता है। 

चाकसू की प्रशस्ति :-

  • 813 ई. का यह लेख चाकसू जयपुर से प्राप्त हुआ है। इसमें गुहिल वंशीय शासकों की वंशावली तथा उनकी विजयों के बारे में उल्लेख किया गया है।
  • इस लेख का रचयिता करणिक भानु तथा उत्कीर्णकर्ता माईल था।

नगरी प्रशस्ति :-

  • संस्कृत में लिखित इस प्रशस्ति में भगवान विष्णु की पूजा का उल्लेख किया गया है।

मिहिर भोज की प्रशस्ति :-

  • यह प्रशस्ति ग्वालियर के सागर नामक स्थान से प्राप्त हुई जिसका उत्कीर्णन गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिर भोज द्वारा करवाया गया।
  • इस प्रशस्ति पर कोई तिथि अंकित नहीं है।
  • इसका रचयिता बालादित्य था। इस प्रशस्ति से गुर्जर प्रतिहारों के बारे में जानकारी मिलती है।

सारणेश्वर प्रशस्ति :-  

  • 953 ई. की यह प्रशस्ति उदयपुर के सारणेश्वर शिवालय में संस्कृत भाषा व नागरी लिपि में उत्कीर्ण की गई है।
  • आहड़ से मिलने वाली यह एकमात्र पूर्णत: सुरक्षित प्रशस्ति है।
  • इस प्रशस्ति से गुहिल शासक अल्लट के शासन काल के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इस प्रशस्ति के रचयिता कायस्थ पाल तथा वेलक थे।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ का इतिहास तथा महाराणा अल्लट एवं उसकी माता महालक्ष्मी एवं उनकी मंत्रियों के नाम मिलते हैं।

नाथ प्रशस्ति :-

  • 971 ई. का यह लेख उदयपुर के लकुलीश मन्दिर से प्राप्त हुआ है जिसके रचयिता आम्रकवि थे। इसकी भाषा संस्कृत है। 
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ नागदा नगर का वर्णन मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में वेदांग मुनि द्वारा जैन तथा बौद्ध धर्म के विचारकों को वाद-विवाद में पराजित करने का उल्लेख है।
  • यह प्रशस्ति ‘नरवाहन’ के समय लिखी गई।      

हर्षनाथ की प्रशस्ति :-  

  • 973 ई. की यह प्रशस्ति सीकर के हर्षनाथ मन्दिर में उत्कीर्ण है।
  • इस मन्दिर का निर्माण अल्लट द्वारा किये जाने का उल्लेख इस प्रशस्ति में मिलता है।
  • यह प्रशस्ति चौहान शासक विग्रहराज के समय की है जिसमें चौहानों की वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति में वागड़ क्षेत्र के लिए ‘वार्गट’ शब्द का प्रयोग किया गया है।

आर्थूणा के शिव मन्दिर की प्रशस्ति :-

  • 1079 ई. की यह प्रशस्ति बांसवाड़ा के आर्थूणा में एक शिवालय में उत्कीर्ण है जिसका रचयिता विजय था।
  • इस लेख से वागड़ के परमार शासकों के बारे में जानकारी मिलती है। इसके अनुसार वागड़ के परमार मालवा के परमार शासक डँवरसिंह के वंशज थे।  
  • इसके अनुसार परमार शासक चामुण्डराज ने अपने पिता मण्डलीक की स्मृति में आर्थूणा के महामण्डलेश्वर शिवालय का निर्माण करवाया था।
  • इस प्रशस्ति में उस समय की द्रम, रूपक, बिंशोपक आदि मुद्राओं का उल्लेख मिलता है।

लूणवसही व नेमिनाथ मंदिर की प्रशस्ति :-

  • 1240 ई. की यह प्रशस्ति माउण्ट आबू के देलवाड़ा के जैन मंदिरों में उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में आबू के परमार शासकों की वंशावली एवं उपलब्धियों तथा वस्तुपाल, तेजपाल के बारे में उल्लेख मिलता है।
  • नेमिनाथ प्रशस्ति में आबू के शासक धारावर्ष का उल्लेख मिलता है। इसका रचयिता सोमेश्वर तथा उत्कीर्णकर्ता सूत्रधार चण्डेश्वर था।

डूंगरपुर की प्रशस्ति :-

  • 1404 ई. की यह प्रशस्ति डूंगरपुर के उपरगाँव नामक गाँव में जैन मंदिर में उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस प्रशस्ति से वागड़ के राजवंश के बारे में जानकारी मिलती है।
  • इससे वागड़ में मेवाड़ के गुहिल वंश की शाखा का शासन होने की जानकारी मिलती है।

रणकपुर प्रशस्ति :-

  • 1439 ई. की यह प्रशस्ति रणकपुर के चौमुखा मंदिर में संस्कृत एवं नागरी भाषाओं में उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में बापा एवं कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है।
  • इस प्रशस्ति से चित्तौड़ की सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।  
  • इसमें महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन करते हुए उसे न्यायप्रिय एवं प्रजापालक शासक बताया गया है।
  • इसका प्रशस्तिकार देपाक था। 
  • इस प्रशस्ति में गुहिल वंश का आदि पुरुष बापा रावल को बताया गया है।
  • इस प्रशस्ति में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है।

कुंभलगढ़ प्रशस्ति (1460 ई.) :-

  • इस प्रशस्ति में बप्पा रावल को ब्राह्मण वंश का बताया गया है। यह प्रशस्ति तत्कालीन मेवाड़ राज्य के समाज की विशेषताओं (दासता, शिक्षा, यज्ञ एवं तपस्या, वर्णाश्रम व्यवस्था आदि) की जानकारी प्रदान करती है।

कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति (1460 ई.) :-

  • 1460 ई. की यह प्रशस्ति कीर्ति स्तंभ में कई शिलाओं पर उत्कीर्ण है जिसकी भाषा संस्कृत है।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ शासक बापा से लेकर कुंभा तक का वंशक्रम तथा उनकी उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में इसके रचयिता महेश भट्ट का भी उल्लेख है।
  • इसमें कुंभा द्वारा गुजरात एवं मालवा की सेना पर विजय के उपलक्ष में विजय स्तंभ का निर्माण करवाने का उल्लेख है।
  • इसमें कुंभा द्वारा निर्मित मंदिरों तथा उनके निर्माणों की तिथियाँ अंकित है। कुंभा द्वारा बनवाये गये कुंभश्याम मंदिर की तुलना कैलाश पर्वत तथा सुमेरू पर्वत से की गई है।
  • इस प्रशस्ति में कुंभा को दानगुरु, राजगुरु तथा शैलगुरु कहा गया है।
  • यह प्रशस्ति 3 दिसम्बर, 1460 को कुंभा के समय उत्कीर्ण की गई।
  • इस प्रशस्ति में कुंभा द्वारा रचित ग्रंथों का उल्लेख किया गया है।

एकलिंगजी मंदिर के दक्षिण द्वार की प्रशस्ति :-

  • यह प्रशस्ति महाराणा रायमल द्वारा 1488 ई. में मंदिर के जीर्णाेद्वार के समय उत्कीर्ण करवाई गई।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासकों की वंशावली तथा उस समय के समाज के बारे में उल्लेख मिलता है।
  • इस प्रशस्ति का रचयिता महेश भट्ट था।

नौलखा बावड़ी की प्रशस्ति (1587 ई.) :-

  • 1587 ई. की यह प्रशस्ति डूंगरपुर स्थित नौलखा बावड़ी पर उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में डूंगरपुर महारावल आसकरण की रानी प्रेमलदेवी द्वारा नौलखा बावड़ी के निर्माण का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति से वागड़ के चौहान शासकों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

जूनागढ़ प्रशस्ति :-

  • 1594 ई. की यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में बीकानेर शासक रायसिंह द्वारा जूनागढ़ किले में उत्कीर्ण करवाई गई।
  • इस प्रशस्ति में जूनागढ़ दुर्ग के निर्माण की तिथि अंकित है तथा इस दुर्ग का निर्माण मंत्री कर्मचंद्र की देखरेख में होने का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति का रचयिता जैता था।
  • इस प्रशस्ति में बीकानेर शासक राव बीका से रायसिंह तक की वंशावली एवं उनकी उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में रायसिंह को साहित्य एवं काव्य का ज्ञाता, विद्वानों का संरक्षक तथा एक अच्छा कवि बताया गया है।
  • इस प्रशस्ति को ‘राय प्रशस्ति’ भी कहा जाता है।

जगन्नाथ राय प्रशस्ति :-

  • 1652 ई. की यह प्रशस्ति उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर में उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में इसके रचयिता कृष्णभट्‌ट का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में मेवाड़ शासक रावल बापा से महाराणा सांगा तक के शासकों की उपलब्धियाँ अंकित है।
  • इसमें हल्दीघाटी का युद्ध तथा महाराणा जगतसिंह के काल का विस्तृत उल्लेख किया गया है।
  • यह पंचायतन शैली की प्रशस्ति है जिसे अर्जुन की निगरानी में तथा सूत्रकार भाणा एवं उसके पुत्र मुकुन्द की अध्यक्षता में बनाई गई थी।

राज प्रशस्ति (1676 ई.) :-

  • यह प्रशस्ति राजसमंद झील की नौ चौकी पाल पर पर 25 काली शिलाओं पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है।
  • यह विश्व की सबसे बड़ी प्रशस्ति है जिसके रचयिता रणछोड़ भट्‌ट तैलंग थे।
  • यह प्रशस्ति मेवाड़ शासक राजसिंह द्वारा 1676 ई. में स्थापित करवाई गई।
  • इस प्रशस्ति में अकाल राहत कार्यों के तहत राजसमंद झील के निर्माण का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में बापा से लेकर राजसिंह तक के शासकों की वंशावली तथा उनकी उपलब्धियों का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में हल्दीघाटी युद्ध, अमरसिंह द्वारा मुगलों से की गई संधि तथा राजसिंह की विजयों का वर्णन किया गया है।
  • इस प्रशस्ति में कुल 24 सर्ग तथा 1106 श्लोक उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में राजसिंह द्वारा किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति से विवाह, औरंगजेब के साथ उनके संबंध, उनकी मृत्यु तथा उनके उत्तराधिकारी जयसिंह द्वारा औरंगजेब के साथ संधि करने का विवरण मिलता है।

वैद्यनाथ मंदिर की प्रशस्ति :-

  • 1719 ई. की यह प्रशस्ति पिछोला झील के निकट सीसारमा गाँव के वैद्यनाथ मंदिर में उत्कीर्ण की गई है जिसका रचयिता रूपभट्ट था।
  • इस प्रशस्ति में बापा से महाराजा संग्रामसिंह II तक का संक्षिप्त इतिहास वर्णित है।
  • इसमें महाराणा संग्रामसिंह II तथा रणबाज खाँ के मध्य हुए युद्ध का उल्लेख मिलता है।  

त्रिमुखी बावड़ी की प्रशस्ति :- 

  • 1675 ई. की यह प्रशस्ति देबारी स्थित त्रिमुखी बावड़ी पर उत्कीर्ण है।
  • इस प्रशस्ति में राजसिंह की रानी रामरसदे द्वारा देबारी में त्रिमुखी बावड़ी बनवाने का उल्लेख है।
  • इसमें बापा से महाराणा राजसिंह तक के शासकों की वशांवली अंकित है।

 बेड़वास गाँव की प्रशस्ति (1668 ई.) :-

  • बेड़वास गाँव की बावड़ी में लगी यह प्रशस्ति महाराणा राजसिंह के समय की है जो मेवाड़ी भाषा में उत्कीर्ण है।
  • इसमें महाराणा जगतसिंह I द्वारा प्रधानमंत्री भागचंद भटनागर को दी गई जागीर का उल्लेख है।
  • इस प्रशस्ति में राम एवं रहमान का उल्लेख है। 

ताम्रपत्र

  • किसी शासक द्वारा दिये जाने वाले दान का उल्लेख तांबे के पत्तर पर उत्कीर्ण किया जाता था जिन्हें ताम्रपत्र कहते है।
  • इस ताम्रपत्र में अनुदान देने वाले का नाम, पाने वाले का नाम, अनुदान देने का कारण तथा भूमि आदि के विवरण का उल्लेख किया जाता था।
  • भारत में सर्वप्रथम सातवाहन शासकों ने भूमिदान देने की शुरूआत की थी।
  • राजस्थान में प्रारंभ में ताम्रपत्रों में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया जाता था। कालांतर में स्थानीय भाषा का प्रयोग किया जाने लगा।

धुलेव का दान-पत्र (679 ई.) :-

  • इस दानपत्र में किष्किंधा के शासक भेटी द्वारा उब्बरक नामक गाँव को भट्टिनाग नामक ब्राह्मण को अनुदान के रूप में देने का उल्लेख है।

मथनदेव का ताम्रपत्र (959 ई.) :-

  • इस ताम्रपत्र में मथनदेव द्वारा देवालय के लिए भूमिदान देने का उल्लेख है।

बोच गुर्जर ताम्रपत्र (978 ई.) :-

  • इस ताम्रपत्र के आधार पर कनिंघम ने राजपूतों की उत्पत्ति यू-ची जाति से मानी है।
  • इस ताम्रपत्र में गुर्जर जाति के कबीले का सप्तसैंधव भारत से गंगा कावेरी तक के अभियान का उल्लेख है।

वीरपुत्र का ताम्रपत्र (1185 ई.) :-

  • इस ताम्रपत्र में गुजरात के चालुक्यों द्वारा सामंतसिंह से वागड़ का क्षेत्र छीनकर गुहिल वंश के अमृतपाल को देने का उल्लेख है।

आहड़ ताम्रपत्र (1206 ई. ):- 

  • यह ताम्रपत्र गुजरात के साेलंकी शासक भीमदेव II के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में गुजरात के सोलंकी शासक मूलराज से भीमदेव II तक की वंशावली का उल्लेख है।
  • इसमें भीमदेव द्वारा मेवाड़ के मंडल आहड़ का अरहर गाँव एक ब्राह्मण रतिदेव को दान में देने का उल्लेख है।

खेरोदा ताम्रपत्र (1437 ई.) :-  

  • यह ताम्रपत्र महाराणा कुंभा के समय का है।
  • इसमें एकलिंगजी मंदिर में कुंभा द्वारा प्रायश्चित कर भूमि का दान दिये जाने तथा उस समय की धार्मिक स्थिति का वर्णन है।  

चीकली ताम्रपत्र (1483 ई.) :-

  • इस ताम्रपत्र में किसानों से ली जाने वाली लाग-बाग एवं करों के बारे में उल्लेख मिलता है।
  • इसमें पटेल, ब्राह्मण तथा सुथारों द्वारा कृषि कार्य किए जाने का उल्लेख है।

पारसोली का ताम्रपत्र (1473 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा रायमल के समय का है।
  • इसमें भूमि की विभिन्न किस्मों-पीवल, गोरमो, मगरा, माल आदि का उल्लेख मिलता है।

पुर का ताम्रपत्र (1535 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा विक्रमादित्य के समय का है।
  • इसमें रानी कर्मावती द्वारा जौहर में प्रवेश से पूर्व दिये गये भूमि अनुदान का उल्लेख है।

ढोल का ताम्रपत्र (1574 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा प्रताप के समय का है।
  • इस ताम्रपत्र में प्रताप द्वारा ढोल नामक गाँव के प्रबंधक को भूमि अनुदान देने का उल्लेख मिलता है।

डीगरोल गाँव का ताम्रपत्र (1648 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा जगतसिंह के समय का है।
  • इसमें गढ़वी मोहनदास काे आंगरिया परगने का डोगरोल गाँव अनुदान में देने का उल्लेख मिलता है।
  • इसमें महाराणा द्वारा प्रतिवर्ष स्वर्ण तुलादान करने तथा भूमिदान करने की व्यवस्था का भी उल्लेख है।

रंगीली ग्राम का ताम्रपत्र (1656 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र मेवाड़ महाराणा राजसिंह के समय का है।
  • इसमें गंधर्व मोहन काे रंगीला नामक गाँव दान में देने का उल्लेख है।

कड़ियावद (प्रतापगढ़) का ताम्रपत्र (1663 ई.) :-

  • इस ताम्रपत्र में रावत हरिसिंह द्वारा बाटीराम को ‘नेग’ वसूल करने का अधिकार दिये जाने का उल्लेख है।
  • इस ताम्रपत्र से यह प्रमाणित होता है कि ‘नेग’ वसूल करने का अधिकार चारणों को सूरजमल के समय से था।

पारणपुर ताम्रलेख (1676 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा रावत प्रतापसिंह के समय का है।
  • इसमें उस समय के धार्मिक अनुष्ठान करने की परम्परा का उल्लेख मिलता है।
  • इस ताम्रपत्र में लाग, टकी तथा रखवाली आदि करों का उल्लेख किया गया है।

पाटण्या गाँव का दानपत्र (1677 ई.) :- 

  • यह दानपत्र प्रतापगढ़ के महारावत प्रतापसिंह के समय का है।
  • इसमें प्रतापसिंह द्वारा महता जयदेव को पाटण्या गाँव अनुदान में देने का उल्लेख है।
  • इस दानपत्र में प्रारंभिक गुहिल शासकों के नाम तथा प्रतापगढ़ के  क्षेमकर्ण से हरिसिंह तक शासकों का उल्लेख मिलता है।

राजसिंह का ताम्रपत्र (1678 ई.) :- 

  • इस ताम्रपत्र में महाराणा राजसिंह के समय राजसमुद्र झील के किनारे रानी बड़ी पँवार द्वारा वेणा नागदा को दो गाँव दान करने का उल्लेख है।

बेगूं का ताम्रपत्र (1715 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा संग्राम सिंह के समय का है।
  • इसमें प्रहलाद नामक व्यक्ति को बेगूं से एक गाँव दान में देने का उल्लेख मिलता है।
  • यह अनुदान भूमि के सभी वृक्ष, कुएँ तथा नींवाण सहित किया गया था।

गडबोड गाँव का ताम्रपत्र (1719 ई.) :-

  • यह ताम्रपत्र महाराणा संग्रामसिंह के समय का है।
  • इसमें बाईजीराज तथा कुंवर जगतसिंह द्वारा चारभुजा मंदिर के लिए गाँव अनुदान में देने का उल्लेख किया गया है।

वरखेड़ी ताम्रपत्र (1739 ई.) :-  

  • यह ताम्रपत्र प्रतापगढ़ के महारावल गोपाल सिंह के समय का है जिससें कान्हा भाट को लाख पसाव में वरखेड़ी गाँव तथा लखणा की लागत देने की जानकारी प्राप्त होती है।
  • लाख पसाव सम्मानपूर्वक दिए गए इनाम का सूचक है।

बाँसवाड़ा के दानपत्र (1747 ई. तथा 1750 ई.) :-

  • ये दानपत्र महारावल पृथ्वीसिंह के शासनकाल के है।
  • इस दानपत्र में पृथ्वीसिंह द्वारा उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर जानी वसीहा को एक रहँट दान देने का उल्लेख मिलता है।

प्रतापगढ़ का ताम्रपत्र (1817 ई.) :-

  • महारावल सामंतसिंह के समय के इस तामप्रत्र में ब्राह्मणों पर लगने वाले कर ‘टंकी’ को समाप्त करने का उल्लेख है।
  • ‘टंकी’ एक कर था जो प्रति रुपया एक आना लिया जाता था।

मोरड़ी गाँव का ताम्रपत्र (1873 ई.) :-  

  • यह ताम्रपत्र डूंगरपुर महारावल उदयसिंह के समय का है।
  • इसमें निहालचंद को मोरड़ी नामक गाँव दान देने का उल्लेख है।

लावा गाँव का ताम्रपत्र (1558 ई.) :-

  • इस ताम्रपत्र में महाराणा उदयसिंह द्वारा भोला ब्राह्मण को कन्याओं के विवाह के अवसर पर लिये जाने वाले ‘मापा’ नामक कर लेने की मनाही करने का उल्लेख है
  • इसके अनुसार उस क्षेत्र में कन्याओं के विवाह संबंधी उसके अधिकार यथावत् रखे गये।

सिक्के

– सिक्कों के अध्ययन को न्यूमस्मेटिक्स कहा जाता है।

– सिक्कों के अध्ययन से उस समय की आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, कलात्मक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

– सिक्कों की प्राप्ति के आधार पर किसी शासक की सीमाएँ तथा उसके राज्य विस्तार के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है।

– राजस्थान में चौहान काल में रूपक (चाँदी) एवं दीनार (सोने का) सिक्के, प्रतिहार काल में वराह, द्रम्प, विशोपक नामक सिक्के एवं ब्रिटिश काल में चाँदी के कलदार नामक सिक्के प्रचलन में थे।

– राजस्थान में इण्डो-ग्रीक सिक्के नलियासर (साँभर), विराटनगर (बैराठ), नगरी (चित्तौड़) से मिले हैं।

– ‘इकतीसंदा रुपया’ राजस्थान की मेड़ता टकसाल में बनता था।

– लल्लूलिया नामक सिक्के का निर्माण सोजत में किया जाता था।

– प्रतिहार शासक मिहिरभोज के सिक्कों पर वराह अवतार का अंकन मिलता है।

– एलची :- अकबर द्वारा चित्तौड़ विजय के पश्चात जारी किए गए सिक्के।

– पारूथद्रम :- मालवा के परमारों की मुद्रा।

आहत मुद्रा :- इन सिक्कों को ठप्पा मारकर बनाए जाने के कारण इन्हें आहत मुद्रा कहते हैं। आहत सिक्के पर पाँच आकृति (पेड़, मछली, सांड, हाथी व अर्द्धचन्द्र) के चिह्न अंकित होते थे।

– इन सिक्कों पर किसी प्रकार का लेख प्राप्त नहीं होता है।

– ये सिक्के पाँचवी शताब्दी ई. पूर्व के है जिन पर उस समय के प्राकृतिक चिह्न तथा देवी-देवताओं के चित्र मिलते हैं।

– इन सिक्कों को आहत मुद्रा नाम जेम्स प्रिंसेप द्वारा 1835 ई. में दिया गया।

– राजपूताना की रियासतों में प्रचलित सिक्कों के सम्बन्ध में केब ने वर्ष 1893 में ‘द करेंसीज ऑफ द हिन्दू स्टेटस ऑफ राजपूताना’ नामक पुस्तक लिखी।

इण्डो-ग्रीक मुद्राएं :- भारत में सर्वप्रथम लेखयुक्त सोने के सिक्के भारतीय-यवन (इण्डो-ग्रीक) शासकों ने जारी किये थे जो चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व के है।

– आहड़ में उत्खनन से इण्डो-ग्रीक सिक्के मिले है जिनमें अपोलो, देवता, महाराजनत्रवर्स, विरहम विस तथा पलितस आदि अंकित है।

– सिक्कों के सम्बन्ध में ‘क्रोनिकल्स ऑफ द पठान किंग्स ऑफ डेहली’ नामक पुस्तक एडवर्ड थॉमस ने लिखी है।

आहड़ से प्राप्त सिक्के :- आहड़ से 6 तांबे की मुद्राएं मिली है।

– इसके अलावा यहाँ से इण्डो-ग्रीक मुद्राएं तथा कुछ मुहरें प्राप्त हुई है।

रैढ़ (टोंक) से प्राप्त सिक्के :-

– रैढ़ में उत्खनन से 3075 चांदी के पचंमार्क सिक्के मिले है जो देश में उत्खनन से प्राप्त सिक्कों की सर्वाधिक संख्या है।

– ये सिक्के मौर्यकाल के है जिन्हें ‘धरण’ या ‘पण’ कहा जाता था।

– इन सिक्कों का वजन 57 ग्रेन है तथा इनका समय छठी शताब्दी ई. पूर्व से द्वितीय शताब्दी ई. पूर्व है।

– रैढ़ से प्राप्त इन सिक्कों को मालव, इण्डोसेसेनियम, सेनापति आदि वर्गों में रखा गया है।

बैराठ से प्राप्त सिक्के :- 

– बैराठ में उत्खनन से कपड़े में बंधी हुई 8 आहत मुद्राएं प्राप्त हुई है।

– इसके अलावा यहाँ से 28 इण्डो-ग्रीक तथा यूनानी मुद्राएं प्राप्त हुई है जिसमें से 16 सिक्के यूनानी शासक मीनेण्डर के हैं।

रंगमहल से प्राप्त सिक्के :-

– रंगमहल (हनुमानगढ़) से 105 तांबे के सिक्के प्राप्त हुए है जिनमें आहत तथा कुषाणकालीन मुद्राएं शामिल है।

– यहाँ से प्राप्त कुषाणकालीन सिक्कों को मुरण्डा कहा गया है।

– रंगमहल से कुषाण शासक कनिष्क का भी सिक्का प्राप्त हुआ है।

सांभर से प्राप्त सिक्के :-

– सांभर (जयपुर) में उत्खनन से 200 मुद्राएं प्राप्त हुई है जिनमें पंचमार्क तथा इण्डो सेसेनियम मुद्राएं शामिल है।

– यहाँ से यौद्धेय तथा इण्डो-ग्रीक मुद्राएं भी प्राप्त हुई है। एक यौद्धेय सिक्के पर ब्राम्ही लिपि में ‘बाबुधना’ तथा ‘गण’ अंकित है।

नगर (टोंक) से प्राप्त सिक्के :- टोंक जिले के नगर या कर्कोट नगर से कालाईल को लगभग 6 हजार तांबे के सिक्के प्राप्त हुए है।

– यह अनुमान लगाया जाता है कि मालव जनपद की टकसाल नगर में रही होगी।

– ये सिक्के अन्य सिक्कों की तुलना में सबसे छोटे तथा हल्के हैं।

यौद्धेय जनपद  के सिक्के :-

– प्राचीन समय के उत्तरी-पश्चिमी भाग में स्थित यौद्धेय जनपद से सिक्के मिले है।

– इन सिक्कों पर नंदी एवं स्तंभ का अंकन तथा ब्राम्ही लिपि में ‘यौधेयानां बहुधान’ लिखा हुआ मिला है।

गुप्तकालीन मुद्राएँ :-

– 1948 में बयाना (भरतपुर) से सर्वाधिक गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई है जिनकी संख्या लगभग 1800 है।

– इन सिक्कों में सर्वाधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के समय के है।

– इसके अलावा राजस्थान में टीबा (जयपुर), नलियासर (सांभर), ग्राम-मोरोली  (जयपुर), रैढ़ (टोंक), अहेड़ा (अजमेर), देवली (टाेंक) तथा सायला आदि से गुप्तकालीन मुद्राएं प्राप्त हुई है।

– सायला से समुद्रगुप्त की 13 स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त हुई है जिनके अग्रभाग पर समुद्रगुप्त ध्वज लिए खड़ा है। ये सिक्के ध्वज शैली के हैं।

– चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के छत्र शैली के स्वर्ण के सिक्के मिले है जिनसे यह संकेत मिलता है कि टोंक के आस-पास का क्षेत्र गुप्त साम्राज्य का अंग रहा होगा।

गुर्जर प्रतिहार कालीन मुद्राएं :-

– मारवाड़ क्षेत्र से प्राप्त गुर्जर प्रतिहार कालीन सिक्कों पर सेसेनियन शैली का प्रभाव दिखाई देता है।

– राजस्थान में गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिरभोज तथा विनायकपाल देव के ‘आदिवराह द्रम’ नामक सिक्के प्राप्त हुए हैं।

– प्रतिहारों के आदिवराह, वराहनाम वाले द्रम तथा देवी मूर्ति, वृषभ, मत्स्य एवं अश्वारोही अंकन वाले सिक्के भी मिले हैं।

– मारवाड़ से अनेक गुर्जर-प्रतिहार कालीन तांबे के सिक्के प्राप्त हुए है। इन पर राजा के अर्द्ध-शरीर का चिह्न तथा यज्ञकुण्ड बना है, इन पर ये चिह्न अस्पष्ट होने के कारण गधे के मुँह के समान अंकन दिखाई देता है इसलिए इनका नाम ‘गधिया सिक्के’ पड़ा है।

चौहान काल की मुद्राएँ :-

– राजस्थान में चौहान काल के चाँदी व तांबे के सिक्के मिले है जिन्हें ‘द्रम’, ‘विंशोपक’, ‘रूपक’, ‘दीनार’ आदि के नाम से जाना गया।

– अजयदेव चौहान की रानी सोमलेखा द्वारा चाँदी के सिक्के एवं सोमेश्वर द्वारा वृषभ शैली एवं अश्वारोही शैली के सिक्के चलाए गए।

– तराइन के दूसरे युद्ध में विजय के बाद मुहम्मद गौरी ने सिक्कों पर अपना नाम ‘मुहम्मद बिन साम’ अंकित करवाया। इसके अलावा इन सिक्कों पर ‘नंदी’ तथा ‘पृथ्वीराज ‘ के नाम का अंकन मिलता है। 

– इसके अलावा सिक्कों के अतिरिक्त पृष्ठ पर देवनागरी में हम्मीर का नाम भी अंकित करवाया गया है।

– इन सिक्कों के पृष्ठ भाग पर अरबी भाषा में ‘अस्सुल्तान-अल-आजम-मुईनुद्दीन-वा-दीन-अबु मुजफ्फर’ भी लिखा मिला है।

मेवाड़ राज्य के सिक्के :-

– मेवाड़ में प्राचीन काल से ही सोने, चांदी एवं तांबे के सिक्के चलते थे जो इण्डो-सेनेनियन शैली के थे।

– चांदी के सिक्कों को ‘द्रम्म’ व ‘रूपक’ तथा तांबे के सिक्कों को ‘कार्षापण’ कहा जाता था।

– पुराने सिक्कों पर कोई लेख नहीं होता था। इसी प्रकार तांबे का सिक्का ‘ढींगला’ है।

– नगरी से प्राप्त चांदी व तांबे के सिक्कों पर एक ओर ‘शिवि जनपद’ अंकित है। यहीं से यूनानी शासक मिनेण्डर के ‘द्रम्म’ सिक्के भी मिले है।

– मेवाड़ के कई स्थानों से हूणों द्वारा चलाए गए चांदी व तांबे के गधिया सिक्के मिले हैं।

– गुहिल वंश के संस्थापक गुहिल द्वारा जारी दो हजार चांदी के सिक्के आगरा से प्राप्त हुए हैं।

– मालवा परमार शासकों द्वारा प्रचलित चांदी के ‘प्रारुथ द्रम’ सिक्के भी मेवाड़ से प्राप्त हुए हैं।

– मेवाड़ में मुहम्मद बिन साम तथा सुरतिन समरूदीन नाम वाले सिक्के तथा अश्वारोही-नंदी शैली के सिक्के प्रचलित थे। इन सिक्कों को टंका एवं दिरहम नाम से जाना जाता था।

– महाराणा स्वरूपसिंह ने अंग्रेजों से संधि कर स्वरूपशाही सिक्के चलाये जिनके एक तरफ चित्रकुट-उदयपुर तथा दूसरी ओर ‘दोस्ती-लंधन’ अंकित था। इनके समय चांदोड़ी मुहर भी प्रचलित थी।

– स्वरूपशाही मुहर का वजन 100 ग्रेन होता था।

– मेवाड़ में उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलाड़ी एवं एलची सिक्के मुगल प्रभाव वाले सिक्के थे।

– चित्तौड़ी की टकसाल में मुगल सम्राट अकबर एवं अन्य मुगल सम्राटों के सिक्के भी बनते थे जिन्हें ‘सिक्का एलची’ कहते थे।

– मेवाड़ में प्रचलित तांबे के सिक्कों को ढींगला, भिलाड़ी, त्रिशुलिया, भीडरिया एवं नाथद्वारिया आदि नामों से जाना जाता था।

– शाहपुरा में बनने वाले सोने-चाँदी के सिक्के ग्यार-संदा तथा तांबे के सिक्के माधोशाही कहलाते थे।

– मेवाड़ के सलूम्बर ठिकाने का सिक्का पद्मशाही नाम से जाना जाता था।

– महाराणा भीमसिंह द्वारा अपनी बहिन चंद्रकुंवरी की स्मृति में चांदोडी रुपया, अठन्नी, चवन्नी, एक अन्नी, दो अन्नी के सिक्के जारी किए गए।

मारवाड़ के सिक्के :-

– 1780 ई. में मारवाड़ शासक विजयसिंह ने ‘विजयशाही’ सिक्कों का प्रचलन किया जिन पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है।

– मुगलकाल में मारवाड़ में जोधपुर, पाली, नागौर तथा सोजत में टकसालें थी। 1781 में जोधपुर टकसाल में शुद्ध सोने की मुहर बनने लगी।

– सोजत की टकसाल के सिक्के लल्लूशाही कहलाते थे जिन पर 1859 तक शाह आलम नाम अंकित होता था।

– तांबे के विजयशाही सिक्कों पर हिजरी सन्, दारूल मंसूर जोधपुर तथा जुलूस मैमनत मानूस जर्ब अंकित होते थे। इन सिक्कों पर झांड़ एवं तलवार के चिह्न भी बनते थे जिन्हें तुर्रा एवं खांडा कहते थे।

– जोधपुर के तांबे के सिक्के भारी होने के कारण ‘ढब्बूशाही’ एवं ‘भीमशाही’ कहलाते थे। इन सिक्कों पर औरंग आराम हिंद एवं इंग्लिस्तान क्वीन विक्टोरिया अंकित होता था।

– मारवाड़ के आलमशाही सिक्कों पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है।

– 1900 ई. में जोधपुर की टकसालों में विजयशाही सिक्के बनना बन्द हो गया तथा अंग्रेजी कलदार रुपया प्रचलन में आया।        

– जोधपुर के सिक्कों पर तलवार व झाड़ को राजचिह्न के रूप में अंकित किया जाता था।

– महाराजा तख्तसिंह के समय जोधपुर टकसाल के मुखिया अनाड़सिंह ने सिक्कों पर अपना निशान ‘रा’ अंकित किया तथा ये सिक्के ‘रुरूरिया’ सिक्के कहलाये।

बीकानेर राज्य के सिक्के :-

– मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय ने महाराजा गजसिंह को सिक्के ढालने की अनुमति प्रदान की।

– 1759 ई. के लगभग बीकानेर टकसाल से शाहआलम के सिक्के ढाले जाने आरंभ हुए।

– बीकानेर के कुछ शासकों ने सिक्कों पर अपने चिह्न भी अंकित करवाए जैसे-गजसिंह का ध्वज, सूरतसिंह का त्रिशूल, रतनसिंह का नक्षत्र, सरदारसिंह का छत्र, डूंगरसिंह का चँवर आदि।

– महाराजा डूंगरसिंह के सोने के सिक्कों पर जर्ब श्री बीकानेर एवं पताका, त्रिशुल, छत्र, चँवर और किरणीया अंकित थे।

– महाराजा गंगासिंह के समय अंग्रेजी सरकार के साथ हुए समझौते के तहत अंग्रेजों द्वारा प्रचलित सिक्कों काे कुछ परिवर्तन के साथ बीकानेर टकसाल में ढालना आरंभ हुआ जिन्हें गंगाशाही सिक्के कहते है।

– इन सिक्कों पर एक ओर महारानी विक्टोरिया का चेहरा व VICTORIA EMPRESS तथा दूसरी ओर नागरी व उर्दू लिपि में महाराजा गंगासिंह बहादुर अंकित थे।

जयपुर राज्य के सिक्के :-

– जयपुर शासकों के मुगलों से अच्छे सम्बन्ध होने के कारण इन्हें अपने राज्य में सिक्के ढालने की अनुमति अन्य राजस्थानी राज्यों की तुलना में पहले मिली थी।

– जयपुर राज्य की टकसालें आमेर, जयपुर, रूपवास, माधोपुर, सूरजगढ़ तथा चरन (खेतड़ी) में स्थापित थी।

– जयपुर राज्य के सिक्कों पर 6 टहनियों वाले झाड़ का चित्रण होने के कारण इन्हें ‘झाड़शाही सिक्के’ कहा जाता था।

– महाराजा माधोसिंह और रामसिंह ने स्वर्ण सिक्के चलाए।

– जयपुर राज्य के माधोशाही सिक्कों पर शाहआलम बहादुर नाम अंकित था। माधोसिंह के सिक्कों को ‘हाली’ सिक्का भी कहते थे।

– जयपुर राज्य में तांबे के सिक्कों का प्रचलन 1760 ई. से हुआ।

– जयपुर के मुहम्मदशाही सिक्कों पर झाड़ के अतिरिक्त मछली का अंकन भी होता था।

बूंदी के सिक्के :-    

– बूंदी में ‘पुराना रुपया’ 1759 ई. से 1859 ई. तक प्रचलित था।

– बूंदी में चलने वाली मुद्रा पर शाहआलम का लेख अंकित होता था।

– ‘ग्यारह-सना’ रुपया सम्राट अकबर द्वितीय के 11वें वर्ष से जारी हुआ।  

– बूंदी के हाली नामक सिक्के पर तीर, बड़ा धनुष व फूल का चिह्न अंकित होता था। इसके साथ ही इन पर एक छोटा झाड़ अंकित होता था।

– अकबरशाह द्वितीय के नाम का बूंदी का सिक्का हाली सिक्के के समान ही था।

– 1859 ई. से 1886 ई. के बीच प्रचलित ‘रामशाही रुपया’ पर एक ओर अंग्रेजी में ‘क्वीन विक्टोरिया’ व सन का अंकन तथा दूसरी ओर नागरी लिपि में ‘रंगेश भक्त बूंदीश रामसिंह 1843′ अंकित होता था।

– 1886 में महाराव रामसिंह के समय ‘कटारशाही’ सिक्के का प्रचलन हुआ।

– 1901 ई. में बूंदी में ‘कलदार’ के प्रचलन के साथ ‘चेहरेशाही’ सिक्के का प्रचलन किया गया।

कोटा राज्य के सिक्के :-

– कोटा में ‘हाली’ तथा ‘मदनशाही’ सिक्के प्रचलित थे।

– कोटा में चौकोर तांबे के सिक्कों का प्रचलन था।

– वर्ष 1901 से कोटा में अंग्रेजी सिक्के प्रचलित कर दिए गए।

झालावाड़ राज्य के सिक्के :-

– झालावाड़ में प्रारम्भ में पुराने ‘मदनशाही’ सिक्कों का प्रचलन था।

– यहाँ ‘नये मदनशाही’ सिक्कों का प्रचलन 1857 से 1891 ई. तक रहा।

– इन सिक्कों पर फारसी में ‘मलिका मोएज्जमा विक्टोरिया बादशाह इंगलिस्तान’ अंकित था।

किशनगढ़ के सिक्के :-

– किशनगढ़ में शाहआलम के नाम के सिक्के ‘शाहआलमी’ प्रचलित थे।

– यहाँ पर प्रचलित चांदोडी सिक्के मेवाड़ राजकुमारी चाँद कुँवर के नाम पर बनाए गए।

जैसलमेर राज्य के सिक्के :-

– जैसलमेर में सबल सिंह द्वारा ‘डोडिया’ नामक सिक्कों का प्रचलन किया गया।  

– 1756 ई. से पूर्व यहाँ मुहम्मदशाही सिक्कों का प्रचलन था। 1756 ई. से महारावल अखैसिंह ने अपनी टकसाल में ‘अखैशाही’ नामक सिक्के बनवाना प्रारम्भ किया।

– यहाँ का तांबे का सिक्का ‘डोडिया’ कहलाता था जिसके ऊपर मेवाड़ में प्रचलित ‘ढींगले’ नामक सिक्के के समान चिह्न अंकित थे।

करौली राज्य के सिक्के :-

– यहाँ सर्वप्रथम महाराजा माणकपाल द्वारा 1780 ई. में चांदी व तांबे के सिक्कों का प्रचलन करवाया गया। इन पर ‘कटार’ व ‘झाड़’ का चिह्न अंकित होता था।

– 1906 में यहाँ पर अंग्रेजी सिक्कों का प्रचलन हो गया।

भरतपुर राज्य के सिक्के :-

– भरतपुर में महाराजा सूरजमल ने 1763 ई. में शाहआलम के नाम से सिक्कों का प्रचलन करवाया।

– भरतपुर में दो टकसालें डीग व भरतपुर स्थापित थी।

– महाराजा रणजीत सिंह ने यहाँ पर चांदी का रुपया, अठन्नी एवं चवन्नी सिक्के चलाये।

धौलपुर के सिक्के :-

– धौलपुर में 1804 ई. से टकसाल प्रारंभ हुई।

– यहाँ प्रचलित सिक्कों को तमंचाशाही सिक्के कहा गया क्योंकि इन सिक्कों पर तमंचे का चिह्न अंकित होता था।

– कीर्तिसिंह द्वारा अकबर द्वितीय के सिक्के इस शैली में चलवाये गए।

सिरोही के सिक्के :-                                   

– यहाँ पर मेवाड़ का चांदी का ‘भीलाड़ी’ सिक्का तथा मारवाड़ का तांबे का ‘ढब्बूशाही’ सिक्का प्रचलित था।

– यहाँ पर चांदी का ‘भीलाड़ी’ सिक्का भी प्रचलित था।

अलवर राज्य के सिक्के :-

– अलवर राज्य की टकसाल ‘राजगढ़’ में स्थापित थी।

– यहाँ के तांबे के सिक्कों को ‘रावशाही टक्का’ कहा जाता था।

– बनेसिंह के सिक्कों पर ‘मुहम्मद बहादुरशाह 1261′ अंकित था।

प्रतापगढ़ राज्य के सिक्के :-

– शाहआलम ने महारावल सालिमसिंह को शाहआलम नाम के सिक्के चलवाने की अनुमति दी।

– 1784 ई. से प्रतापगढ़ की टकसाल में चांदी के सिक्के बनने लगे जिन्हें ‘सालिमशाही’ सिक्के कहा गया।

– इन सिक्कों का प्रचलन डूंगरपुर, बांसवाड़ा, झालावाड़, उदयपुर, रतलाम, निम्बाहेड़ा, जावर, ग्वालियर, मन्दसौर आदि में था।

– 1818 के बाद इन सिक्कों से शाहआलम नाम हटाकर उसके स्थान पर ‘सिक्का मुबारिकशाह लंदन, 1236’ अंकित किया गया’।

डूंगरपुर राज्य के सिक्के :- 

– कर्नल निक्सन के अनुसार यहां पर चांदी के ‘त्रिशूलिया’ एवं ‘पत्रिसीरिया’ नामक सिक्के बनाये जाते थे।

– डूंगरपुर में मेवाड़ के ‘चित्तौड़ी’ तथा प्रतापगढ़ के ‘सालिमशाही’ सिक्के प्रचलित थे।

– वर्ष 1904 में चित्तौड़ी तथा सालिमशाही के स्थान पर कलदार सिक्के का प्रचलन आरम्भ किया गया।

बांसवाड़ा राज्य के सिक्के :-

– यहाँ के सिक्कों के एक ओर ‘श्री’ के नीचे ‘रसायत बांसवाड़ा’ तथा दूसरी ओर हुंडी के चित्र का अंकन था।

–  महाराजा लक्ष्मणसिंह ने यहां पर सोने, चांदी व तांबे के सिक्कों का प्रचलन प्रारम्भ किया जिन्हें ‘लक्ष्मणशाही’ सिक्के कहते है।

– 1904 में बांसवाड़ा राज्य में कलदार का प्रचलन प्रारम्भ हो गया।   

रियासतप्रचलित सिक्के
मेवाड़चित्तौड़ी, भिलाड़ी, सिक्का एलची, चांदौड़ी, उदयपुरी, स्वरूपशाही, ढींगला, शाहआलमी, भीडरिया, पारूथक्रम।
मारवाड़भीमशाही, विजयशाही, गजशाही, लल्लूलिया, फदिया, गधिया
जयपुरझाड़शाही, मुहम्मदशाही, हाली
बीकानेरगजशाही, आलमशाही (मुगलिया सिक्का)
जैसलमेरअखैशाही, मुहम्मदशाही, डोडिया (ताँबे के सिक्के)
बूंदीकटारशाही, चेहरेशाही, रामशाही, पुराना रुपया, ग्यारह-सना
डूंगरपुरत्रिशूलिया, पत्रीसीरिया, उदयशाही, सालिमशाही, चितौड़ी
धौलपुरतमंचाशाही
अलवरअखैशाही, रावशाही, अंग्रेजी पाव आना सिक्का
झालावाड़पुराने मदनशाही, नये मदनशाही
सलूम्बरपदमशाही
बांसवाड़ासािलमशाही, लक्ष्मणशाही
प्रतापगढ़सािलमशाही, आलमशाही, मुबारकशाही, सिक्का मुबारक लंदन
शाहपुरासंदिया, चित्तौड़ी, भिलाड़ी, माधोशाही
करौलीमाणकशाही, कटार झाड़शाही
किशनगढ़शाहआलमी, चांदौड़ी सिक्का
कोटामदनशाही, हाली, गुमानशाही, लक्ष्मणशाही
सिरोहीचाँदी का भिलाड़ी, ताँबें का ढब्बूशाही
नागौरअमरशाही

साहित्यिक स्रोत

राजस्थानी इतिहास की जानकारी के लिए संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी एवं फारसी आदि की कृतियाँ अत्यंत उपयोगी हैं। इन कृतियों से तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन, युद्ध प्रणाली आदि पर काफी प्रकाश पड़ता है। साहित्यिक स्रोतों को भाषा के आधार पर चार भागों में विभाजित किया गया है।

1. संस्कृत साहित्य 2. राजस्थानी साहित्य 3. जैन साहित्य 4. फारसी साहित्य

1. संस्कृत साहित्य :– ऐतिहासिक साहित्यिक स्रोतों में संस्कृत साहित्य का काफी महत्व है। मध्यकालीन राजस्थान में विभिन्न शासकों के दरबारों में संस्कृत एवं प्राकृत भाषाओं में साहित्यों की रचना की गई जो वर्तमान में अनूप संस्कृत पुस्तकालय (बीकानेर), पुस्तक प्रकाश (जोधपुर), प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर आदि में सुरक्षित है।

प्रारंभिक कालीन संस्कृत साहित्य :-

1. पृथ्वीराज विजय :- पृथ्वीराज चौहान तृतीय के आश्रित कवि पण्डित जयानक द्वारा 12वीं सदी के उत्तरार्द्ध में रचित रचना। इस ग्रंथ से सपादलक्ष के चौहान शासकों की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है।

 2. हम्मीर महाकाव्य :- नयनचंद्र सूरी द्वारा रचित काव्य। इससे रणथम्भौर के चौहान वंश के इतिहास, अलाउद्दीन आक्रमण एवं हम्मीर की वीरता का बखान होता है। इस महाकाव्य में चौहान राजपूतों की उत्पत्ति सूर्यवंश से बताई जाती है।

 3. राज विनोद :- बीकानेर शासक महाराजा कल्याणमल के दरबारी कवि सदाशिव भट्‌ट द्वारा 16वीं सदी में रचित ग्रंथ। इस ग्रंथ से बीकानेर वासियों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान एवं आर्थिक स्थिति की पर्याप्त जानकारी मिलती है।

 4. अमरसार :- 16वीं सदी में पंडित जीवाधर द्वारा रचित इस ग्रंथ से महाराणा प्रताप एवं अमरसिंह प्रथम के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त होती है। यह ग्रंथ तत्कालीन समय में प्रचलित दास प्रथा, सैनिकों की वेशभूषा, मल्लयुद्ध एवं जानवरों की लड़ाईयों तथा तत्कालीन सांस्कृतिक जीवन के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

 5. भटि्ट काव्य :- 15वीं सदी में भटि्ट द्वारा रचित यह ग्रंथ हमें उस समय की जैसलमेर राज्य की राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति की जानकारी प्रदान करता है। इसमें जैसलमेर के शासक भीम की मथुरा एवं वृंदावन की यात्रा का वर्णन मिलता है।

 6. एकलिंग महात्म्य :-  इस ग्रंथ का प्रथम भाग (राजवर्णन) महाराणा कुंभा द्वारा लिखा गया। इस ग्रंथ को पूरा कान्ह व्यास ने किया। यह ग्रंथ गहलोत (गुहिल) वंश की वंशावली, वर्णाश्रम और वर्ण व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश डालता है। इस ग्रंथ की तुलना पुराणों से की गई है।

 7. अमरकाव्य वंशावली :- राजप्रशस्ति के लेखक रणछोड़ भट्‌ट द्वारा रचित इस ग्रंथ से बप्पा से लेकर राणा राजसिंह तक के मेवाड़ इतिहास, जौहर एवं दीपावली, होली आदि त्योहारों की जानकारी मिलती हैं।

 8. अजितोदय :- जोधपुर शासक अजीतसिंह के दरबारी कवि जगजीवन भट्‌ट द्वारा 17वीं सदी में रचित इस ग्रंथ में महाराजा जसवंत सिंह और अजीतसिंह के समय में युद्धों, संधियों, विजयों एवं तत्कालीन समय में प्रचलित रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं की जानकारी मिलती है।

 9. राजरत्नाकर :- 17वीं सदी में महाराणा राजसिंह के समय सदाशिव भट्‌ट द्वारा रचित इस ग्रंथ से महाराणा राजसिंह के समय के समाज चित्रण तथा दरबारी जीवन का वर्णन मिलता है।

 10. कर्मचंद वंशोत्कीर्तन काव्यम् :- जयसोम द्वारा रचित इस ग्रंथ में बीकानेर के राठौड़ों का इतिहास एवं बीकानेर दुर्ग के निर्माण की जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ से बीकानेर राज्य के विस्तार, दान-पुण्य से संबंधित संस्थाओं की जानकारी प्राप्त होती है।

 11. प्रबंध चिंतामणि :- भोज परमार के राज कवि मेरुतुंग द्वारा रचित इस ग्रंथ में 13वीं सदी के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन का वर्णन मिलता है।

 12. राजवल्लभ :- महाराणा कुंभा के वास्तुशिल्पी मण्डन द्वारा रचित इस ग्रंथ से नगर, ग्राम, दुर्ग, राजप्रासाद, मंदिर, बाजार आदि के निर्माण पद्धति पर प्रकाश डालता है। यह ग्रंथ कुल 14 अध्यायों में विभाजित हैं जो 15वीं सदी के सैनिक संगठन एवं मेवाड़ राज्य एवं स्थापत्य कला के बारे में जानकारी प्रदान करता है।

  इनके अलावा किशोरदास द्वारा रचित राजप्रकाश, नन्दराम द्वारा रचित जगतविलास, कृष्ण भट्‌ट का ईश्वर विलास महाकाव्य, रघुनाथ का जगतसिंह काव्य, यमुनादत्त शास्त्री का वीरवंश रंग, देव भट्‌ट का जयसिंह कल्पद्रुम आदि विभिन्न समय के शाासकों के बारे में तथा तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक गतिविधियों एवं राज्यों की परिस्थितियों का वर्णन करते हैं।

2. राजस्थानी साहित्य :- राजस्थानी साहित्यों में इतिहास से संबंधित कृतियाँ गद्य एवं पद्य दोनों में लिखी गईं। ऐतिहासिक गद्य कृतियों में ख्यात, बात, विगत, वंशावली, हाल, हकीकत, बही आदि प्रमुख हैं। राजस्थानी पद्य कृतियों में रासो, विलास, रूपक, प्रकाश, वचनिका, वेलि, झमाल, झूलणा, दुहा, छंद आदि शामिल हैं।

 (क) ख्यात साहित्य :- राजस्थानी परम्परा में ख्यात विस्तृत इतिहास होता है। यह वंशावली एवं प्रशस्ति लेखन का विस्तृत रूप होता है। अधिकांश ख्यात साहित्य गद्य में लिखा गया।

 साहित्य में सबसे पुरानी ख्यात नैणसी की ख्यात है। यह ख्यात महाराजा जसवंतसिंह प्रथम के दरबारी कवि मुहणोत नैणसी द्वारा मारवाड़ी एवं डिंगल भाषा में लिखी गई। इस ख्यात में राजपूतों की 36 शाखाओं का वर्णन किया गया हैं। राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान (जोधपुर) ने ख्यात की सभी प्रतियों को संग्रहित करके 4 जिल्दों में ख्यात और दो जिल्दों में ‘गांवा री ख्यात’ को प्रकाशित करवाया।

 मुंडीयार की ख्यात मारवाड़ के शासकों के बारे में जानकारी प्रदान करती है।

 दयालदास की ख्यात बीकानेर के महाराजा रतनसिंह के दरबारी कवि दयालदास सिंढ़ायच द्वारा लिखी गई जो बीकानेर के शासकों के बारे में जानकारी प्रदान करती है। इस ख्यात में बीकानेर के महाराजा रतनसिंह द्वारा अपने सामंतों को कन्या वध रोकने के लिए गया में प्रतिज्ञा करवाने का वर्णन मिलता है।

 भाटियों की ख्यात में जैसलमेर के भाटी शासकों के बारे में जानकारी मिलती है।

 अकबर के दूत मानसिंह एवं राणा प्रताप के मध्य उदय सागर की पाल पर भेंट का वर्णन ‘नैणसी री ख्यात’ एवं ‘आमेर की ख्यात’ में मिलता है।

 बाँकीदास की ख्यात को ‘जोधपुर राज्य की ख्यात’ भी कहा जाता है। बाँकीदास ने इस ख्यात की रचना जोधपुर महाराजा मानसिंह के समय की।

 (ख) रासो साहित्य :- मध्य काल में विभिन्न राजस्थानी विद्वानों ने राजाओं एवं राजघराने की प्रशंसा में विभिन्न काव्यों की रचना की जिसे ‘रासो’ के नाम से जाना गया। रासो ग्रंथ में चन्द्रबरदाई का पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह का बीसलदेव रासो, कविजान का कयाम खाँ रासो, दौलत विजय का खुमाण रासो, गिरधर आसिया का संगत रासो, जाचीक जीवन का प्रताप रासो, कवि नरोत्तम का मानचरित्र रासो, दयाराम का राणो रासो, कुंभकरण का रतन रासो एवं कवि डूंगरसी का शत्रुसाल रासो आदि प्रमुख हैं।

 पृथ्वीराज रासो नामक ग्रंथ में 4 राजपूत वंशों (गुर्जर-प्रतिहार, परमार, चालुक्य एवं चौहान) की उत्पत्ति गुरु वशिष्ठ के आबू पर्वत के अग्निकुण्ड से बतायी गई है। पृथ्वीराज रासो नामक ग्रंथ को चंद्रबरदाई के दत्तक पुत्र ‘जल्हण’ ने पूरा किया। इस रासो में संयोगिता हरण एवं तराईन युद्ध का विस्तृत वर्णन मिलता है।

 कवि काशी छंगाणी द्वारा रचित छत्रपति रासो बीकानेर के इतिहास की जानकारी देता है। इस रासो में 1644 ई. में कर्णसिंह (बीकानेर) एवं अमरसिंह (नागौर) के मध्य लड़े गये युद्ध ‘मतीरे की राड़’ का वर्णन मिलता है।

 बीसलदेव रासो में अजमेर के बीसलदेव चौहान एवं परमार राजा भोज की पुत्री राजमति की प्रेम कथा का वर्णन मिलता है।

 शत्रुसाल रासो नामक ग्रंथ बूँदी के इतिहास की जानकारी के लिए उपयोगी है।

 जाचीक जीवन द्वारा रचित प्रताप रासों में अलवर राज्य के संस्थापक राव राजा प्रतापसिंह के जीवन का विवरण मिलता है।

 दयालदास द्वारा रचित राणो रासो ग्रंथ में मुगल मेवाड़ संघर्ष की घटनाओं की जानकारी मिलती है।

 जोधराज द्वारा रचित हम्मीर रासो में रणथम्भोर के हम्मीर देव चौहान एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य युद्ध का वर्णन मिलता है।

 (ग) वेलि साहित्य :- ऐतिहासिक वेिल साहित्य में राजाओं एवं सामंतों का वीररसपूर्ण वर्णन मिलता है।

 वेलि क्रिसन रुक्मिणी री नामक ग्रंथ पृथ्वीराज राठौड़ (पीथल) द्वारा लिखा गया। अकबर के नवरत्नों में से एक बीकानेर के पृथ्वीराज राठौड़ ने इस ग्रंथ की रचना गागरोन दुर्ग में की। इस ग्रंथ में श्रीकृष्ण एवं रुक्मिणी के विवाह का वर्णन मिलता है। दुरसा आढ़ा ने इस ग्रंथ को ‘पाँचवा वेद’ एवं ‘19वाँ पुराण’ की उपमा दी है। एल. पी. टेस्सीटोरी ने पृथ्वीराज राठौड़ को ‘डिंगल का हैरोस’ कहा है।

 (घ) अन्य राजस्थानी साहित्य :-

 शिवदास गाडण द्वारा 14वीं सदी में रचित अचलदास खींची री वचनिका नामक ग्रंथ में गागरोन राजा अचलदास एवं मालवा सुल्तान होसंगशाह के मध्य हुए युद्ध का वर्णन मिलता है। यह ग्रंथ वीर रसात्मक चंपू (गद्य-पद्य) काव्य है।

 जालौर शासक अखैराज के दरबारी कवि पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हड़दे प्रबंध नामक ग्रंथ में जालौर शासक कान्हड़दे एवं अलाउद्दीन खिलजी के मध्य हुए युद्ध का वर्णन मिलता है।

 13वीं सदी में बीठु सूजा द्वारा डिंगल भाषा में रचित राव जैतसी रो छंद नामक ग्रंथ में मुगल शासक कामरान एवं बीकानेर शासक राव जैतसी के मध्य हुए युद्ध का वर्णन एवं जैतसी की विजय का वर्णन मिलता है।

 हेमकवि द्वारा रचित गुणभाष नामक ग्रंथ एवं केशवदास द्वारा रचित गुणरूपक नामक ग्रंथ से जोधपुर शासक गजेसिंह प्रथम के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

 बूँदी के महाराव रामसिंह के दरबारी कवि सूर्यमल्ल मिश्रण के द्वारा पिंगल भाषा में रचित वंशभास्कर ग्रंथ में बूँदी राज्य का विस्तृत इतिहास मिलता है।

 बीकानेर महाराजा दलपतसिंह द्वारा रचित दलपत विलास नामक ग्रंथ से अकबर द्वारा हेमू का वध न किये जाने की जानकारी मिलती है। सार्दुल राजस्थान रिसर्च इंस्टीट्यूट (बीकानेर) द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक अधूरी है।

 मलिक मोहम्मद जायसी द्वारा 1540 ई. में रचित पद्मावत ग्रंथ में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ अभियान एवं रानी पद्‌मिनी के सौंदर्य का वर्णन मिलता है।

 कवि करणीदान ने सुरजप्रकाश नामक ग्रंथ की रचना जोधपुर शासक अभयसिंह राठौड़ के समय की। इस ग्रंथ में अभयसिंह के समय के युद्धों का सजीव वर्णन मिलता है।

 कविराजा श्यामलदास द्वारा रचित वीर विनोद ग्रंथ में मेवाड़ के गुहिलों के इतिहास का वर्णन है।

 अन्य राजस्थानी साहित्यों में बख्तराम शाह का बुद्धि विलास, कविमान का राज विलास, चन्द्रशेखर का हम्मीर हठ, सुर्जन चरित्र, श्रीधर व्यास का रणमल छंद, सायांजी झूला का रुकमणि हरण, नागदामण, जयसिंह सूरी का हम्मीर मदमर्दन, मंछाराम सेवग का रघुनाथ रूपक, दुरसा आढ़ा का विरुद छतहरी, किरतार बावनी, नरहरिदास का रसिक रत्नावली, बादर ढाढी का वीरमायण नामक ग्रंथ आदि अपने-अपने समय के शासकों, रीति-रिवाजों, रहन-सहन एवं तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों को उद्‌घाटित करने के प्रमुख स्रोत है।

3. जैन साहित्य :- राजस्थान में विभिन्न जैन भण्डारों में जो साहित्य संग्रहित हैं वह इस प्रदेश की ऐतिहासक जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत है। राजस्थान में जैसलमेर, बीकानेर, सोजत, चित्तौड़, सादड़ी आदि स्थानों पर जैन भण्डार है। इस साहित्य से मध्यकालीन राजस्थान के धार्मिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। अधिकांश जैन साहित्य राजस्थानी अथवा संस्कृत भाषा में लिखा हुआ है जो रासो, बात, दोहा, चौपाई, चरित्र, गाथा आदि के रूप में वर्णित किया गया है।

 कक्कड़ सूरी ने ‘नाभिनन्दन जिनोधार प्रबंध’ नामक पद्य काव्य 14वीं सदी में संस्कृत में लिखा जो पाँच अध्यायों में विभाजित हैं। इस साहित्य का मूल कथानक धर्मावलम्बी समरसेन था। इसमें उकेशपुर (वर्तमान में ओसियां) एवं कीरातबपुर (वर्तमान में किराड़) के मध्यकालीन नगरों के धार्मिक एवं आर्थिक जीवन का वर्णन मिलता है।

 हेमरत्न सूरी द्वारा रचित गोराबादल री चौपाई ग्रंथ में राजपूत काल की युद्ध प्रणाली के बारे में जानकारी मिलती है।

 लम्योदय उपाध्याय द्वारा रचित पद्‌मिनी चरित्र चौपाई से 17वीं सदी की सामाजिक व्यवस्था की जानकारी मिलती है।

 सोमसूरी द्वारा 15वीं सदी में रचित ग्रंथ ‘सौभाग्य महाकाव्य’ से तत्कालीन शिक्षा प्रणाली की जानकारी मिलती है।

 सोमसुन्दर द्वारा रचित सिंहल सूत्र एवं वल्कल चिरी नामक ग्रंथ से 16वीं सदी की सामाजिक स्थिति के बारे में जानकारी मिलती है।

 नयनचन्द्र सूरी द्वारा 14 सर्गों में लिखी हम्मीर महाकाव्य ग्रंथ में रणथम्भौर के चौहान शाखा के राजपूत राजाओं का लिपिबद्ध वर्णन मिलता है।

 अन्य जैन साहित्यों में मेरुतुंग का प्रबंध चिंतामणि, हेमरत्न सूरि का यमकुमार चौपाई, भाहुक का हरिमेखला, श्रीधर व्यास का पार्श्वनाथ चरित, हरिभद्र सूरि का समराइच्छकथा, धुर्ताख्यान, यशोधर चरित, राजशेखर का प्रबंधकोष, उद्योत्तन सूरि का कुवलयमाला, हेमचन्द्र सूरि का देशीनाममाला, जयसिंह सूरि का कुमारपाल चरित, धर्मोदेशमाला आदि प्रमुख हैं।

4. फारसी साहित्य :-

प्रमुख फारसी साहित्य
क्र.सं.साहित्यिक रचनारचनाकारवर्णन
1.तबकाते नासिरीकाजी मिनहाज-उस-सिराजयह पुस्तक जालौर एवं नागौर में मुस्लिम शासन के बारे में जानकारी प्रदान करती हैं।
2.ताज-उल-मासिरहसन निजामीइस ग्रंथ से अजमेर नगर की समृद्धि एवं मुस्लिम आक्रमण से होने वाली बर्बादी का पता चलता है।
3.तारीखे-ए-फिरोजशाहीजियाउद्दीन बरनीइस ग्रंथ से हमें रणथम्भौर एवं उस पर होने वाले आक्रमण की जानकारी मिलती है।
4.खजाईनुल-फुतूह अमीर खुसरोइस ग्रंथ से अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ व रणथम्भौर आक्रमण की जानकारी मिलती है।
 (i) मुरात-उल-कमाल
 (ii) देवल रानी
5.तारीख-ए-मुबारकशाहीयाहया-बिन-अहमद-अब्दुलशाह-सरहिन्दी
6.तुजुक-ए-बाबरी (बाबरनामा)बाबर की आत्मकथा(i) तुर्की भाषा में लिखित(ii) इसमें पानीपत के प्रथम युद्ध एवं खानवा युद्ध की जानकारी मिलती है।
7.हुमायूंनामागुलबदन बेगम (हुमायूं की बहन)इस ग्रंथ से हुमायूं के मेवाड़ एवं मारवाड़ शासकों के साथ संबंधों एवं शेरशाह सूरी से परास्त होने की जानकारी मिलती है।
8.अकबरनामाअबुल फजलइस ग्रंथ से राजस्थान के मेवाड़, कोटा, जयपुर, सांभर, अजमेर आदि नगरों में अकबर द्वारा करवाये गये कार्य एवं अकबर के साथ राजपूत राजकुमारियों के विवाह की जानकारी मिलती है।
9.आईन-ए-अकबरीअबुल फजलइस ग्रंथ से राजस्थानी वेशभूषा एवं वस्त्रों के नाम एवं राजस्थान में मनाये जाने वाले त्योहारों एवं मुद्राओं के बारे में जानकारी मिलती है।
10.मुन्तखब-उत-तवारीखअब्दुल कादिर बदाँयूनीइस ग्रंथ में हल्दीघाटी युद्ध का सजीव वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ से हमें हरकू बाई का विवाह अकबर के साथ होने का, जौहर प्रथा एवं रक्षाबंधन पर्व का वर्णन मिलता है।
11.तारीख-ए-शेरशाहीअब्बास खाँ सरवानीमालदेव एवं शेरशाह के मध्य हुए गिरि-सुमेल युद्ध में लेखक स्वयं मौजूद था।
12.इकबालनामामोतमिद खाँइस ग्रंथ में शाहजहाँ द्वारा मेवाड़ में की गई हत्याओं एवं आर्थिक बर्बादी की जानकारी मिलती है।
13.शाहजहाँनामाइनायत खाँइस ग्रंथ में मुगल मेवाड़ संधि की जानकारी मिलती है।
14.तारीख-ए-राजस्थानकालीराम कायस्थ (अजमेर)इस ग्रंथ को ‘नसबुल अनसाब’ के नाम से भी जाना जाता है।
15.तबकात-ए-अकबरीनिजामुद्दीन अहमदयह ग्रंथ शेरशाह की सेना के टुकड़ी के नागौर पहुँचने की जानकारी प्रदान करता है।
16.फतूहात-ए-आलमगीरीईसरदास नागरइस ग्रंथ से दुर्गादास राठौड़ की कूटनीतिज्ञता का पता चलता है।
17.तुजुक-ए-जहाँगीरीजहाँगीरयह जहाँगीर की आत्मकथा है जिसमें आमेर के राजा भगवंतदास का नाम भगवानदास लिखा है।
18.तजकिरात-उल-वाकेयातजौहर आफतावची
19.तारीख-ए-रशीदीमिर्जा हैदर दौगलत
20.पादशाहनामाअब्दुल हमीद लाहौरी
21.आलमगीरनामामोहम्मद काजिम
22.मुनव्वर-ए-कलामशिवदास

पुरालेखीय स्रोत :-

 इन स्रोतों में शासकीय एवं अर्द्धशासकीय आदेश, पत्र, हिसाब, बहियाँ आदि प्रशासनिक कार्यों से जुड़ी लिखित सामग्री के साथ-साथ गैर प्रशासनिक संस्थाओं एवं व्यक्तिगत दस्तावेजों का समावेश शामिल है।

 राजस्थान में पुरालेख सामग्री तीन भाषाओं में लिपिबद्ध मिलती हैं:- 1. फारसी 2. राजस्थानी एवं हिन्दी 3. अंग्रेजी

 फारसी भाषा में लिपिबद्ध पुरालेख स्रोत फरमान, मंसूर, रुक्का, निशान, हस्बुल, वकील रिपोर्ट, इंश, रुक्केयात आदि के रूप में मिलते हैं।

 (i) फरमान :- बादशाहों द्वारा जारी होने वाले शाही आदेश।

 (ii) हस्बुल हुकम :- शाही परिवार के किसी सदस्य या सरदार द्वारा प्रेषित किए जाने वाले आदेश जिसमें किसी व्यक्ति को कोई स्वीकृति दी जाती थी तथा जिसमें बादशाह की सहमति होती थी।

 (iii) परवाना :– महाराजा द्वारा अपने अधीनस्थ को जारी किए जाने वाले आदेश।

 (iv) निशान :- बादशाह के परिवार के किसी सदस्य द्वारा मनसबदार को अपनी मौहर के साथ जारी किए जाने वाले आदेश।

 (v) खरीता :- एक राजा द्वारा दूसरे राजा के साथ किया जाने वाला पत्र व्यवहार।

 (vi) रुक्का :- राज्य के अधिकारियों के मध्य पत्र व्यवहार। यह निजी पत्र व्यवहार था।

 (vii) मंसूर :- एक प्रकार का शाही आदेश जो बादशाह की मौजूदगी में शाहजादे द्वारा जारी किया जाता था।

 (viii) सनद :- एक प्रकार की स्वीकृति जिसके द्वारा सम्राट अपने अधीनस्थ राजा को जागीर प्रदान करता था।

 (ix) वाक्या :- इसमें बादशाह या राजा की व्यक्तिगत एवं राजकार्य संबंधी गतिविधियाँ तथा राज परिवार के सदस्यों की सामाजिक रस्म, व्यवहार, शिष्टाचार आदि का वर्णन होता था।

 (x) वकील रिपोर्ट :- मुगल राज्यों में राजपूत राज्यों का एक प्रतिनधि रहता था जिसे वकील कहा जाता था। इन वकील के माध्यम से शासकों को मुगल दरबार की गतिविधियों की रिपोर्ट प्राप्त होती थी जो वकील रिपोर्ट के नाम से जानी जाती थी।

 (xi) अर्जदाश्त :- प्रजा द्वारा बादशाहों या शाहजादों को लिखा जाने वाला पत्र।

 (xii) दोवर्की :- दो परतों वाले दस्तावेज दोवर्की के नाम से जाने जाते थे। इन परतों में मुख्य रूप से दैनिक प्रशासन, युद्ध सम्बन्धित खर्च, घायलों के उपचार आदि पर प्रकाश डाला जाता था।

बहियाँ :-

 राजपूत राजघरानों में मध्यकाल से शुरू हुई बहियाँ लिखने की परम्परा विवाह संबंधी, सरकारी आदेशों, राजाओं के शासनकाल एवं राजाओं द्वारा जारी आदेशों की जानकारी देती है। बहियों के आधार पर मध्यकालीन राजस्थान के राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के विषय के संबंध में जानकारी मिलती है।

 हकीकत बही में सन् 1857 के भारतीय विद्रोह के संबंधी अंश विद्यमान है।

ओहया बही से ज्ञात होता है कि जोधपुर शासकों द्वारा कौन-कौनसे आदेश जारी किए गए थे एवं उस समय कौन-कौनसे अधिकारी व कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त थे।

 फुटकर बही से विभिन्न घटनाओं की जानकारी मिलती है।

 कमठाना बहियों से राजप्रासाद बनाने में खर्च तथा दैनिक मजदूरी आदि के बारे में वर्णन मिलता है।

 जयपुर के तोजी रिकॉर्ड में दैनिक व्यय एवं वकील रिपोर्ट से मुगल कच्छवाहा तथा मराठा कच्छवाहा संबंधों पर प्रकाश डाला गया है।

 मेवाड़ राज्य के वार्षिक आय-व्यय का ज्ञान जिन अभिलेखों से होता है उन्हें पड़ाखा एवं पक्का खाता के नाम से जाना जाता है। इसमें लगान, शहर पट्‌टा, जागीर से प्राप्त राशि, प्रशासनिक तंत्र, न्यायपालिका पर होने वाले खर्च आदि का उल्लेख मिलता है।

 सबसे प्राचीन बही राणा राजसिंह (1652 – 1680 ई.) के समय की है।

 बहियों के माध्यम से त्योहार और उन्हें मनाने की विधि, विवाह आदि अवसरों पर होने वाले खर्चे तथा विभिन्न वस्तुओं के मूल्य का लेखा-जोखा प्राप्त होता है।

 मुल्की :- इससे राज्यों की आय, परगनों एवं गाँवों की आर्थिक स्थित, युद्ध अभियान, अधिकारियों एवं कर्मचारियों के वेतन आदि का ज्ञान होता है।

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