निदानात्मक मूल्यांकन एवं उपचारात्मक शिक्षण

Estimated reading: 1 minute 102 views

मूल्यांकन के प्रकार

मूल्यांकन के निम्न प्रकार होते है –

1. निदानात्मक मल्यकन एवं

2.उपचारात्मक शिक्षण |

निदानात्मक परीक्षण की आवश्यकता

विद्यालयों में निष्पत्ति परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। जिनसे यह ज्ञान होता है कि छात्रों ने कितना सीखा है। छात्रों के साफल्य के आधार पर उत्तीर्ण और अनुत्तीर्ण घोषित किया जाता है, श्रेणियों का आवंटन किया जाता है। छात्रों का वर्गीकरण किया जाता है अगली कक्षा में प्रोन्नति की जाती है। परंतु जिन छात्रों को सफलता नहीं मिल सकीं उसका कया कारण है ? इसका बोध निष्पत्ति परीक्षण से नहीं होता इसके लिए निदानात्मक परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। शिक्षा परीक्षण की दृष्टि से निष्पत्ति एवं निदानात्मक परीक्षाएं एक दूसरे की पूरक होती है। विरोधी नहीं। शैक्षिक मापने के अंतर्गत दोनों प्रकार के परीक्षाओं को सम्मिलित किया जाता है।

निष्पत्ति परीक्षणों द्वारा बालक की शैक्षिक योग्यताओं का मापन किया जाता है, सरल शब्दों में इसका अर्थ पह आ कि छात्र ने किसी विषय से संबंधित पाठ्यवस्तु को कितना सीख लिया है। उसे निष्पत्ति उपलब्धि कहते है। इस प्रकार परीक्षणों द्वारा यह विदित होता है कि छात्र ने कितना सीखा है। इन परीक्षणों से यह ज्ञात नही किया जा सकता कि जो नहीं सीख सके उसका क्या कारण रहा है ? इसके लिए निदानात्मक परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है। निदान के अंतर्गत कम अंक प्राप्त करने के कारणों का सही पता लगाया जाता है। आधुनिक निदान की प्रक्रिया के अंतर्गत केवल निदानात्मक परीक्षाओं तक ही सीमित नहीं रहते हैं। छात्र की समस्त परिस्थितियों का अवलोकन करके विशिष्ट प्रभावों को पर ध्यान दिया है, निदान के अंतर्गत वस्तुनिष्ठ विधियों एवं प्रतिधियों का प्रयोग किया जाता है। आधुनिक निदान के अंतर्गत छात्र के व्यवहार के सभी क्षेत्रो को सम्मिलित किया जाता है, उसे एक क्षेत्र तक संकुचित रूप में सीमित नहीं रखते है। इस निदान के प्रारूप में सामान्य क्षेत्रों की अयोग्यताए > उददैश्यां ठ एवं विधियों का विभिन्‍न व्यक्ति पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता है, इसके अंतर्गत सामूहिक निदान किया जाता है। केवल एक व्यक्ति के निदान तक सीमित नहीं रखा जाता है।

आधुनिक निदान की प्रक्रिया के अंतर्गत संचयी आलेखैं या सतत्‌ परीक्षणों का प्रयोग होता है। इस प्रकार के निदान अधिक शुध्द एवं विश्वसनीय होते हैं।

निदान के कार्य

निदान की प्रक्रिया व्यक्तिगत अधिक होती है, इसके अधोलिखित कार्य हैं-

1.वर्गीकरण– निदान की प्रक्रिया का वर्गीकरण प्राथमिक सोपान या लक्ष्य माना जाता है। निदान की प्रक्रिया को आरम्भ करने के लिए यह है कि सभी छात्रों को सजातीय समूहों में विभाजित किया जाए। यह विभाजन अध्‌ अश्जेलिखित सामान्य गुणों पर आधारित होता है-

(अ) मानसिक स्तर

(ब) व्यावसायिक स्तर तथा

(ग) संगीत की प्रवणता।

इन स्तरों का प्रयोग प्रशासनिक अथवा निर्देशन की दृष्टि से किया जाता है।

2. विशिष्ट योग्यताओ का मापन– निदान का दूसरा सोपान छात्रों की विशिष्ट योग्यताओं का मापन करना हाते <ब है, इसके अन्तर्गत अधोलिखित निम्नांकित योग्यताओं का स्तर ज्ञात किया जाता है-

(अ) समायोजन का स्तर

(ब) असमायोजन का स्तर

(स) उत्सुकता का स्तर

(द) निराशा का स्तर

(स) स॒दूतेष का स्तर

3 .निदान संबंधी कारण– यह कार्य सबसे जटिल और कठिन होता है। इसके अंतर्गत यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि उसके सीखने की कमजोरियाँ उसके सामान्य योग्यताओं एवं विशिष्ट योग्यताओं से किस प्रकार संबंधित है। इसके अंतर्गत छात्रों के न सीखने के कारणों का पता लगाया जाता है।

4. उपचार– निदान का अंतिम कार्य यह होता है कि छात्रों की कमजोरियों को दूर किया जाए। जब उसके कमजोरियों का कारण ज्ञात कर लेते है तो उन कारणों का दूर करने की प्रविधियों का चयन करके उनका प्रयोग करते है जिससे उनकी कमजोरियों को दूर किया जा सके। इस प्रकार निदान के अंतर्गत पूर्वकथन कार्य भी निहित होता है। छात्रों की कमजोरियों को दूर करके ही उनमें सुधार लाया जा सकता हैं सुधार से छात्रा ?# की निष्पत्तियों के स्तर को उठाया जाता है। इस प्रकार निदान का कार्य साफल्यता भी है और निदान की क्रिया गतिशील भी होती हैं। सुधारात्मक प्रक्रिया व्यक्तिगत अधिक होती है। प्रत्येक छात्र में अपनी कमजोरियाँ होती हैं।

उच्चारण संबंधी कठिनाईयों का निदान करना और कारणों का पता लगाना अपने में ही एक बडा काम और इसका क्षेत्र भी वृदद ह।रै इस अध्ययन मे ः मुख्य कारणों का ही उल्लेख किया गया ह संपूर्ण क्षेत्र का वणर्न करना संभव भी नहीं है। प्रतिवर्ष नयै-नये छात्र आते है उनकी अपनी-अपनी कठिनाईयाऊ होती हैं। इसलिए यह निदानात्मक प्रक्रिया व्यक्तिगत अधिक है। उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त कुछ कारणों का उल्लेख किया गया है जिनका निदान परीक्षणों से सम्भ्रव नहीं है।

(अ) स्वास्थ्य संबंधी निदान– शारीरिक दृष्ठि से सामान्य होने पर भी स्वास्थ्य का दोष हो सकता है। यह कहावत अधिक व्यावहारिक है- “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।” अध्ययन की दृष्टि से छात्र को स्वस्थ होना अधिक आवश्यक होता है। इसमें अभिभावकों की सहायता ली जा सकती है और उनके स्वाथ्य की जांच कराने से कारण का पता चल सकता है।

(ब) स्वभावगत दोष– छात्रों के स्वभाव के कारण लिखने पढ़ने में त्रुटिया करते है क्योंकि वे प्रत्येक काम जल्दी करते है। जल्दी मैं अकसर त्रुटिया< होती है। जबकि उन्हें शब्दों की वर्तनी का सही बोध होता है।

(स॒) पारिवारिक स्थिति– छात्र की पारिवारिक स्थिति सामान्य नहीं है, जैसे आर्थिक स्थिति अच्छी न होना, माता-पिता अथवा अन्य सदस्यों मैं झगड़े रहना आदि भी छात्रों के लिए कठिनाईयों का कारण होते है।

(द) छात्र की संगति अच्छी न होना वातावरण दूषित होना, विपरीत परिस्थितियारँ भी कारण होती है।

निदान की विधियाँ

निदान की प्रक्रिया में प्रमुख रूप से दो प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है –

1. दार्शनिक विधि-

निदान एवं सापैक्ष प्रक्रिया अधिक है। निदानात्मक परीक्षणों के आधार पर छात्रों का शुध्द रूप में निदान किया जा सकता है, जब तक शिक्षक का छात्रों से पारस्परिक संबंध न हो। निदानात्मक परीक्षणों से यह विदित होता है कि छात्र किस प्रकार की त्रुटि करते है परंतु त्रुटि करने का क्या कारण है ? इसके कारण का पता शिक्षक ही लगा सकता है, जिसका छात्रों से संबंध रहा एवं परिस्थितियों पर निर्भर करते है। इस प्रकार निदानात्मक परीक्षण विश्वसनीय एवं वैद्य तभी हो सकती है। जब परीक्षक का परीक्षार्थियों से पारस्परिक संबंध रहा हो अन्यथा उसका अर्थापन करा शुध्द एवं वैद्य नहीं होगा।

2.निदानात्मक परीक्षण-

निदान की दूसरी विधि निदानात्मक परीक्षण है। साधारणतया इसी विधि का प्रयोग निदान की प्रक्रिया मैं किया जाता है। निदानात्मक परीक्षण का प्रयोग मुख्य रूप से निर्देशन एवं सुधार के लिए किया जाता है। निदानात्मक परीक्षण से यह विदित होता है कि एक छात्र की निष्पत्ति पर्याप्त क्यों नहीं है ? इसका कारण बताता है। हिन्दी में उपचारी शिक्षण शैक्षणिक निदान का प्रयोजन ही उपचारी शिक्षण है। शैक्षणिक निदान द्वारा बालकों की कठिनाईयों का पता लगाकर उन कठिनाईयों को दूर करते हुए जो शिक्षक-कार्य अपनाया जाता है उसे उपचारी शिक्षण कहते है।

उपचारी शिक्षण

उपचारी शिक्षण के भी उनके रूप हो सकते है- बालकों की कठिनाईयों का सामूहिक रूप से निवारण और उचित अभ्यास, वैयक्तिक भेदों के आधार पर वयक्तिगत बालक की अशुध्दियों का निवारण, उपचार गृहों अथवा भाषा-प्रयोगशालाओं में बालकों के उच्चारण एवं भाषा संबंधी प्रशिक्षण और अभ्यास। उदाहरण के लिए सस्वर वाचन संबंधी पूर्वाईलिखित कठिनाईयों को जान लैने पर उपचारी शिक्षण के निम्नांकित रूप अपनाए जा सकते है-

1. सर्वप्रथम शिक्षक के अपना आदर्श वाचन सभी दृष्टियों- शुध्द एवं स्पष्ट उच्चारण, उचित स्वर, गति, यति, प्रवाह, आरोह-अवरोह आदि से आदर्श बनाना चाहिए।

2. जिनध्वानियों एवं शब्दों के उच्चारण में अशुध्दियाऊँ होती है, उनके शुध्द एवं स्पष्ट उच्चारण की शिक्षा और अभ्यास कराना।

3.शुध्द एवं स्पष्ट उच्चारण और बाद उचित स्वर, गति, गति, यति, प्रवाह की दृष्टि से भी बालकों को प्रशिक्षित करना और सस्वर वाचन का अभ्यास कराना।

4. शब्दार्थ संबंधी कठिनाइयों को दूर करना और अर्थ ग्रहण की योग्यता बढ़ाना।

5.अच्छे-अच्छे अवतरणों का चयन कर वाचन कराना, वाचन मैं रूचि उत्पन्न करना, अधिक वाचन के लिए प्रोत्साहित करना।

6. माँखिक रचना संबंधी विविध अभ्यास-भाषण, वाद-विवाद, कविता-पाठ अत्याक्षरी प्रतियोगिता आदि।

इसके अतिरिक्त सस्वर वाचन संबंधी उपचारी शिक्षण में निम्नांकित बातों का भी ध्यान रखना होगा-

1. दोषपूर्ण सस्वर वाचन करने वाले छात्रों की योग्यता को ध्यान में रखते हुए उनके अनुकूल विषय-सामग्री द्वारा उनका शिक्षण प्रारम्भ करना चाहिए, भले ही कुछ समय के लिए कक्षा स्तर से नीचे उतरना पड़े। पठन सामग्री उनके अनुकूल [कूल सरल और रोचक होनी चाहिए जिससे धीरे-धीरे पठन में उसकी रूचि बढ़े, गति बढ़े और अर्थ ग्रहण की शक्ति भी बढ़े। वाचन को सोद्देश्य बनाकर ऐसे बालकों में पढ़ने के प्रति प्रेरणा उत्पन्न करनी चाहिए।

2. ऐसे अभ्यास दिए जाए जिनकी उपयोगिता का छात्र भी अनुभव करते चले।

3. बालकों को स्वयं अपनी प्रगति जानने का भी अवसर दिया जाए।

4. रोचक एवं उपयोगी पुस्तकों की चर्चा, घटनाओं का वर्णन, साहसिक कहानियाएें, ऐसी कहानियाऊँ जिनमैं कम प्रतिभा वाले बालक भी परिश्रम एवं अध्यवा साय द्वारा महान, बन गए हों, सुनाई जाएं और छात्रों से पढ़वाई जाएएं।

5. बालक मैं छिपी हुई किसी विशिष्ट प्रतिभा; योग्यता, कुशलता का उसे आआस कराना जिससे उसकी हीन भावना दूर हो, संकोच और झिझक दूर हो, आत्म सम्मान का भाव पैदा हो और वह निर्भीक बने। अभिनय, वाद-विवाद आदि कार्यक्रमों से भाग लेने के लिए उसे प्रेरित और प्रोत्साहित किया जाए।

इस प्रकार भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में बालकों की भाषा संबंधी कठिनाइयों को दूर करने के लिए शैक्षणिक निदान एवं उपचारी शिक्षण की प्रक्रिया अपनाई जा सकती है। निस्सन्देह ही यह प्रक्रिया बालकों की सीखने संबंध्‌:बरी कठिनाइयों को दूर करने और उन्हें उचित शैक्षिक प्रगति के लिए तैयार करने मैं उपयोगी होगी।

‘शैक्षणिक निदान एवं उपचारी शिक्षण’ का महत्

आधुनिक शिक्षण में ‘शैक्षणिक निदान एवं उपचारी शिक्षण’ एक नवीन प्रयोग है और इससे उन बालकों को विशेष लाभ है जो किन्ही कारणों से सीखने की क्रिया में पिछड़ जाते हैं और अपेक्षित प्रगति नहीं कर पाते। ‘शैक्षणिक निदान एवं उपचारी शिक्षण’ की उपयोगिताएँ संक्षेप में निम्नांकित हैं-

1. शैक्षणिक निदान द्वारा बालकों की सीखने संबंधी कठिनाइया< का पता चल जाता है।

2. कठिनाईयाऊ एवं कारणों को दूर करने मैं समुचित शिक्षण-प्रक्रिया अपनाई जाती है।

3. शिक्षण प्रक्रिया प्रभावशाली होती है और बालकों को अपनी शक्ति एवं योग्यतानुसार शैक्षिक प्रगति करने का अवसर मिलता है।

4. उपचारी शिक्षण द्वारा छात्रों की व्यक्तिगत कठिनाइयार दूर होती है और इस क्रिया सै अन्य छात्रों के समय आदि की भी क्षति नहीं होती ।

5. पिछड़े बालकों की हीन भावना दूर हो जाती है और वे असमायोजन से बच जाते है, उनमें आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है और उनके व्यक्तित्व का समुचित विकास मैं सहायता मिलती है।

Leave a Comment

CONTENTS